खुशी की आवाज
जब छलकती हुई कानों पर पड़ती है,
खुशी का साज
जब हृदय के द्वार पर पहुँचता है,
मेरे होँठ स्वयं ही फ़ैल जाते हैं।
जैसे खुशी के स्वागत के लिए
मोतियों की माला यौवन चरम पे हो।
जैसे मेरी बाहें खुलने को आतुर हों
खुशी समेटकर उसे फैलाने के लिए।
इस आवाज का ये रूपहला अंदाज
मन में भीगा भीगा सा ये अहसास
बस यूँ ही गुदगुदा जाता है
पल कुछ और खुशियों के दे जाता है।
- नीरज मठपाल
मार्च २५, २००८
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Good to see you blogging regular now...
जवाब देंहटाएंnice poem..keep writing u r doing a good work..you have lot of potential keep improving...
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