कभी - कभी हम यूँ ही चल रहे होते हैं और साथ चलती खामोश परछाईयों को चाहकर भी नहीं देख पाते। एक ऐसा भाव प्रतिरोधक बना रहता है जो जमीन की ओर सिर रहने पर भी छाया को महसूस नहीं कर पाता। आदमी यदि अपनी पहचान को खोता हुआ पाता है, तो कहीं न कहीं छाया के विपरीत देखने का दुस्साहस इसका एक कारण है।
- नीरज मठपाल
मई २८, २००४
- नीरज मठपाल
मई २८, २००४
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