बुधवार, 2 मई 2007

लम्बू मोटू - भाग ३


(सलाह – भाग ३ पढ़ने से पहले भाग १ एवं भाग २ जरूर पढ़ लें।)

आज देखें कैसे शुरू होता हैं लम्बू – मोटू का कन्डोलिया का सफ़र।

लम्बू पिथौरागढ़ में अपनी हरकतों से पूरे कस्बे की नाक में दम करे रहता था। वह किसी तरह नक़ल मारकर बारहवीं पास कर लेता है। उसके बाद उसकी संगत बहुत ही खराब हो जाती है। ढौंडू हलवाई की दुकान के बाहर बैठकर दिन भर ताश खेलना और दम पीना ही जैसे उसके लिए ज़िन्दगी हो। ढौंडू कहने को तो हलवाई था, पर उसका असल धंधा था - गांजा, अफीम, चरस की स्मगलिंग करना। सही कहते हैं कि हमेशा सज्जनों की संगति करनी चाहिए। पर उम्र के इस नाजुक मोड़ पर लम्बू को एक ऐसा दोस्त मिल गया था, जिसके होते हुए इन्सान को जहर की भी क्या जरूरत।

दूसरी तरफ झाँसी के बियाबानों में मोटू का भी कुछ कुछ ऐसा ही हाल था। उसकी ज़िन्दगी को जहर बनाने वाला कोई ग़ैर नही उसका अपना चाचा था, जिसे वो प्यार से कभी पापा तो कभी डैड बुलाया करता था। यह डैड उसकी ज़िन्दगी का ड्रैकुला था। दोनों दिन रात साथ बैठकर अफीम फांकते रहते थे। इस अफीम की लत से डैड तो ३४ किलो का रह गया पर मोटू का वजन २३४ किलो को भी पार कर गया। अब वह हाथी का अंडा नहीं, बल्कि हाथी ही नजर आने लगा था।

ऐसे में जब सारी आशाएं ही जवाब देने लगी थी, जब लगा था कि ये दो जिंदगियां नशे की लत के कारण बरबाद हो जायेंगी, इनकी जिन्दगियों में एक मनीषी का प्रवेश होता है।

नेपाल सीमा पर एक छोटा सा क़स्बा है – टनकपुर। वहाँ के एक सामाजिक कार्यकर्त्ता ने ड्रग्स लेने वाले युवाओं को इस असाध्य रोग से निजात दिलाने का बीड़ा उठाया था। वह नगर – नगर, गाँव – गाँव नंगे पैर इन ड्रग्स से दूर रहने का संदेश फैलाते हुए चलते थे। हजारों का जन समूह उनकी इस यात्रा मे उनके साथ शामिल हो चुका था। असल मायनों में वही इकलौते सच्चरित्र एवं योग्य नेता थे। घूमते घूमते इनकी मुलाक़ात अलग अलग जगहों में लम्बू और मोटू से हुई। लम्बू और मोटू शरीर, समाज और उन्नति के इस शत्रु “ड्रग्स” के बारे में नेता जी के विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उनके शिष्य बनने को तैयार हो गए। उसी दिन उनकी ड्रग्स की बुरी आदत भी छूट गयी।

नेता जी की दूरदर्शी सोच कुछ और ही थी। उन्होंने लम्बू – मोटू को कन्डोलिया जाकर कम्प्यूटर में उच्च शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया। लम्बू – मोटू ने जुगाड़ लगाकर कन्डोलिया की प्रतिष्ठित “घसीटाराम टाइमपास यूनिवर्सटी” में दाखिला ले लिया।

वो कहावत तो आपने सुनी ही होगी – “ चोर चोर मौसेरे भाई ”। पहले ही दिन लम्बू और मोटू में पक्की यारी – दोस्ती हो गयी। दोनों दिमाग से तो पैदल थे ही पर फिर भी "एग्जाम्स" में बाकी लड़कों की कापियां छाप छाप के दोनों एक के बाद एक सेमेस्टर पास करने लगे। ऐसा करते करते ये दोनों “कापी – पेस्ट” में “एक्सपर्ट” हो गए। तब शायद इन्हें भी पता नहीं होगा कि “कापी – पेस्ट” में विशेष महारथ इन्हें “साफ्टवेयर फील्ड” में बहुत आगे ले जायेगी।

वहीं इनकी दोस्ती गेम बजाने में मास्टर 'पक्षिराज चील' से भी होती है। ये गेम मास्टर वैसे तो बहुत पहुँची हुई चीज हैं, लेकिन ये कहानी इस चरित्र की ‘ डिटेल ’ में जाने की इज़ाज़त नहीं देती। कहानी में इसका योगदान सिर्फ एक बिचौलिए का है जो ठाकुर की मुलाक़ात लम्बू – मोटू से कराता है। फिलहाल हम आपको इसका एक ‘ डायलाग ’ बताकर आगे बढ़ते हैं – “ जब किसी घसीटाराम टाइमपास यूनिवर्सटी के बन्दे का कटता है, तो मुझे बहुत ख़ुशी होती है ”।

इस सबके बीच समय आराम तलबी और मस्त लाइफ के पंखे लगाकर धीरे धीरे आगे बढ़ता है और लम्बू – मोटू “ फाइनल ईयर ” में आ जाते हैं।

यही वो समय है जब ठाकुर अपने साथ लव गुरू और सिट्टू को लेकर “ समर वेकेशन ” बिताने कन्डोलिया आता है। ठाकुर के इस दौरे का एक और मकसद है - अपने लिए ठकुराइन ढूँढना। सब कुछ कुशल – मंगल चल रहा होता है, तभी एक रात ठाकुर को अपने होटल के कमरे के पास कई गोलियों के चलने की आवाज आती है। धाड़ ... धाड़ … धाड़ …

(ठाकुर के होटल के पास गोलियाँ चलाने वाला कौन था? क्या लम्बू – मोटू और ठाकुर मे लड़ाई होती है? ठकुराइन का क्या किस्सा बनता है? लम्बू, मोटू, ठाकुर, लव गुरू, सिट्टू अपने अंजाम तक क्यों और कैसे पहुंचते हैं?

आपके दिमाग में उठ रहे इन सब सवालों के जवाब लेकर जल्द ही हाजिर होगा - कहानी का चौथा और अन्तिम भाग …)
- नीरज मठपाल
मई २, २००७

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