( प्राक्कथन - इस घटना के सभी पात्र काल्पनिक हैं। यदि कोई पात्र यथार्थ से मिलता जुलता है, तो इसे संयोग मात्र समझें।)
सन १९८३ की बात है। तब चम्बल के बीहड़ इलाक़ों मे ठाकुर विजय पाए सींग का राज चला करता था। पुलिस ठाकुर के नाम से थर थर कांपा करती थी। जब कोई बच्चा रोता था तो माँ बच्चे से कहती थी - "बेटा सो जा वरना ठाकुर आ जायेगा"। ये बड़े ही दुखों के दिन थे।
ऐसे मे झाँसी और पिथौरागढ़ की वीर भूमियों पर दो महापुरुषों ने जन्म लिया। बादल इस ख़ुशी में ख़ूब बरसे। हाथियों ने खुश होकर अंडे दिए और जिराफों ने अपनी ऊंची ऊंची गर्दनें मटकायी। पूरे संसार मे रौनक सी आ गयी।
दोनों ही बच्चे बड़े होने लगे। एक पहाड़ों की पथरीली जमीनों में 'स्कूल' से 'बंक' मारकर पिक्चर हॉल जाता था, तो दूसरा झाँसी के टीलों में छिपकर ठाकुर कि हवेली में चलती हुई नौटंकी देखा करता था। ' बालीवुड' दोनों का कैरियर बरबाद करने में तुला था। दोनों में एक बात और 'कॉमन' थी। दोनों छोटे बच्चों की एक पत्रिका 'लोटपोट' के बहुत बड़े फैन थे। तब शायद इन्हें यह पता नहीं था कि एक दिन इन दोनों की जोड़ी "लम्बू - मोटू" के नाम से विश्व विख्यात होने वाली है।
खैर दोनों बड़े होते हैं। इसमें कोई खास बात नहीं क्योंकि बड़ा तो सबको होना ही पड़ता है। पर उनमें से एक सात फ़ीट की लम्बाई को पार कर जाता है तो दूसरे के भार को तोलने के लिए १८० किलोग्राम के पलड़े भी कम पड़ते हैं।
भाग्य की विडम्बना देखिए कि आज ये दोनों 'साफ्टवेयर लाइन' में काम करते हैं और ठाकुर राजधानी दिल्ली में आज भी मजे से आज़ाद घूम रहा है। हल्द्वानी की बड़ी - बड़ी नहरों का पानी तो आज भी नहीं सूखा है, पर फिर भी न जाने कौन सी क़सम है कि आज लम्बू - मोटू मौन हैं।
(ठाकुर कौन था और चम्बल से दिल्ली कैसे पहुँचा? क्यों लम्बू – मोटू ठाकुर को पकड़ नहीं पाए? लम्बू मोटू से कब मिलेगा? क्या ये ठाकुर का राज ख़त्म कर पायेंगे? अजूबे चरित्रों की इस कहानी का अगला भाग कभी और ..... )
- नीरज मठपाल
अप्रैल ३०, २००७
सन १९८३ की बात है। तब चम्बल के बीहड़ इलाक़ों मे ठाकुर विजय पाए सींग का राज चला करता था। पुलिस ठाकुर के नाम से थर थर कांपा करती थी। जब कोई बच्चा रोता था तो माँ बच्चे से कहती थी - "बेटा सो जा वरना ठाकुर आ जायेगा"। ये बड़े ही दुखों के दिन थे।
ऐसे मे झाँसी और पिथौरागढ़ की वीर भूमियों पर दो महापुरुषों ने जन्म लिया। बादल इस ख़ुशी में ख़ूब बरसे। हाथियों ने खुश होकर अंडे दिए और जिराफों ने अपनी ऊंची ऊंची गर्दनें मटकायी। पूरे संसार मे रौनक सी आ गयी।
दोनों ही बच्चे बड़े होने लगे। एक पहाड़ों की पथरीली जमीनों में 'स्कूल' से 'बंक' मारकर पिक्चर हॉल जाता था, तो दूसरा झाँसी के टीलों में छिपकर ठाकुर कि हवेली में चलती हुई नौटंकी देखा करता था। ' बालीवुड' दोनों का कैरियर बरबाद करने में तुला था। दोनों में एक बात और 'कॉमन' थी। दोनों छोटे बच्चों की एक पत्रिका 'लोटपोट' के बहुत बड़े फैन थे। तब शायद इन्हें यह पता नहीं था कि एक दिन इन दोनों की जोड़ी "लम्बू - मोटू" के नाम से विश्व विख्यात होने वाली है।
खैर दोनों बड़े होते हैं। इसमें कोई खास बात नहीं क्योंकि बड़ा तो सबको होना ही पड़ता है। पर उनमें से एक सात फ़ीट की लम्बाई को पार कर जाता है तो दूसरे के भार को तोलने के लिए १८० किलोग्राम के पलड़े भी कम पड़ते हैं।
भाग्य की विडम्बना देखिए कि आज ये दोनों 'साफ्टवेयर लाइन' में काम करते हैं और ठाकुर राजधानी दिल्ली में आज भी मजे से आज़ाद घूम रहा है। हल्द्वानी की बड़ी - बड़ी नहरों का पानी तो आज भी नहीं सूखा है, पर फिर भी न जाने कौन सी क़सम है कि आज लम्बू - मोटू मौन हैं।
(ठाकुर कौन था और चम्बल से दिल्ली कैसे पहुँचा? क्यों लम्बू – मोटू ठाकुर को पकड़ नहीं पाए? लम्बू मोटू से कब मिलेगा? क्या ये ठाकुर का राज ख़त्म कर पायेंगे? अजूबे चरित्रों की इस कहानी का अगला भाग कभी और ..... )
- नीरज मठपाल
अप्रैल ३०, २००७
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें