बुधवार, 23 मई 2007

लघु कहानी

अलि के आगमन से प्रफुल्लित पुष्प ने बसंत की मन्द-मन्द प्रवाहित होती वायु को रोककर पूछा, "मलयांचल से आते हुए क्या तूने राह में किसी मेघ को प्राची की ओर जाते देखा है?"

असमंजस में पड़कर अलि (भ्रमर) ने पुष्प से तथ्य को स्पष्ट करने का निवेदन किया। तब पुष्प व्यथित होकर बताने लगा, "जो मेघ अभी यहाँ से गुजरा है, वह पृथ्वी से आ रहा था। वहाँ प्रकृति मनुष्य के आतंक से असहाय होकर अपने अन्तिम दिनों को गिन रही है। दूषित वायु और जल पृथ्वी को अधिक समय तक रहने नहीं देंगे। विषैले रसायनों से भरे उस काले मेघ को मैंने अभी अभी यहाँ से गुजरते हुए देखा है। यदि वह प्राची की ओर चला गया, तो वहाँ के मनोरम पर्वतों से टकराकर अपने अन्दर का सारा जहर बिखेर देगा, और तब यह देवस्थली भी स्थान-स्थान पर कराहती नजर आयेगी।”

पुष्प की बातें सुनकर भ्रमर को मधु का स्वाद कसैला सा प्रतीत हुआ। वह वायु से बोला, “हे मलयपवनों! मुझे तीव्रता से बहाकर उन शक्तिसंपन्न देवों के पास ले चलो, जिन्होंने अपने पराक्रम, ज्ञान एवं विवेक से कई राक्षसों, दैत्यों का अभिमान चूर किया है। मैं उनसे मानवों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करूंगा।”

वायु जाते जाते पृथ्वी में ईश्वर-मनुष्य के संबंध में बताने लगी, “वहाँ इतने ईश्वर हैं कि स्वयम् ईश्वर भी नहीं समझ पाता कि अपने पास मनुष्यों का ही खाता रखे या फिर धरती के ईश्वरों के लिए भी बड़े-बड़े खाते बनाए। अतः ईश्वर ने भी मनुष्यों को धरती के अनेकों स्वनामधन्य ईश्वरों के हाथों में छोड़ दिया है और वह भी परम शक्ति से प्रार्थना कर रहा है कि अपनी इस अनुपम कृति को शीघ्रातिशीघ्र मिटा दे।”

इस वार्त्तालाप के अन्तिम चरण में तीनों प्रतिभागियों ने कालिमायुक्त मेघ को पुनः पृथ्वी की ओर जाते हुए देखा। मेघ के स्वर में एक गर्जना थी।

- नीरज मठपाल
फरवरी १३, २००४

शुक्रवार, 18 मई 2007

ऐसे ही


इन्सान का दिमाग भी बड़े जोर की चीज है। पता नहीं क्या – क्या सोचता है। बच्चों की खुरापाती सोचों से लेकर युवाओं के दिवा स्वप्नों तक, अधेड़ लोगों की व्यवहारिक सोचों से लेकर वृद्धों की दार्शनिक सोचों तक अति विस्तृत क्षेत्र इसमें समाहित हो जाता है।

अभी इस लिखते हुए अपनी तरह के अजूबे नमूने को ही लो। पिछले एक घंटे में दस अलग अलग चीजें सोच चुका है। सामने काफी का कप रखा है, उसमें थोडी सी काफी बची है। पता नहीं इन्सान को काफी के पौधे को पीने वाली काफी में तब्दील करने में कितने साल लगे होंगे। गजब ही ठैरे हमारे पूर्वज भी। मीठी, खट्टी, कड़वी, नमकीन जिस भी चीज को जैसे भी खाने का जुगाड़ बना सके, बना लिया।

वो ज़रा दूर देखो - चिडियों का एक समूह आकाश में उड़ रहा है। पर ये मौन क्यों है? इतने बड़े समूह का शांत रहना थोड़ा दुर्लभ तो है, पर फिर भी इसकी औरतों के एक शांत बैठे समूह की दुर्लभता से तुलना तो नहीं ही की जा सकने वाली ठैरी।

वो वहाँ पर एक कुर्सी रखी है चार टांगों पर खड़ी। उसी के बगल में पहियों वाली कुर्सी भी इतराते हुए शांत पड़ी है। दो चार पहिये लगा दिए उस कुर्सी को तो इसमें इतराने की बात क्या है? पर उसे समझाये कौन? निर्जीव वस्तुओं को बोलना भी तो नहीं आने वाला ठैरा।

अगर आपको ऊपर प्रयुक्त शब्द “ठैरा” का मतलब समझ नहीं आ रहा ठैरा, तो पूछना मत कि “ठैरा, ठैरा क्या ठैरा”। ये हम पहाडियों का “ट्रेड मार्क” है। इसके सर्वाधिकार पहाडियों के नाम बाबा आदम के ज़माने में ही सुरक्षित हो चुके हैं।

इन सब बातों का तात्पर्य यही है कि दिमाग भी कैसी छोटी से छोटी, फिजूल से फिजूल और बड़ी से बड़ी, उपयोगी से उपयोगी बातें और विचार सोच लेता है। अगर ये दिमाग सामने आकर खड़ा हो जाये, तो इसे एक चांटा लगाकर बोलूं कि धन्य हो प्रभु, आप धन्य हो। चांटा इसलिये कि दिमाग के भाव ज्यादा ना बढ़ जायें।

खैर, मजाक की बात अलग है, पर यह जरूर कहूँगा कि इस दिमाग को रोटी पानी देते रहिए। दिमाग खुश रहेगा तो आप खुश रहेंगे। बाकी गप शप फिर कभी। मैंने अब खाना भी तो पकाना ठैरा।

- नीरज मठपाल

मई १८, २००७

गुरुवार, 10 मई 2007

एक दोपहर

आज पहाड़ों की एक दोपहर की सैर की जाये। उसमें भी अगर महीना जनवरी का हो तो कहना ही क्या। पहाड़ों का मतलब माउन्ट एवरेस्ट या नंदा देवी सरीखी पर्वत चोटियों से न निकालें। हम तो उन शांत पहाड़ी इलाक़ों की बात कर रहे हैं जहाँ ज़िन्दगी की रफ़्तार कुछ कम सी होती है, जहाँ किसी इलाके के लोग एक दूसरे से अजनबी नहीं होते बल्कि एक घुले मिले समाज का हिस्सा होते हैं, जहाँ लोगों में एक अनूठा अपनापन होता है।

तो चलते है उत्तराखंड के इन पहाड़ों में।

जाड़े के इस मौसम में सूर्य ही सबसे बड़े देवता हैं। जिस दिन वो अपनी प्रखर चमक लिये धरती की सेवा में हाजिर हो गए तो मानो जैसे पहाड़ियों का तो बसंतोत्सव आ गया। आज भी ऐसा ही एक दिन है। सुबह जब ९ बजे के आसपास दूर आकाश से आती गुनगुनी धूप का अहसास हुआ, तभी लगा कि शरीर में प्राण पूरी तरह से आ गए हैं। जैसे सिकुड़ी हुई हड्डियों को थोड़ा ताकत मिल गयी हो। आनन फानन मे पूरे पड़ौस के गद्दे और रजाईयां भी धूप में सूखने के लिए बाहर आ गए। पिछले कई दिनों से जो घरेलू काम अधूरे से पड़े थे, पलक झपकते ही आज फ़टाफ़ट होने लगे। इसी सब आपाधापी में दोपहर का एक बज गया।

अब ज्यादातर औरतें और बच्चे बाहर चटाईयां बिछाकर बैठे हुए थे। परुली की ईजा सूपा लेकर गेहूँ बीन रही थी। बाकी सभी औरतों की अंतहीन गप्पें शुरू हो गयी थी।

कुछ लोग हरया के बौज्यू की दुकान के बाहर सुबह से ही बैठे हुए थे और बीड़ी के धुएं के बीच सारे देश कि समस्याओं पर बहस कर रहे थे। इन लोगों की फसक का कोई ओर छोर तो होता नहीं है, फिर भी यही उनकी रोज की दिनचर्या का हिस्सा था।

कुछ बच्चे एक लकड़ी के फट्टे और प्लास्टिक की गेंद से बैट बाल खेल रहे थे। बातें उनकी ऎसी जैसे की बड़े होकर सभी ‘सेंचुरी’ मारने वाले बनेंगे।

इसी सुहावने दिन में कहीं से एक आवाज सुनाई दी – “चादर वाला.......”। धीरे धीरे आवाज तेज होती गयी। थोड़ी देर में एक चादर वाला अपनी पोटली खोले बैठा था और सारी औरतें उसे घेरे हुए थी। कोई खड़े होकर चादरों को फैला फैलाकर देख रही थी तो कोई बैठकर ही उनमें कमियाँ निकाल रही थी। खरीदना किसी ने कुछ नहीं था, पर मोल भाव पूरे जोरों पर था। आख़िर में एक गिलास पानी पीकर चादर वाला औरतों के अगले समूह की खोज में आगे बढ़ गया।

इसी बीच रधुली की ईजा ख़ूब सारे माल्टे (संतरे कि तरह का एक फल) ले आयी। नमक मिर्च लगाकर माल्टे खाना शुरू ही किया था कि पता चला कि सुरया की आमाँ के यहाँ नींबू सन रहा है। ये वो छोटे वाले नींबू नही होते, ये बड़े से नीम्बू होते हैं, जिन्हें छीलकर दही और गुड़ या चीनी के साथ साना जाता है। साथ में थोड़ा पिसी हुई भांग, थोड़ा मूली या केले मिला दो तो कहने ही क्या। जब नींबू सनकर तैयार हो गया तो थोड़ा थोड़ा वो सब लोगों में बाँटा गया। सभी इस नींबू की सुबह से प्रतीक्षा में थे क्योंकि ये तो निश्चित ही था कि किसी ना किसी के यहाँ आज नींबू जरूर सनेगा।

जब सभी चटखारे लेकर खा ही रहे थे तो कहीं से दो आवाजें सुनायी दी – “साड़ी वाला .......”... “चूड़ी – बिंदी वाला .......”। कोई आश्चर्य नहीं कि साड़ी वाले की परिणति वही हुई जो चादर वाले की हुई थी। लेकिन चूड़ी – बिंदी वाला खाली हाथ नहीं गया। कुछ लाल पीला सामान वो सस्ते दामों में उस समूह के सुपुर्द कर गया।

अब चार बज चुका था और सूरज भी ढलने लगा था। सभी लोगों ने अपनी अपनी चटाईयां समेटनी शुरू कर दी। धीरे धीरे सभी अपने घरों को खिसकने लगे। सभी के मन में यही प्रार्थना थी कि ऎसी दोपहर कल फिर आये।

अब मैं भी खिसकता हूँ। मेरी भी यही प्रार्थना है कि ऎसी दोपहर कभी कभी आती रहे।

- नीरज मठपाल
मई १०, २००७

सोमवार, 7 मई 2007

Create The Magic

(for children)

It was a bright sunny day. Prabha was thinking of creating some magic. Magic! Not the one which is often termed as a mystical or supernatural practice, but the one which works like a soothing balm. After non-stop efforts of one hour, she landed up in a paradise of pens. Yes, you read it right – a paradise of pens.

Her little experience says that the power of pen is enormous. She didn’t know what really works behind it, but there’s something magical about it. She has tried umpteen times to know about that undercurrent, but always returned with empty hands. Pens have been her best friends since the day she started writing alphabets. She always felt happy in their company.

Now here she is... standing among the pens in their paradise. Who said that pen is a non living thing. Here they are… dancing like a group of ten year old kids. She thought that she is flying in a dream world and trying to personify the surroundings.

Then came the real moment, one small pen came to her and said in her sweet voice, “Hello Prabha! I’m your best friend. You’ve been using me for last two years. I know that you are in a puzzled state. Tell me about your problem?”

Prabha told her that she is not able to understand the hidden magic in these tiny pens.

Understanding her problem, pen replied, “As knife is a tool to cut vegetables, as telephone is a tool to communicate, similarly pen is a tool to write about different things and ideas on a paper. Pen in itself is not magical. The real magic behind it is the brain. You must learn how to write and how to read. So, to utilize the magical powers of brain, education is required. Although brain can take care of many things at a time, but you need to provide it some help in the form of writings. Thinking is the most important function of brain, but it also requires help from books. So to keep your magical powers intact, you need to feed your brain. All your questions and answers are just brain games, so try to play them well. We, the pens, will always be there to assist you in playing these games. So my friend Prabha! Cheer up and smile now. One day we’ll create the magic”.

Prabha smiled and came back happily from the paradise of pens. A book, lying on Prabha’s table, heard this nice little talk and it started thinking about one famous saying, “Minds are like parachutes. They only function when they are open”.


- Neeraj Mathpal
May 7, 2007

गुरुवार, 3 मई 2007

लम्बू मोटू - भाग ४ (अन्तिम भाग)


(सलाह - अन्तिम भाग पढ़ने से पहले भाग १, २ एवं ३ पढ़ लें।)

आइये ठाकुर से मिलें। यह ‘क्लीन शेव्ड’ चेहरा जो आप देख रहे हैं, कभी इस शख्स की घनी दाढ़ी – मूंछें हुआ करती थी। इसकी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी ‘ट्रेजेडी’ यह है कि इसे दो बार प्यार में धोखा मिल चुका था। पहली बार के धोखे के दुःख में इसने दाढ़ी काट ली और दूसरी बार के बाद मूंछे। देखना बाकी है कि इसके तीसरे प्यार का क्या होता है। चलिये अब भाग ३ से आगे को बढ़ते हैं -

गोलियों की आवाज़ सुनकर ठाकुर बाहर निकलता है, पर आस पास कोई नजर नहीं आता। बस अंधेरे में गोलियों की आवाज़ सुनाई देती है। थक हारकर वो वापस आकर सो जाता है।

अगली सुबह सूर्य की किरणें जब अपनी रश्मियां बिखेर रही होती हैं, जब ठंडी हवा और चिडियों का कलरव मंदिर की घंटियों के साथ मिलकर मधुर संगीत की झंकार उत्पन्न कर रहा होता है। तभी माँ भवानी का भक्त ठाकुर अपने गुर्गों लव गुरू और सिट्टू के साथ मंदिर की तरफ जाता है। वहीं मंदिर मे एक सुन्दर लड़की पूजा अर्चन कर रही होती है। उसकी लटें बार बार आंखों पर आ रही होती हैं, जिन्हे वो हवा के साथ उड़ने दे रही होती है। आरती करके जैसे ही वो पलटती है, ठाकुर की नजरें उससे टकराती हैं और ठाकुर को ‘लव एट फर्स्ट साइट’ हो जाता है। ठाकुर उसे ठकुराइन बनाने का फैसला कर लेता है।

लेकिन ठाकुर को यह पता नहीं था कि असल में वह सुन्दर लड़की एक आंख से भेंगी थी और वह उस समय ठाकुर को नहीं बल्कि लव गुरू को देख रही थी। उस शांत मनोहर पवित्र वातावरण में एक ‘लव ट्रायंगल’ ने जन्म ले लिया था।

अब ठाकुर की ज़िन्दगी में दो क्रम रोज की बात बन जाते हैं – एक रात को गोलियों के चलने की आवाज सुनना और दूसरा सुबह सुबह मंदिर जाना। इसके साथ ही एक और क्रम चोरी – चोरी, चुपके चुपके चलते रहता है – ‘लव गुरू और ठकुराइन का प्रेम प्रसंग’। एक दिन वो दोनों चुपके से शादी भी कर लेते हैं। इस शादी से बेखबर जालिमों का जालिम ठाकुर अपने दिल की बात ठकुराइन से कभी कह नहीं पाता।

अब ये समझने के लिए तो कोई ‘राकेट साइंस’ चाहिये नहीं कि आज लव गुरू चाय के ठेले पर क्यों है। जी हाँ, जब ठाकुर को सच का पता चला, तो उसके लिए ये सदमे से कम नहीं था। उसने लव गुरू और ठकुराइन की जान को तो बख्श दिया, पर ये भी सुनिश्चित कर दिया कि लव गुरू ज़िन्दगी भर चाय का ठेला चलाते रहे। ठकुराइन लव गुरू के वियोग में पागल हो गयी और आज भी मंदिर की चौखट पर उसका इंतजार कर रही है।

सदमे से पहले ही भन्नाये हुए ठाकुर को जैसे ही उस रात गोलियों की आवाज़ सुनाई देती है, वो ग़ुस्से में अपने तमंचे, कट्टे और सुतली बम लेकर निकल पड़ता है। पूरा इलाका छानने के बाद उसे वो घर दिख जाता है जहाँ से गोलियों की आवाज आ रही होती है। जब वह उस कमरे के दरवाजे के पास पहुँचता है तो देखता है कि एक पक्षी वहाँ कम्प्यूटर पर कुछ खटर बटर कर रहा है।

असल में पक्षीराज चील एक खूनी कम्प्यूटर गेम खेल रहा होता है और पूरे इलाके के स्पीकर उसी से ‘कनेक्टेड’ होते हैं। वही गेम नेटवर्किंग के जरिये लम्बू मोटू भी खेल रहे होते हैं। उसी गेम से दिशाओं को चीरती सी गोलियों की आवाजें आ रही होती हैं।

ग़ुस्से से पागल ठाकुर चील को गोली मारने को तैयार हो जाता है और कहता है – “इन गोलियों की आवाजों ने मुझे बहुत दिनों से पागल कर रखा है। तू जानता नहीं कि मेरे इलाके में बच्चा – बच्चा कट्टे , तमंचे और सुतली बम लेकर घूमता है। आज तो तू गया काम से। अपनी आखिरी इच्छा बता”।

यह सब सुनकर पक्षीराज की सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है। डरते मरते वह धीमी आवाज़ में कहता है – “मैं इसका दोषी नहीं। इस गेम को यहाँ लाने और ‘फुल वाल्यूम’ में बजाने के लिए लम्बू – मोटू जिम्मेदार हैं। मेरी आखिरी इच्छा यही है कि आप मेरे से पहले लम्बू – मोटू को मार दें”।

ठाकुर के राजी होने पर पक्षीराज उसे लेकर लम्बू – मोटू के कमरे की तरफ उड़ता है। सारी बात जानकर लम्बू – मोटू ठाकुर को ‘चैलेंज’ करते हैं – “तूने कट्टे – तमंचे बहुत चलाये, मर्द है तो हमें इस कम्प्यूटर गेम में हराकर दिखा”। ठाकुर का स्वाभिमान जाग उठता है और वह गेम खेलने के लिए तैयार हो जाता है।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ठाकुर लम्बू – मोटू से गेम हार जाता है। पर आश्चर्य यह है कि वह उन्हें जिन्दा छोड़ देता है और प्रण करता है कि वह एक दिन उन्हें उस गेम में हराकर दिखायेगा। सब कुछ छोड़ छाड़ कर वह दिल्ली आ जाता है।

तब से ठाकुर दिल्ली में मजे कर रहा है। गेम जीतना तो दूर की बात है, उसे अभी तक कम्प्यूटर खोलना और बंद करना भी नहीं आया है। स्वामीभक्त सिट्टू भी उसकी सेवा करने दिल्ली ही आ जाता है। आजकल वही उसके लिए खाना बनाता है, घर साफ करता है, उसके कपड़े धोता है, उसके पाँव दबाता है। लम्बू मोटू अपनी अपनी कम्पनी में अपनी नौकरी बजा रहे हैं। दोनों ख़ुशी और मस्ती की ज़िन्दगी जी रहे हैं।

हम भी आप लोगों से विदा लेते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि आगामी नवंबर तक ठाकुर की ज़िन्दगी में कोई ठकुराइन आ जाये। अरे हाँ, पाठकों से निवेदन है कि वो लव गुरू और पागल ठकुराइन को मिलाने में अपना सहयोग दें। उस पगली की ताजा फोटो आपकी जानकारी के लिए ऊपर चिपका दी गयी है।


- नीरज मठपाल
मई ३, २००७

बुधवार, 2 मई 2007

लम्बू मोटू - भाग ३


(सलाह – भाग ३ पढ़ने से पहले भाग १ एवं भाग २ जरूर पढ़ लें।)

आज देखें कैसे शुरू होता हैं लम्बू – मोटू का कन्डोलिया का सफ़र।

लम्बू पिथौरागढ़ में अपनी हरकतों से पूरे कस्बे की नाक में दम करे रहता था। वह किसी तरह नक़ल मारकर बारहवीं पास कर लेता है। उसके बाद उसकी संगत बहुत ही खराब हो जाती है। ढौंडू हलवाई की दुकान के बाहर बैठकर दिन भर ताश खेलना और दम पीना ही जैसे उसके लिए ज़िन्दगी हो। ढौंडू कहने को तो हलवाई था, पर उसका असल धंधा था - गांजा, अफीम, चरस की स्मगलिंग करना। सही कहते हैं कि हमेशा सज्जनों की संगति करनी चाहिए। पर उम्र के इस नाजुक मोड़ पर लम्बू को एक ऐसा दोस्त मिल गया था, जिसके होते हुए इन्सान को जहर की भी क्या जरूरत।

दूसरी तरफ झाँसी के बियाबानों में मोटू का भी कुछ कुछ ऐसा ही हाल था। उसकी ज़िन्दगी को जहर बनाने वाला कोई ग़ैर नही उसका अपना चाचा था, जिसे वो प्यार से कभी पापा तो कभी डैड बुलाया करता था। यह डैड उसकी ज़िन्दगी का ड्रैकुला था। दोनों दिन रात साथ बैठकर अफीम फांकते रहते थे। इस अफीम की लत से डैड तो ३४ किलो का रह गया पर मोटू का वजन २३४ किलो को भी पार कर गया। अब वह हाथी का अंडा नहीं, बल्कि हाथी ही नजर आने लगा था।

ऐसे में जब सारी आशाएं ही जवाब देने लगी थी, जब लगा था कि ये दो जिंदगियां नशे की लत के कारण बरबाद हो जायेंगी, इनकी जिन्दगियों में एक मनीषी का प्रवेश होता है।

नेपाल सीमा पर एक छोटा सा क़स्बा है – टनकपुर। वहाँ के एक सामाजिक कार्यकर्त्ता ने ड्रग्स लेने वाले युवाओं को इस असाध्य रोग से निजात दिलाने का बीड़ा उठाया था। वह नगर – नगर, गाँव – गाँव नंगे पैर इन ड्रग्स से दूर रहने का संदेश फैलाते हुए चलते थे। हजारों का जन समूह उनकी इस यात्रा मे उनके साथ शामिल हो चुका था। असल मायनों में वही इकलौते सच्चरित्र एवं योग्य नेता थे। घूमते घूमते इनकी मुलाक़ात अलग अलग जगहों में लम्बू और मोटू से हुई। लम्बू और मोटू शरीर, समाज और उन्नति के इस शत्रु “ड्रग्स” के बारे में नेता जी के विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उनके शिष्य बनने को तैयार हो गए। उसी दिन उनकी ड्रग्स की बुरी आदत भी छूट गयी।

नेता जी की दूरदर्शी सोच कुछ और ही थी। उन्होंने लम्बू – मोटू को कन्डोलिया जाकर कम्प्यूटर में उच्च शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया। लम्बू – मोटू ने जुगाड़ लगाकर कन्डोलिया की प्रतिष्ठित “घसीटाराम टाइमपास यूनिवर्सटी” में दाखिला ले लिया।

वो कहावत तो आपने सुनी ही होगी – “ चोर चोर मौसेरे भाई ”। पहले ही दिन लम्बू और मोटू में पक्की यारी – दोस्ती हो गयी। दोनों दिमाग से तो पैदल थे ही पर फिर भी "एग्जाम्स" में बाकी लड़कों की कापियां छाप छाप के दोनों एक के बाद एक सेमेस्टर पास करने लगे। ऐसा करते करते ये दोनों “कापी – पेस्ट” में “एक्सपर्ट” हो गए। तब शायद इन्हें भी पता नहीं होगा कि “कापी – पेस्ट” में विशेष महारथ इन्हें “साफ्टवेयर फील्ड” में बहुत आगे ले जायेगी।

वहीं इनकी दोस्ती गेम बजाने में मास्टर 'पक्षिराज चील' से भी होती है। ये गेम मास्टर वैसे तो बहुत पहुँची हुई चीज हैं, लेकिन ये कहानी इस चरित्र की ‘ डिटेल ’ में जाने की इज़ाज़त नहीं देती। कहानी में इसका योगदान सिर्फ एक बिचौलिए का है जो ठाकुर की मुलाक़ात लम्बू – मोटू से कराता है। फिलहाल हम आपको इसका एक ‘ डायलाग ’ बताकर आगे बढ़ते हैं – “ जब किसी घसीटाराम टाइमपास यूनिवर्सटी के बन्दे का कटता है, तो मुझे बहुत ख़ुशी होती है ”।

इस सबके बीच समय आराम तलबी और मस्त लाइफ के पंखे लगाकर धीरे धीरे आगे बढ़ता है और लम्बू – मोटू “ फाइनल ईयर ” में आ जाते हैं।

यही वो समय है जब ठाकुर अपने साथ लव गुरू और सिट्टू को लेकर “ समर वेकेशन ” बिताने कन्डोलिया आता है। ठाकुर के इस दौरे का एक और मकसद है - अपने लिए ठकुराइन ढूँढना। सब कुछ कुशल – मंगल चल रहा होता है, तभी एक रात ठाकुर को अपने होटल के कमरे के पास कई गोलियों के चलने की आवाज आती है। धाड़ ... धाड़ … धाड़ …

(ठाकुर के होटल के पास गोलियाँ चलाने वाला कौन था? क्या लम्बू – मोटू और ठाकुर मे लड़ाई होती है? ठकुराइन का क्या किस्सा बनता है? लम्बू, मोटू, ठाकुर, लव गुरू, सिट्टू अपने अंजाम तक क्यों और कैसे पहुंचते हैं?

आपके दिमाग में उठ रहे इन सब सवालों के जवाब लेकर जल्द ही हाजिर होगा - कहानी का चौथा और अन्तिम भाग …)
- नीरज मठपाल
मई २, २००७

कथन - २

प्रभात रेखा के दृगावरण से टकराते ही तंत्रिका तंत्र में एक मधुर झंकार हुई। मध्यमा और तर्जनी ने कम्पन करते हुए ललाट को संकुचित होने का संदेश दिया। संकुचन के पश्चात् एक स्वर गूंजा और अनुभव प्रथम बन्धन के चक्रव्यूह को भेद चुका था। क्या भेदन के लिए ॐ या अन्य कोई स्वर समूह आवश्यक था? या कोई प्रेरणा आवश्यक थी? संभवतः हाँ। अवचेतन से चेतन में आने के लिए एक ध्वनि या एक प्रेरणा आवश्यक है।


- नीरज मठपाल
फरवरी २०, २००४

कथन - १

कभी - कभी हम यूँ ही चल रहे होते हैं और साथ चलती खामोश परछाईयों को चाहकर भी नहीं देख पाते। एक ऐसा भाव प्रतिरोधक बना रहता है जो जमीन की ओर सिर रहने पर भी छाया को महसूस नहीं कर पाता। आदमी यदि अपनी पहचान को खोता हुआ पाता है, तो कहीं न कहीं छाया के विपरीत देखने का दुस्साहस इसका एक कारण है।

- नीरज मठपाल
मई २८, २००४

मंगलवार, 1 मई 2007

लम्बू मोटू - भाग २


(सलाह – भाग २ पढ़ने से पहले भाग १ जरूर पढ़ लें।)

आप भी सोचते होंगे आज तस्वीर में ये दो नमूने कौन दिख रहे हैं। यदि आप सोचते हैं कि इनमें से एक ठाकुर है, तो आप बिल्कुल गलत हैं। लेकिन यही वो दो शख्स हैं जो आज ठाकुर को चम्बल से दिल्ली लाने के लिए जिम्मेदार हैं। इसलिये लम्बू – मोटू और ठाकुर की कहानी आगे बढ़ाने से पहले इन दोनों नमूनों को जान लेना भी बहुत जरूरी है।

जो माला लगा कर ‘पोज’ दे रहा है, वो अपने को ‘लव गुरू’ कहता है। पर असल मे उसकी एक गरीब बस्ती में चाय की दुकान है। अजी, दुकान भी क्या, बस ये समझ लीजिये कि एक जगह पर एक ठेला खङा है। उसी ठेले पे ये लव गुरू रात को सो भी जाता है। ये हमेशा से ऐसा नहीं था। कभी ये ठाकुर का बाँया हाथ हुआ करता था। पर वो कन्डोलिया में बिताया एक महीना ……

दूसरा जो कभी सिंटौले पक्षी की तरह चम्बल के जंगलों में आज़ाद घूमा करता था, हर समय अपने मधुर आवाज में गाया करता था – “ कोयल सी मेरी बोली … सिट्टू – सिट्टू …”। आज ठाकुर का ‘पर्सनल बावर्ची’ बनकर दिन रात उसकी गुलामों की तरह सेवा कर रहा है। ये हमेशा से ऐसा नहीं था। कभी ये ठाकुर का दाँया हाथ हुआ करता था। पर वो कन्डोलिया में बिताया एक महीना ……

उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में बसा और देवदारू के वृक्षों से घिरा यह कन्डोलिया वही जगह है जहाँ लम्बू और मोटू पहली बार एक दूसरे से मिले थे। यह वही जगह है जहाँ ठाकुर अपने दल बल के साथ ‘समर वेकेशन’ पर गया था। और हाँ, यही वह जगह है जिसने इन सबकी ज़िन्दगी बदल कर रख दी।

(ठाकुर के साथ कन्डोलिया में क्या हुआ? क्यों लव गुरू और सिट्टू की ज़िन्दगी बरबाद हुई? लम्बू – मोटू कन्डोलिया में क्या कर रहे थे? इन सब सवालों के जवाब देती कहानी का अगला भाग किसी और दिन …… )

- नीरज मठपाल
मई १, २००७