आप भी सोचते होंगे कि ये क्या बात हुई - अमेरिका का हेयर कट। पर इस बात में तो बहुत बात है। जो बाल कभी १०, १५ या २० रुपये में कटा करते थे, वो अब १५, २०, २५ डालर में कटा करते हैं। वो बाल, जिन्हें कटाने के लिए नाई से बस यही कहते थे कि आगे पीछे से छोटे कर दो और बीच में ठीक ठाक। उन्हीं बालों को कटाने के लिए कह रहे हैं - पीछे ३ नंबर की मशीन चला दो और छोटे कर दो बाकी। साथ ही आँखें बंद करके भगवान् से प्रार्थना कर रहे हैं कि भगवान् जब इन आँखों को खोलूँ तो अपना हेयर कट देखकर ख़ुद को ही सदमा न लग जाए। पर फ़िर भी किसी तरह सैलून से ऐसा कुछ व्यक्तिगत अनुभव तो मुझे हुआ नहीं कि मैं अपनी लेखनी को हेयर कट पर कुछ कागज बरबाद करने को बोलूँ। हाँ, अभी कुछ दिन पहले एक ऎसी घटना घटी जिसने मेरे हेयर कट को एक अति महत्त्वपूर्ण और अति संवेदनशील कार्य में परिवर्तित कर दिया।
जून २० - ये वो दिन था जब मुझे बाल कटाए पूरे ढाई महीने बीत चुके थे और किनारों से, पीछे से टेढ़े मेढ़े होते बाल रोज दुहाई दे रहे थे कि हमें काट दो, हमें काट दो। अब उन्हें कैसे समझाएं भाई तुम्हें काटने के लिए नाई के पास जाना पडता है। कोई तुम दाढ़ी थोड़ी हो कि तुम्हें रेजर से घिस डालूँ कभी भी, कहीं भी। पर आखिरकार एक ऐसा दिन आया जब " त्राहिमाम् , त्राहिमाम् " की ये पुकार मेरे कान के परदे फाड़ने लगी और मेरी अंतरात्मा ने कहा अब वो वक्त आ गया है जब मुझे अपने इन बालों की बलि देनी ही होगी। मेरे रूममेट के बाल भी अपनी सारी मर्यादाएं लाँघ कर गधे की पूंछ की तरह लंबे हो गए थे। तो वह भी अपनी केशराशि को बलिवेदी पर चढ़ाने के लिए व्यग्र था।
जुलाई ११ - शुक्रवार का दिन थे। हम आफिस से जल्दी निकले, आँखों में जूनून था बाल कटवाने का। दिल में तूफ़ान घुमड़ रहा था कि आज शरीर का वजन कुछ तो कम हो ही जायेगा। नाई की कैंची हमारा बरबस इंतजार कर रही थी। कुछ एक मील का रास्ता तय करते हुए हमारी कार मंजिल तक पहुँची। मेरे रूममेट की खुशी का बाँध छिपाए नहीं छिप रहा था। आख़िर हमने उस दुकान में कदम रख ही दिया, देखा कि वहाँ दो ही लोग थे, एक नाखून पे कुछ तो करवा रही थी और दुसरी आराम फरमा रही थी। हमें तो साफ़ साफ़ ही बोल दिया गया कि आज बाल काटने वाले जल्दी घर चले गए, अभी कोई नहीं है, कल आना। चलो, कोई नहीं, हमने भी सोचा कि एक ही दुकान थोड़ी है, अगली में गए तो वो बंद। अगली में गए तो वो भी बंद। अगली में गए तो वहाँ भी नाई भाग चुके थे। कुल मिलाकर एक घंटे ७-८ सैलूनों में चक्कर मारकर हम "लौट के बुद्धू घर को आए" को चरितार्थ करते हुए घर पहुंचे। सोचा कि कोई नहीं, कल चले जायेंगे।
जुलाई १२ - शनिवार का दिन। पूरा दिन सोने में ही निकल गया। शाम ६ बजे ध्यान आया कि बाल भी तो कटवाने हैं, फ़िर तो रविवार के दिन सैलून बंद रहते हैं। बस निकल चले घर से। पर पता चला कि शनिवार को ज्यादातर सैलून ४ या ५ बजे ही बंद हो जाते हैं। केवल एक ही सैलून खुला था जो ७ बजे तक खुला रहता है, पर चूंकि हमारी " अपान्ट्मेंट " नहीं थी वहाँ के लिए तो उसने भी बाल काटने से मना कर दिया यह कहकर कि किसी और कि बारी है, जब वहाँ तक कोई था ही नहीं। लेकिन उन्हें समय नहीं था, तो हम क्या कर सकते हैं। या फ़िर हमारी किस्मत में बाल कटाना ही ना लिखा था इन दिनों।
जुलाई १४ - सोमवार का दिन। आज तो प्रण करके ही चले थी कि आज बाल कटवाए बिना घर का मुँह नहीं देखेंगे चाहे कुछ भी हो जाए। पर फ़िर पता चला सोमवार को भी कई दुकाने बंद रहती हैं और जहाँ गए वहाँ वही ढाक के तीन पात। आगे कि कहानी क्या बताएं, बस हम भी जिद में थे कि कम से कम बाल कटवाने के लिए तो " अपाइन्ट्मेन्ट " नहीं ही लेंगे।
जुलाई १६ - मंगलवार को समय नहीं मिल पाया। आफ़िस के काम में ही उलझकर रहे गए, पर ये क्या , ये बुधवार का दिन भी वैसा ही निकला जब हम सोचने पर मजबूर हो गए कि इतना अगर बेकरार हम भारत की धरती पर होते, तो कोई नाई घर पर आकर ही बाल काट जाता। पर क्या हो सकता था, हम भारत में तो नहीं थे ना। ये भी सोच लिया कि क्यों न ख़ुद ही काट डालें, पर फ़िर बालों पर दया सी आ गयी।
जुलाई १७ - आज जब फ़िर से वही कहानी दुहराई गयी, तो हमने आख़िर अगले दिन के लिए शाम ७ बजे का "अपाइन्ट्मेंट" ले ही लिया। बालों कि व्यथा आन, बान और शान पर भारी पड़ ही गयी।
जुलाई १८ - आखिरकार जुलाई १८ का वो शुभ दिन आ ही पहुँचा, इन्तजार के बाद जब कुछ चीज मिलती है, तो उसका महत्त्व तो स्वर्ग मिलने के ही सामान होता है। बुकिंग होने के बावजूद हमारे दिल कि धड़कनें बड़ी हुई थी। मन में डर था कि कहीं आज वो दुकान बंद तो नहीं होगी। इस आशंकित मन के साथ कार पार्क करने के बाद जब हमने देखा कि सैलून के दरवाजे खुले है, तो साँस में साँस आयी। अन्दर जाते ही हैड नाई ने पुकारा, " मिली (सही नाम भूल गए हैं अब), तुम्हारे क्लाइंट आए हैं। हे प्रभु, ये क्या? जिंदगी में पहली बार अहसास हुआ कि हम नाई के लिए क्लाइंट हैं।
सिर पर पानी डालने के साथ नाई ने बाल काटने का शुभ कार्य प्रारम्भ किया। शकल देखने के बाद उसका पहला प्रश्न था, " हाऊ यंग यूं आर?" जैसे जैसे उम्र का हर दिन बढ़ रहा है, ये प्रश्न सुनकर और खुशी होती है। उसका दूसरा प्रश्न था," तुमने कब से बाल नहीं कटाये हैं?" मैंने सोचा तीन महीने से ऊपर हो गए हैं तो क्या बोलूँ, यही बोल दिया कि लगभग ढाई महीने हो गए हैं। उसके बाद जो कुछ हुआ वो सब कुछ एक हसीं सपने जैसा था। कुछ ही देर में हमारी केश्रशियाँ जमीन पर गोते खा रही थी। पंखे की हवा के झोंके उन्हें इधर उधर कर रहे थे। जैसे जैसे बाल नीचे गिर रहे थे, नाई बोल रही थी, "लाट्स आफ हेयर, लाट्स आफ हेयर"। चलो जैसे तैसे काम समाप्त हुआ, हम गदगद थे, बहुत खुश थे। उस सैलून के तो हम जिंदगी भर के लिए आभारी हो गए, जिसने हमें हफ्ते भर कि निराशाओं से निजात दिला दी थी। जहाँ और दिन २ डालर टिप में देते थे, आज ५ दे डाले। आते समय उसने मुझे बोला, "नेक्स्ट टाइम, डांट वेट फार टू एंड हाफ मंथ्स, कम इन फाइव वीक्स" । इस शानदार वाक्य के साथ ही एक मधुर मुस्कान का आदान प्रदान हुआ और हमने विदा ली। हम ५ हफ्ते या दो महीने की बात को नहीं सोच रहे थे, पर हाँ एक ख्याल दिमाग पर जरूर छाया हुआ था कि अगली बार से ३-४ दिन पहले ही "अपाइन्ट्मैन्ट" ले लिया करेंगे।
आज इस बात को पूरा एक हफ्ता बीत चुका है, पर आज भी इस हेयर कट की यादें एकदम ताजा हैं।
- नीरज मठपाल
जुलाई २७, २००८
जून २० - ये वो दिन था जब मुझे बाल कटाए पूरे ढाई महीने बीत चुके थे और किनारों से, पीछे से टेढ़े मेढ़े होते बाल रोज दुहाई दे रहे थे कि हमें काट दो, हमें काट दो। अब उन्हें कैसे समझाएं भाई तुम्हें काटने के लिए नाई के पास जाना पडता है। कोई तुम दाढ़ी थोड़ी हो कि तुम्हें रेजर से घिस डालूँ कभी भी, कहीं भी। पर आखिरकार एक ऐसा दिन आया जब " त्राहिमाम् , त्राहिमाम् " की ये पुकार मेरे कान के परदे फाड़ने लगी और मेरी अंतरात्मा ने कहा अब वो वक्त आ गया है जब मुझे अपने इन बालों की बलि देनी ही होगी। मेरे रूममेट के बाल भी अपनी सारी मर्यादाएं लाँघ कर गधे की पूंछ की तरह लंबे हो गए थे। तो वह भी अपनी केशराशि को बलिवेदी पर चढ़ाने के लिए व्यग्र था।
जुलाई ११ - शुक्रवार का दिन थे। हम आफिस से जल्दी निकले, आँखों में जूनून था बाल कटवाने का। दिल में तूफ़ान घुमड़ रहा था कि आज शरीर का वजन कुछ तो कम हो ही जायेगा। नाई की कैंची हमारा बरबस इंतजार कर रही थी। कुछ एक मील का रास्ता तय करते हुए हमारी कार मंजिल तक पहुँची। मेरे रूममेट की खुशी का बाँध छिपाए नहीं छिप रहा था। आख़िर हमने उस दुकान में कदम रख ही दिया, देखा कि वहाँ दो ही लोग थे, एक नाखून पे कुछ तो करवा रही थी और दुसरी आराम फरमा रही थी। हमें तो साफ़ साफ़ ही बोल दिया गया कि आज बाल काटने वाले जल्दी घर चले गए, अभी कोई नहीं है, कल आना। चलो, कोई नहीं, हमने भी सोचा कि एक ही दुकान थोड़ी है, अगली में गए तो वो बंद। अगली में गए तो वो भी बंद। अगली में गए तो वहाँ भी नाई भाग चुके थे। कुल मिलाकर एक घंटे ७-८ सैलूनों में चक्कर मारकर हम "लौट के बुद्धू घर को आए" को चरितार्थ करते हुए घर पहुंचे। सोचा कि कोई नहीं, कल चले जायेंगे।
जुलाई १२ - शनिवार का दिन। पूरा दिन सोने में ही निकल गया। शाम ६ बजे ध्यान आया कि बाल भी तो कटवाने हैं, फ़िर तो रविवार के दिन सैलून बंद रहते हैं। बस निकल चले घर से। पर पता चला कि शनिवार को ज्यादातर सैलून ४ या ५ बजे ही बंद हो जाते हैं। केवल एक ही सैलून खुला था जो ७ बजे तक खुला रहता है, पर चूंकि हमारी " अपान्ट्मेंट " नहीं थी वहाँ के लिए तो उसने भी बाल काटने से मना कर दिया यह कहकर कि किसी और कि बारी है, जब वहाँ तक कोई था ही नहीं। लेकिन उन्हें समय नहीं था, तो हम क्या कर सकते हैं। या फ़िर हमारी किस्मत में बाल कटाना ही ना लिखा था इन दिनों।
जुलाई १४ - सोमवार का दिन। आज तो प्रण करके ही चले थी कि आज बाल कटवाए बिना घर का मुँह नहीं देखेंगे चाहे कुछ भी हो जाए। पर फ़िर पता चला सोमवार को भी कई दुकाने बंद रहती हैं और जहाँ गए वहाँ वही ढाक के तीन पात। आगे कि कहानी क्या बताएं, बस हम भी जिद में थे कि कम से कम बाल कटवाने के लिए तो " अपाइन्ट्मेन्ट " नहीं ही लेंगे।
जुलाई १६ - मंगलवार को समय नहीं मिल पाया। आफ़िस के काम में ही उलझकर रहे गए, पर ये क्या , ये बुधवार का दिन भी वैसा ही निकला जब हम सोचने पर मजबूर हो गए कि इतना अगर बेकरार हम भारत की धरती पर होते, तो कोई नाई घर पर आकर ही बाल काट जाता। पर क्या हो सकता था, हम भारत में तो नहीं थे ना। ये भी सोच लिया कि क्यों न ख़ुद ही काट डालें, पर फ़िर बालों पर दया सी आ गयी।
जुलाई १७ - आज जब फ़िर से वही कहानी दुहराई गयी, तो हमने आख़िर अगले दिन के लिए शाम ७ बजे का "अपाइन्ट्मेंट" ले ही लिया। बालों कि व्यथा आन, बान और शान पर भारी पड़ ही गयी।
जुलाई १८ - आखिरकार जुलाई १८ का वो शुभ दिन आ ही पहुँचा, इन्तजार के बाद जब कुछ चीज मिलती है, तो उसका महत्त्व तो स्वर्ग मिलने के ही सामान होता है। बुकिंग होने के बावजूद हमारे दिल कि धड़कनें बड़ी हुई थी। मन में डर था कि कहीं आज वो दुकान बंद तो नहीं होगी। इस आशंकित मन के साथ कार पार्क करने के बाद जब हमने देखा कि सैलून के दरवाजे खुले है, तो साँस में साँस आयी। अन्दर जाते ही हैड नाई ने पुकारा, " मिली (सही नाम भूल गए हैं अब), तुम्हारे क्लाइंट आए हैं। हे प्रभु, ये क्या? जिंदगी में पहली बार अहसास हुआ कि हम नाई के लिए क्लाइंट हैं।
सिर पर पानी डालने के साथ नाई ने बाल काटने का शुभ कार्य प्रारम्भ किया। शकल देखने के बाद उसका पहला प्रश्न था, " हाऊ यंग यूं आर?" जैसे जैसे उम्र का हर दिन बढ़ रहा है, ये प्रश्न सुनकर और खुशी होती है। उसका दूसरा प्रश्न था," तुमने कब से बाल नहीं कटाये हैं?" मैंने सोचा तीन महीने से ऊपर हो गए हैं तो क्या बोलूँ, यही बोल दिया कि लगभग ढाई महीने हो गए हैं। उसके बाद जो कुछ हुआ वो सब कुछ एक हसीं सपने जैसा था। कुछ ही देर में हमारी केश्रशियाँ जमीन पर गोते खा रही थी। पंखे की हवा के झोंके उन्हें इधर उधर कर रहे थे। जैसे जैसे बाल नीचे गिर रहे थे, नाई बोल रही थी, "लाट्स आफ हेयर, लाट्स आफ हेयर"। चलो जैसे तैसे काम समाप्त हुआ, हम गदगद थे, बहुत खुश थे। उस सैलून के तो हम जिंदगी भर के लिए आभारी हो गए, जिसने हमें हफ्ते भर कि निराशाओं से निजात दिला दी थी। जहाँ और दिन २ डालर टिप में देते थे, आज ५ दे डाले। आते समय उसने मुझे बोला, "नेक्स्ट टाइम, डांट वेट फार टू एंड हाफ मंथ्स, कम इन फाइव वीक्स" । इस शानदार वाक्य के साथ ही एक मधुर मुस्कान का आदान प्रदान हुआ और हमने विदा ली। हम ५ हफ्ते या दो महीने की बात को नहीं सोच रहे थे, पर हाँ एक ख्याल दिमाग पर जरूर छाया हुआ था कि अगली बार से ३-४ दिन पहले ही "अपाइन्ट्मैन्ट" ले लिया करेंगे।
आज इस बात को पूरा एक हफ्ता बीत चुका है, पर आज भी इस हेयर कट की यादें एकदम ताजा हैं।
- नीरज मठपाल
जुलाई २७, २००८
So, finally my hero is back to writing. I was waiting from past 2 months for your blog.
जवाब देंहटाएंhahaha...it was quite interesting.
जवाब देंहटाएंexplore this link also:
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nice
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