सिन्दूरी लाल दिवाकर
रंग केसरिया तिलक
हरित चित्र
टिमटिमाती चंद्ररात
भोर न हो
रक्तिम लाल
न हो
स्याह रात
- नीरज मठपाल
सितम्बर २८, २०१०
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
शनिवार, 25 सितंबर 2010
बर्तन सब साफ़ हैं
गले से लटकती हुई प्यासें
पेट से लटकती हुई भूखें
दरवाजे पर यूँ चलकर आती हुई भिन्डीयाँ
घी चुपड़ी पास बुलाती रोटीयाँ
थाली पर फैलती हुई दालें
कुकर के ढक्कन पर दस्तक देती चावलें
सब कुछ पलक झपकते गायब हो गया
रह गयी गले से लटकती हुई प्यासें
और अब भी पेट से लटकती हुई भूखें
- नीरज मठपाल
सितम्बर २५, २०१०
पेट से लटकती हुई भूखें
दरवाजे पर यूँ चलकर आती हुई भिन्डीयाँ
घी चुपड़ी पास बुलाती रोटीयाँ
थाली पर फैलती हुई दालें
कुकर के ढक्कन पर दस्तक देती चावलें
सब कुछ पलक झपकते गायब हो गया
रह गयी गले से लटकती हुई प्यासें
और अब भी पेट से लटकती हुई भूखें
- नीरज मठपाल
सितम्बर २५, २०१०
शनिवार, 11 सितंबर 2010
मेरा हृदय अब भी पहाड़ में बसता है
कदमों को विकास भी दिखा
नयनों को समंदर भी,
मन को साथी भी मिला,
समय को राह भी।
कुछ दूर भी हुआ
तो कुछ पास आया भी,
कुछ अलग वक्त को भी देखा
तो कुछ अलग वक्त ने दिखलाया भी।
कुछ अलग खुद को भी समझा
तो कुछ अलग खुद को समझाया भी,
आगे पीछे दिन रात भागते भी रहे
और रात दिन थमते रहे भी।
सोचा तो जाना भी
मेरा हृदय
अब भी पहाड़ में बसता है।
- नीरज मठपाल
सितम्बर ११, २०१०
नयनों को समंदर भी,
मन को साथी भी मिला,
समय को राह भी।
कुछ दूर भी हुआ
तो कुछ पास आया भी,
कुछ अलग वक्त को भी देखा
तो कुछ अलग वक्त ने दिखलाया भी।
कुछ अलग खुद को भी समझा
तो कुछ अलग खुद को समझाया भी,
आगे पीछे दिन रात भागते भी रहे
और रात दिन थमते रहे भी।
सोचा तो जाना भी
मेरा हृदय
अब भी पहाड़ में बसता है।
- नीरज मठपाल
सितम्बर ११, २०१०
सदस्यता लें
संदेश (Atom)