गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

दैनन्दिनी

३६५ पृष्ठों के हिसाब - किताब
१२ महीनों के सुख - दुःख
१ बरस की रचनात्मकता
को चबा - चबा के
खा गयी कुछ ' जीबी की मैमोरी '
और कुछ ' रेडीमेड छोटे बड़े डब्बे '

- नीरज मठपाल
अक्टूबर ७, २०१०

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

समुद्र से उगता सूरज

अभी दो सप्ताह ही तो हुए जब शनिवार के दिन हमने तय किया कि कल सुबह सुबह सूर्य दर्शन पर निकला जाए। सबसे जरूरी था मौसम का हाल जानना क्योंकि पिछले दो बार सुबह सुबह सूर्य दर्शन तो हुए थे, लेकिन तब तक सूरज समुद्र से ५ फीट ऊपर आ चुका था। बादलों ने सूरज को छिपा लिया था, भले ही किरणें छनकर हम तक पहुँच रही थी, आँखों को एक बेहतरीन दृश्य देखने को मिला भी, किन्तु जैसे एक चीज थोड़ा अपूर्ण रह गयी हो। पिछले दोनों ही प्रयास ‘साउथ मियामी बीच’ पर किये गए थे। इस बार हमने तय किया कि ‘फोर्ट लॉडरडेल बीच’ से अपने को कृतार्थ किया जाये। रविवार की सुबह ५-४५ पर हमारी सवारी घर से निकल पड़ी। जब निकले थे, तो अँधेरे का साम्राज्य छाया हुआ था। जैसे जैसे मिनट की सुई आगे बढी, हल्की हल्की सफेदी सी छाने लगी। हम ६-१५ पर समुद्र तट के समीप पहुँच चुके थे, कार को पार्किंग में डालकर हम रेत से होते हुए समुद्र के बिलकुल पास जा पहुंचे। लहरों के साथ आती हुई अपार जलराशि का एक कोना हमारे पैरों से खेलने लगा। हमारे पैर भी स्वयं ही पानी से खिलवाड़ करने लगे। पर आँखों का ध्यान सुदूर उस रेखा पर ही था जहाँ पर सागर आकाश एक दूसरे का हाथ थामे खड़े थे। आकाश के रंग कुछ ऐसे बदल रहे थे जैसे भानु भास्कर के स्वागत में पहले से ही दमकने लगे हों।


घड़ी की सुईयां जैसे ही सात के आगे पहुँची, सागर आकाश के मिलन की लंबी रेखा नारंगी होने लगी, विशेषत: बीचों बीच का दृश्य ही निराला था।



फिर जैसे जैसे चंद्रमा की कलाएं हर तिथि के साथ चंद्रमा की गोलाई बदलती हैं, उसी तरह की गोलाईयों में सूर्यदेव बाहर निकलने लगे। अंतर इतना था कि जहाँ चंद्रदेव पूरे आकार में आने में १५ दिन लेते हैं, वहीं सूर्यदेव ने यह कार्य कुछ ही मिनटों में निपटा दिया। शायद उन्हें भी यह भान है कि मनुष्य को उनसे मिलने वाली ऊर्जा की कितनी आवश्यकता है। उन्हीं की किरणों के साथ सारे काम प्रारंभ होते हैं, उन्ही की किरणों के अस्त होने के साथ सारे काम रूकने से लग जाते हैं।
एक घंटा वो सुबह हमने उस महान ऊर्जाश्रोत के साथ बिताई। ऐसा प्रतीत हुआ कि शरीर में वास्तव में ही कुछ ऊर्जा संचरण हो गया हो। वैसे भी समय पर उठने से पूरा दिन ही सार्थक सा लगता है, फिर इस दिन तो बात ही कुछ और थी। सूर्य को नमस्कार कर हमने अपने कदम वापस घर की तरफ बढाये, पर उस दर्शन की यादें हमेशा दिमाग में ताजा रहेंगी।

आप इन चित्रों का आनंद लें, अभी के लिए अलविदा।
- नीरज मठपाल
अक्टूबर २, २०१०

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

हस्ताक्षर

आपका पद आपका पैसा
बोलेगा
आपके हस्ताक्षर का मूल्य क्या है?
लेखक के हस्ताक्षर
कुछ बोलते नहीं ।

- नीरज मठपाल
अक्टूबर १, २०१०

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

फैसला

सिन्दूरी लाल दिवाकर
रंग केसरिया तिलक
हरित चित्र
टिमटिमाती चंद्ररात

भोर न हो
रक्तिम लाल
न हो
स्याह रात


- नीरज मठपाल
सितम्बर २८, २०१०

शनिवार, 25 सितंबर 2010

बर्तन सब साफ़ हैं

गले से लटकती हुई प्यासें
पेट से लटकती हुई भूखें

दरवाजे पर यूँ चलकर आती हुई भिन्डीयाँ
घी चुपड़ी पास बुलाती रोटीयाँ
थाली पर फैलती हुई दालें
कुकर के ढक्कन पर दस्तक देती चावलें

सब कुछ पलक झपकते गायब हो गया

रह गयी गले से लटकती हुई प्यासें
और अब भी पेट से लटकती हुई भूखें

- नीरज मठपाल
सितम्बर २५, २०१०

शनिवार, 11 सितंबर 2010

मेरा हृदय अब भी पहाड़ में बसता है

कदमों को विकास भी दिखा
नयनों को समंदर भी,
मन को साथी भी मिला,
समय को राह भी।

कुछ दूर भी हुआ
तो कुछ पास आया भी,
कुछ अलग वक्त को भी देखा
तो कुछ अलग वक्त ने दिखलाया भी।

कुछ अलग खुद को भी समझा
तो कुछ अलग खुद को समझाया भी,
आगे पीछे दिन रात भागते भी रहे
और रात दिन थमते रहे भी।

सोचा तो जाना भी
मेरा हृदय
अब भी पहाड़ में बसता है।

- नीरज मठपाल
सितम्बर ११, २०१०

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

काला सफ़ेद

देखा कि बाहर से झाँकते हुए
लम्बी कार के काले शीशों के
पीछे की दुनिया
कितनी सफ़ेद है।

लम्बाई की आड़ में
पहुँचने वाले काले गट्टों ने
सफ़ेद साये से पूछा,
दिखने के इस अंदाज को
सीखने से
क्यों हरवाना चाहता है।

सीखने ने दिखने से
नजर मिलाने को
इन्कार कर दिया और बोला,
देख, देख के बहुत सीख लिया
अब सीख, सीख के देख।

सफ़ेद शीशों के पीछे की
काली दुनिया को सीख
सफ़ेद गट्टों को काले साये
पहचान आने लगे।

- नीरज मठपाल
अगस्त ३१, २०१०

रविवार, 29 अगस्त 2010

फफूँदी

घर के किसी कोने में
दरी पर यूँ ही पड़ी
एक प्लेट ने उससे पूछा,
मैं तीन महीनों से उल्टी गिरी हूँ
फफूँदी का मैं अब घर बन चुकी हूँ
मुझे कब स्वच्छ पानी का
अमृत प्राप्त होगा?

फफूँदी हँसने लगी।

उसने चेहरे को प्लेट से
और दूर ले जाकर बुदबुदाया,
तू अकेली तो नहीं
सारे घर में सीलन है
उसी का पानी निचोड़
सब फफूँदी बन रहा है,
तू भी बन।

देखें पंचतत्त्व और ठोस पदार्थ में
भंगुरता किसे पहले दिखती है।
उसके मालिक ने कहा
घर को आग लगा दो !

लग गई आग।

इधर फफूँदी दूर किसी घर में
फिर हँस रही थी।

- नीरज मठपाल
अगस्त २९, २०१०

सोमवार, 26 जुलाई 2010

Points at Deep Might

On a sunny day
lying in sand of a beach
How long you've been here dear Ocean, I asked
The great sea played
many vocals in a breath taking moment
but it's my limitation to not hear the most beautiful chord

Slowly I walked into the blue water
letting the moss play with my feet
It feels like a tiny point
lost in a limitless ocean
with hands in hands
looking at another tiny point

- Neeraj Mathpal
July 26, 2010

मंगलवार, 25 मई 2010

भट भट भट भट्टाम

ए बड़ी सी मेज
महोगनी की
विशाल घिसी हुई भुजा सी।
तेरा अंत निकट है
आगे के पाए उखाँडू पहले
या पीछे के
या दे मारूं
एक बड़ा हथौड़ा बीच में।
अजीब समस्या
प्राण हर लेने में भी
सोचना
कि आरम्भ कैसे हो।
सामान्य सी दर्शित होती मेज की
मौत ऐसी जटिल।
तो क्यों
जटिल मनुष्य को मिलती
इतनी सामान्य मौत।
बस कुछ ही आवाजें
ठांय ठांय ठांय और
भट भट भट भट्टाम।

- नीरज मठपाल
मई २५, २०१०

रविवार, 23 मई 2010

रात का उल्लू

ए उल्लू !
कहाँ जा रहा है?
बैठ अभी
रात के जाने में चार घंटे बाकी हैं
सुबह की काफी पीकर निकल जाना
दूर जाने का समय न भी मिले तो
पास के बड़े पत्तों से घिरे पेड़ पर ही
डेरा जमा लेना
दो - चार दिन।

माना वहाँ जगह कम है,
हजार उल्लू पहले से ही रात - दिन
उसी पेड़ पर लटके हैं।
और तू रात को विचरण करने वाले
चंद उल्लुओं में से एक बचा है।

माना कि तू उल्लुओं की
इस भीड़ में
अभी अल्पसंख्यक हो गया है।
माना कि तुझे बिना शुल्क
उस पेड़ पर कोई
दिन नहीं बिताने देगा।

फिर भी हे उल्लू !
तू दिन को यहाँ तो रह नहीं सकता।
उस पेड़ के उल्लू जैसे भी हैं,
हैं तो तेरे अपने।
तेरी जैसी ही बड़ी आँखें,
तेरे जैसे ही पंख।

तुझे वो एक दिन का मुसाफिर मान
मना न करेंगे।
मैं तेरे लिए एक
सिफारशी पत्र
लिख देता हूँ।

ये कोई आम पत्र नहीं,
तेरा प्रवेश पत्र है।
इसका मिलना तो
जैसे बड़ी तपस्या के बाद
अमृत का मिलना।

पर तू मेरा ख़ास उल्लू है,
तुझे बता ही दूँ
इस तपस्या का नाम -
अकडम बकडम छू
'जुगाड़' ।

मेरे सब दुखों के साथी,
तू जा,
ले जा,
मेरी इस तप पूँजी को।

इसी जुगाड़ मंत्र को
घोल ले कानों में और अब
जा भी,
उड़ जा।

- नीरज मठपाल
मई २२, २०१०

गुरुवार, 25 मार्च 2010

लैंप से लटकी परी

एक चौड़ी सी सड़क पर जब मैंने ठीक सामने 'स्टॉप' का चिह्न देखा, तो गाड़ी खुदबखुद ही रुक गयी। जब प्रतिदिन एक ही रास्ते से गुजरना होता हो, तो हाथ पाँव दिमाग के आदेशों की प्रतीक्षा नहीं करते बल्कि खुद ही सदिश बन जाया करते है। अन्य गाड़ियों के जाने का इंतज़ार करते हुए मैंने पीछे की सीट पर पड़ी पोलीथिन की तरफ़ झाँका, तो नज़र एक लकड़ी की बनी हुई छोटी सी परी पर गयी। कहने को तो ये एक सजावटी सामान भर था, पर असल में जैसे इसका श्वेत रंग शांति का, फूल - पत्ती प्रकृति का प्रतीक हो। इन्हीं विचारों के बीच गाड़ी स्वयं ही आगे बढ़ी और घर के नजदीक जाकर ही रुकी।

खरीदारी का सामान लेकर मैं और मेरी धर्मपत्नी रात के आठ बजकर बीस मिनट पर घर में घुसे, तो हमेशा की तरफ़ भाग्यवान ने सामान निकाल निकाल कर एक एक को फिर से परखना शरू कर दिया। हर सामान को देखकर उसकी मुस्कान और चौड़ी होती जाती जैसे अपनी खरीदारी पर गर्व महसूस कर रही हो। हो भी क्यों ना? आज 'डॉलर शॉप' पर मेहरबानी जो करी थी। एक छोटा सा बन्दर, फेंग शुई, दो चम्मच, एक मेढक की आवाज़ रहित मूर्ति। सभी धीरे धीरे कहीं न कहीं 'फिट' होने लगे। जिसे कहीं जगह ना मिली, उसे टीवी सेट के ऊपर, नीचे, आगे, पीछे किसी तरफ़ लगा दिया गया।

सब से निवृत होकर भाग्यवान हाथों में परी को नचाने लगी। बेचारी कभी इधर देखती, कभी उधर देखती, पर कहीं एक भी जगह न पा सकी जहाँ पर परी के लायक योग्य जगह मिल पाती। जब एक करूणा भरी नज़र से उसने मेरी तरह देखा, तो लगा जैसे साक्षात् प्रकृति माता हमारे घर में विराजमान होना चाहती है और हमारे पास एक योग्य आसन ही नहीं है। मैं भाग्यवान की यह छवि अधिक देर निहार नहीं सका क्योंकि मेरा हृदय दया भाव से भर गया और उसकी उसी पल सहायता करने की मैंने ठान ली। जब इन्सान एक बार कुछ ठान लेता है, तो सारी कायनात उसकी सहायता करने को आ जाती है। अंग्रेजी में एक कहावत है, "व्हैर दियर इज अ विल, दियर इज अ वे" और फिर यहाँ पर सवाल भाग्यवान का था, जिसके लिए तो मैं सागर पर्वत सब एक कर सकता था।

इसी सब विचार मंथन के बीच मेरी नज़र एक ५ फीट ऊँचे लैंप पर पड़ी, जो दो बल्बों की रौशनी में न सिर्फ स्वयं जगमगा रहा था, बल्कि पूरे घर को अपनी सफेदी की चमकार में नहला रहा था। बस फिर क्या था, जैसे ही मेरी नज़र उसके एक हुक पर पड़ी, परी आज से उसकी हो गयी। भाग्यवान के हाथों से परी को लेकर मैंने उसे लैंप पर टांग दिया। इस भाव विभोर दृश्य को देखकर सारी कायनात ख़ुशी से झूम उठी, देवताओं ने फूल बरसाएं, अनु मलिक ने मंगल गीत गाये और सारे कमरे में ख़ुशी का निवास हो ही गया।

इसी ख़ुशी से प्रेरित होकर एक लेखनी चल पड़ी लैंप और परी के इस महामिलन को शब्दों से अंकित करने। कृपया आप भी लैंप और परी को अपना आशीर्वाद दें, जिससे उनका मंगलमय जीवन और भी मंगलमय हो जाये।

- नीरज मठपाल
मार्च २३, २०१०