वो एक अन्जानिस्तान की रात थी
चन्द्रमा डोल रहा था दांये बांये
आकाश की कालविनाशक चादर ओढ़े
औंधे मुंह लटक रहा था त्रिशंकु सा
बांयी आँख के नीचे नीला हाथी
पास में पड़े दो चार टूटे तारे
एकदम लाल रंग में टिमटिमा रहे थे
सागर का सारा नमक चेहरे पर था
धरती का सारा मैलापन बरस रहा था
हैवानियत का अट्टहास था दांये बांये
वो एक दर्दिस्तान की रात थी
- नीरज मठपाल
फरवरी ८, २०१२