बुधवार, 25 अप्रैल 2007

प्राकृतिक दृश्य


बात उस जमाने की है जब डब्बू की ‘हाइट’ साढ़े तीन फ़ीट के आस पास हुआ करती होगी। यकीन से तो नहीं कहा जा सकता, पर फिर भी वो पैन – पेंसिल अच्छी खासी चलाने लगे थे। उन्हीं दिनों एक शब्द ने उनकी ज़िन्दगी में हलचल मचाना शुरू किया – ‘कला’ यानी की ‘आर्ट’। ज्यादा कुछ तो नहीं पर आम, केला, चार रंगों का गोला ही उनके लिए 'आर्ट' था। जैसे इन्हीं तीन चार ‘ड्राइंग्स’ में पूरा कला संसार निपट जाता हो। वो भी उनके लिए ‘आर्ट’ कम, एक बड़ा ‘बवाल’ ज्यादा था।

ऐसे में एक दिन एक विपत्ति सामने आ खड़ी हुई। उन्हें ‘होम वर्क’ के तौर पर ‘प्राकृतिक दृश्य’ बनाने के लिए दे दिया गया। जिस मासूम के लिए प्राकृतिक और कृत्रिम वस्तुओं में अंतर करना ही कठिन हो, उसके लिए एक पूरा दृश्य रंगों से उकेर देना किसी नए तारे की खोज करने के ही समान था।

ये कला भी बड़ी ही विचित्र चीज है। सब कहते थे, “ कला तो एक खेल की तरह है – मानव की रचनात्मक और मौलिक प्रतिभा का आईना। ना जाने आज तक कला की पूजा – भक्ति में कितने जीवन समर्पित हो चुके हैं। एक सामान्य मजदूर और किसान से लेकर बड़े से बड़े नेता और धनी लोग विभिन्न कलाओं का प्रयोग एवं प्रदर्शन करते आये हैं। जीवन के हर क्षेत्र में कला विद्यमान है”।

पर कब्र का हाल तो मुर्दा ही जानता है और ये सब बड़ी बड़ी बातें डब्बू के लिए एक कोरा एवं अर्थहीन ज्ञान था। उस मासूम बचपन के लिए तो टेढ़ी मेढ़ी ‘ड्राइंग्स’ ही ‘आर्ट’ थी। वो तो बस किसी तरह ‘प्राकृतिक दृश्य’ की पहेली को समझने का प्रयत्न कर रहा था। ऐसे में जैसे ही संकट-मोचक को याद किया तो माँ स्वयम् कला की साक्षात् देवी बनकर सामने बैठी हुई दिखी। माँ के केवल चार शब्दों ने सारी प्राकृतिक अदृश्यता को उसके लिए पूर्णतः दृश्य बना दिया –

१ - पर्वत (या पहाड़)
२ - नदी (या तालाब)
३ - सूरज (या चन्द्रमा)
४ - पेड़ – पौधे

लगा कि जैसे सारी प्रकृति माँ के हाथों में सिमट आयी हो। हाथों में हाथ रखे पेंसिल ने चलना शुरू किया। थोड़ी ही देर में पन्ने पर कई सारे रंग फैले हुए थे। प्रकृति पूरे श्रृंगार के साथ कागज के उस पतले आयताकार पन्ने पर विराजमान थी। उसका मनोहारी रूप मन पर अंकित हो चुका था। कला की परिभाषा सार्थक एवं स्पष्टतः परिलक्षित हो चुकी थी।

आज जब भी प्रकृति को उसके जीवंत रुप में महसूस करता हूँ तो पास में ही कहीं वो पन्ना भी अपना प्रकाश फैलाता दिखाई देता है, मानो पन्ने से सारे रंग उड़कर पूरी पृथ्वी में फ़ैल गए हों।
- नीरज मठपाल
अप्रैल २५, २००७

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