सोमवार, 30 अप्रैल 2007

लम्बू मोटू - भाग १


( प्राक्कथन - इस घटना के सभी पात्र काल्पनिक हैं। यदि कोई पात्र यथार्थ से मिलता जुलता है, तो इसे संयोग मात्र समझें।)

सन १९८३ की बात है। तब चम्बल के बीहड़ इलाक़ों मे ठाकुर विजय पाए सींग का राज चला करता था। पुलिस ठाकुर के नाम से थर थर कांपा करती थी। जब कोई बच्चा रोता था तो माँ बच्चे से कहती थी - "बेटा सो जा वरना ठाकुर आ जायेगा"। ये बड़े ही दुखों के दिन थे।

ऐसे मे झाँसी और पिथौरागढ़ की वीर भूमियों पर दो महापुरुषों ने जन्म लिया। बादल इस ख़ुशी में ख़ूब बरसे। हाथियों ने खुश होकर अंडे दिए और जिराफों ने अपनी ऊंची ऊंची गर्दनें मटकायी। पूरे संसार मे रौनक सी आ गयी।

दोनों ही बच्चे बड़े होने लगे। एक पहाड़ों की पथरीली जमीनों में 'स्कूल' से 'बंक' मारकर पिक्चर हॉल जाता था, तो दूसरा झाँसी के टीलों में छिपकर ठाकुर कि हवेली में चलती हुई नौटंकी देखा करता था। ' बालीवुड' दोनों का कैरियर बरबाद करने में तुला था। दोनों में एक बात और 'कॉमन' थी। दोनों छोटे बच्चों की एक पत्रिका 'लोटपोट' के बहुत बड़े फैन थे। तब शायद इन्हें यह पता नहीं था कि एक दिन इन दोनों की जोड़ी "लम्बू - मोटू" के नाम से विश्व विख्यात होने वाली है।

खैर दोनों बड़े होते हैं। इसमें कोई खास बात नहीं क्योंकि बड़ा तो सबको होना ही पड़ता है। पर उनमें से एक सात फ़ीट की लम्बाई को पार कर जाता है तो दूसरे के भार को तोलने के लिए १८० किलोग्राम के पलड़े भी कम पड़ते हैं।

भाग्य की विडम्बना देखिए कि आज ये दोनों 'साफ्टवेयर लाइन' में काम करते हैं और ठाकुर राजधानी दिल्ली में आज भी मजे से आज़ाद घूम रहा है। हल्द्वानी की बड़ी - बड़ी नहरों का पानी तो आज भी नहीं सूखा है, पर फिर भी न जाने कौन सी क़सम है कि आज लम्बू - मोटू मौन हैं।

(ठाकुर कौन था और चम्बल से दिल्ली कैसे पहुँचा? क्यों लम्बू – मोटू ठाकुर को पकड़ नहीं पाए? लम्बू मोटू से कब मिलेगा? क्या ये ठाकुर का राज ख़त्म कर पायेंगे? अजूबे चरित्रों की इस कहानी का अगला भाग कभी और ..... )

- नीरज मठपाल
अप्रैल ३०, २००७

रविवार, 29 अप्रैल 2007

थोड़ा अनुमान लगायें


कुछ महीनों पहले तक नवीन (कोटी) और सुरेन्द्र (बच्चा) एक ही कम्पनी में काम करते थे। एक दिन दोनों किसी पिकनिक पार्टी में जाते हैं। एक फोटो के आधार पर लाटा टाइम्स पेश करता है उन दोनों के बीच हुई काल्पनिक बातचीत:-

बच्चा: अरे भुक्खड़! ज़रा आराम आराम से खा। कोई लेकर भागने वाला नहीं है तेरा खाना।
कोटी : यार जिन दिनों किस्मत खराब चल रही हो, उन दिनों करना पड़ता है। फिर तेरी प्लेट की इमरती पर भी तो नजर है। (हँसता है)

बच्चा: हाँ बेटा, क्यों नहीं। तेरे को तो मैं इमरती क्या, पूरा खाना ही खिलाऊंगा।
कोटी: अरे हद हो गयी, लंदन जाने वाला है। एक पार्टी देना तो दूर, तू तो एक इमरती भी खिलाने से मना कर रहा है। (मन ही मन में सोचता है - बच्चे से पार्टी लेना तो बहुत ही टफ काम है)

बच्चा: ठीक है भई। तू खुश रह। ये ले, मर (इमरती देता है)
कोटी (अपना सारा खाना चट करने के बाद) : वाह बच्चे, मजे आ गए।

बच्चा: सयाने, बच्चा होगा तू। तू अभी मेरी अल्मोड़ा स्पेशल चाल को नहीं जानता (हँसता है)। मैं जब किसी का काटता हूँ तो हवा को भी खबर नहीं होती।
कोटी (जोर से हंसते हुए): वो तो अब पूरी दिल्ली को पता है। लंदन वालों की भी किस्मत जल्दी फूटने वाली है।

बच्चा (शरमाते हुए टापिक बदलता है): डैड (जोशी) बड़ा चालू है यार। मेरी शर्ट मार के बंगलौर भाग गया।
कोटी: तेरी क़सम!!! तेरी तो शर्ट ही मारी। मेरी तो पैंट भी मार के ले गया है एक। एक सफ़ेद रंग का 'रूमाल' भी नहीं छोड़ा उसने। छोडूंगा नहीं उसको तो मैं।

बच्चा: पहले पकड़ तो सही। (हंसता है) वैसे मैं तो धपोला के यहाँ इस 'वीक एंड' जा रहा हूँ दो-चार चीजें मारने।
कोटी: ठीक है। तू ऐश कर। मुझे तो अपनी ड्यूटी बजानी है (उदास होने का दिखावा करता है)।

(दोनों खाने की दूसरी प्लेट लेने चले जाते हैं। लाटा टाइम्स की कल्पनाओं का तार भी टूट जाता है। कोशिश जारी रहेगी कि ये तार फिर से कभी 'कनेक्ट' हो)

- नीरज मठपाल
अप्रैल २९, २००७

अपाहिज


मौसम अभी खराब सा है। अत्यंत मद्धिम रोशनी में झूमर ख्यालों में आ जा रहा है। बाहर से आती हुई किसी समारोह की आवाजें कानों में दर्द सा कर रहीं हैं, लेकिन झूमर की ज़िन्दगी में इन आयोजनों का कोई लेना देना नहीं। उसके लिए मेहनत की दो वक़्त की सूखी रोटी भी पकवानों से बढ़कर है। फिर आँते भी वही खाना पचा पाती हैं, जिनसे उनका रोजाना का परिचय हो। गंदला पानी भी गंगा की निर्मल धारा बन जाता है यदि वह आत्म सुख देता हो। कोई कितनी आसानी से झूमर की स्थिति देख कर कह जाता है - " इस ज़िन्दगी से तो मौत अच्छी"। लेकिन झूमर को कोई शिक़ायत नहीं। वह अपने जीवन के सत्य को आत्मसात कर चुका है, मौत जैसी झूठी घटना पर उसे विश्वास ही नहीं। इसे ईश्वर प्रदत्त शक्ति ही कहिये या ज़िन्दगी ने ही झूमर को जड़ - चेतन में फर्क करना समझा दिया है।

* * * * *

पीलीभीत रेलवे स्टेशन पर सैकड़ों यात्री जमा हैं। कुछ अपनी गाड़ी के आने के इंतजार में पसीना बहा रहे हैं, तो कुछ अपने गंतव्य पर सही-सलामत पहुँचने की ख़ुशी में पसीना सुखा रहे हैं। उष्णता (गर्मी) तो वही है, बस स्थितियाँ ही पसीने के विभिन्न रूप दिखा रही हैं। हावड़ा एक्सप्रेस के 'स्लीपर क्लास' से उतरा एक संभ्रांत परिवार जैसे ही 'प्लेटफार्म' से बाहर खुली सड़क पर पहुँचता है, तो तीन चार बच्चों को अपनी ओर लपकते हुए पाता है। बच्चे आठ से बारह वर्ष के रहे होंगे। शरीर पर टंगी हुई फटी कमीजें और नीचे टल्ली लगे हुए नेकर। पाँवों के तलुए तो जल-जल कर ऐसे हो गए हैं कि उबलते पानी में डलवा लो, तो पानी ठंडा हो जाएगा। पेट जरूर सभी के ठीक से लग रहे थे, शायद भीख पर्याप्त मात्रा में मिल जाती होगी। बच्चे अब परिवार के सदस्यों को घेरकर अन्न याचना कर रहे हैं। महिला तो बस घृणाभाव से दूर हट जाती है, लेकिन उनके श्रीमान दो रूपये का सिक्का ज़रा दूर से ही फैंक देते हैं। वहीं एक कोने में झूमर नम आँखों से बैठा है।

* * * * *

झूमर से मेरा पहला और अन्तिम परिचय लखनऊ जाते समय ट्रेन में हुआ था। ट्रेन तब पीलीभीत से चलना शुरू ही हुई थी। एक असहाय सा दिखने वाला आदमी अपने घुटनों पर घिसटता हुआ आया। चेहरे पर दाढ़ी बेतरतीब ढंग से बढ़ी हुई और प्रश्न पूछती सी बड़ी बड़ी आँखें। उसके दो पाँव और एक हाथ बीते वर्षों कि तपिश मे कहीं लुप्त हो चुके थे। ज़िन्दगी की शायद इकलौती बची हुई पूंजी बाँयें हाथ में एक झाड़ू पकड़ा हुआ था। पता ही नहीं चला कब उसने फुर्ती से पूरा 'केबिन' साफ कर डाला। सफाई भी ऎसी कि क्या मजाल कोई खोट निकला जा सके। लेकिन ये सफाई तो मुझे उसके जाने के दस मिनट बाद दिखी। उसके करतब को देखकर तो मैं शब्दहीन हो गया था। उसने झाड़ू लगाने के बाद अपना हाथ एक बार मेरी तरफ बढ़ाया भी था। किन्तु मैं तो जड़वत था - मस्तिष्क से भी और शरीर से भी। उसकी जीवनी शक्ति मेरे लिए किसी परम शक्ति से कम नहीं थी। अनायास ही मुझे उसमें स्टीफ़न हाकिंग का कुछ अंश भी दर्शित हुआ था। लांस आर्मस्ट्रांग की साईकिल के पहिये भी दौड़ते नजर आये थे उन आँखों में। हर व्यक्ति का अपना अलग 'प्लेटफार्म' था, पर सभी की जिजीविषा शक्ति 'अनुकरणीय'।


जब इन ख्यालों की तन्द्रा टूटी, तो मैं उसके पीछे भागा। वह एक दूसरे केबिन में अपने काम में व्यस्त था। बस मैं उसके काम को अपलक निहारता ही चला गया। मेरे लिए उस समय वही मानव शक्ति का सर्वोच्च प्रतीक था। अगले ही स्टेशन पर वह मेरी आँखों से ओझल हो गया। साथ में दे गया एक अनकहा संदेश।

* * * * *

अभी दरवाजे पर किसी ने खटखटाया तो ध्यान आया की बारिश बंद हो चुकी है। जब इस पृष्ठ को फिर से पढ़ा तो लगा कि झूमर का मेरे जीवन मे प्रवेश हो चुका है। शायद प्रवेश तो उसी ट्रेन में हो चुका था, पर झूमर नाम तो उसे आज ही मिला है। झूमर अपाहिज नहीं है। अपाहिज शरीर नहीं, अपाहिज तो सोच होती है। झूमर की सोच अपाहिज नहीं।


- नीरज मठपाल
मई ३, २००३

बुधवार, 25 अप्रैल 2007

प्राकृतिक दृश्य


बात उस जमाने की है जब डब्बू की ‘हाइट’ साढ़े तीन फ़ीट के आस पास हुआ करती होगी। यकीन से तो नहीं कहा जा सकता, पर फिर भी वो पैन – पेंसिल अच्छी खासी चलाने लगे थे। उन्हीं दिनों एक शब्द ने उनकी ज़िन्दगी में हलचल मचाना शुरू किया – ‘कला’ यानी की ‘आर्ट’। ज्यादा कुछ तो नहीं पर आम, केला, चार रंगों का गोला ही उनके लिए 'आर्ट' था। जैसे इन्हीं तीन चार ‘ड्राइंग्स’ में पूरा कला संसार निपट जाता हो। वो भी उनके लिए ‘आर्ट’ कम, एक बड़ा ‘बवाल’ ज्यादा था।

ऐसे में एक दिन एक विपत्ति सामने आ खड़ी हुई। उन्हें ‘होम वर्क’ के तौर पर ‘प्राकृतिक दृश्य’ बनाने के लिए दे दिया गया। जिस मासूम के लिए प्राकृतिक और कृत्रिम वस्तुओं में अंतर करना ही कठिन हो, उसके लिए एक पूरा दृश्य रंगों से उकेर देना किसी नए तारे की खोज करने के ही समान था।

ये कला भी बड़ी ही विचित्र चीज है। सब कहते थे, “ कला तो एक खेल की तरह है – मानव की रचनात्मक और मौलिक प्रतिभा का आईना। ना जाने आज तक कला की पूजा – भक्ति में कितने जीवन समर्पित हो चुके हैं। एक सामान्य मजदूर और किसान से लेकर बड़े से बड़े नेता और धनी लोग विभिन्न कलाओं का प्रयोग एवं प्रदर्शन करते आये हैं। जीवन के हर क्षेत्र में कला विद्यमान है”।

पर कब्र का हाल तो मुर्दा ही जानता है और ये सब बड़ी बड़ी बातें डब्बू के लिए एक कोरा एवं अर्थहीन ज्ञान था। उस मासूम बचपन के लिए तो टेढ़ी मेढ़ी ‘ड्राइंग्स’ ही ‘आर्ट’ थी। वो तो बस किसी तरह ‘प्राकृतिक दृश्य’ की पहेली को समझने का प्रयत्न कर रहा था। ऐसे में जैसे ही संकट-मोचक को याद किया तो माँ स्वयम् कला की साक्षात् देवी बनकर सामने बैठी हुई दिखी। माँ के केवल चार शब्दों ने सारी प्राकृतिक अदृश्यता को उसके लिए पूर्णतः दृश्य बना दिया –

१ - पर्वत (या पहाड़)
२ - नदी (या तालाब)
३ - सूरज (या चन्द्रमा)
४ - पेड़ – पौधे

लगा कि जैसे सारी प्रकृति माँ के हाथों में सिमट आयी हो। हाथों में हाथ रखे पेंसिल ने चलना शुरू किया। थोड़ी ही देर में पन्ने पर कई सारे रंग फैले हुए थे। प्रकृति पूरे श्रृंगार के साथ कागज के उस पतले आयताकार पन्ने पर विराजमान थी। उसका मनोहारी रूप मन पर अंकित हो चुका था। कला की परिभाषा सार्थक एवं स्पष्टतः परिलक्षित हो चुकी थी।

आज जब भी प्रकृति को उसके जीवंत रुप में महसूस करता हूँ तो पास में ही कहीं वो पन्ना भी अपना प्रकाश फैलाता दिखाई देता है, मानो पन्ने से सारे रंग उड़कर पूरी पृथ्वी में फ़ैल गए हों।
- नीरज मठपाल
अप्रैल २५, २००७