शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
एक आम कार्यालय
चारों ओर दूधिया रोशनी बिखेरती,
छत से लटकती लम्बी लम्बी ट्यूबलाइट्स,
सफ़ेद रंग से पुती निरंग दीवारें,
कमरे को विभाजित करते कुछ घनाकार खम्भे,
आसपास अपने ही जैसे अनजाने चेहरों के बीच
इसी चहारदिवारी में एक कर्मचारी बैठता है।
कुछ अनकहे अपूर्ण सपनों को लेकर,
कागजों या कम्पयूटर पर अपने हाथों को घिसते हुए,
चाय काफ़ी की चुस्कियों को गले में उतारकर
मस्तिष्क को प्रतिदिन प्रतिक्षण कुंद होते देखता है।
शरीर को विभाजित करती मांसपेशियों,
शिराओं और धमनियों में एक पराधीन खून तैरता देख
इसी को जीवन की नियति मानकर एक कर्मचारी यहीं बैठता है ।
- नीरज मठपाल
नवम्बर २१, २००८
एक आम कर्मचारी
कार्यालय के प्रवेश द्वार को सहसा देखते हैं,
देखते हैं कि आज भी वही रोजमर्रा का काम निपटाना है,
लकड़ी की उसी कुर्सी पर रोज की तरह जीवन का भोग लगाना है।
दिन ढलने पर वही कदम घर की तरफ़ बढ़ते हैं,
कार्यालय के प्रवेश द्वार को सहसा निकास मार्ग सा देखते हैं,
देखते हैं कि आज भी घर में खा पीकर बीवी बच्चों पर रौब जमाना है,
लकड़ी की उसी खाट पर रोज की तरह बिना सपनों की नींद लिये सो जाना है।
- नीरज मठपाल
नवम्बर २१, २००८
मिलन (२)
हृदयपट पर अंकित होते चित्र
तन में घुलती मधुर स्मृतियाँ
नयनों में बसती ज्यामिती
कानों में बारम्बार दस्तक देती मिठास
कपाल पर झूलती अश्रुमिश्रित केशराशियाँ
ढलती गोधूलि के बीच
नयनों से झरते अश्रु
शांत होती जाती धड़कनें
हाथों में घबराहट का आभास देकर
पलकों को घिसती अंगुलियाँ
मिलन का ये अद्भुत द्वितीय बिन्दु
- नीरज मठपाल
नवम्बर २१, २००८
बुधवार, 19 नवंबर 2008
मिलन (१)
सुपरिचित प्रिय के आगमन का आभास
क़दमों की मदमाती चाप
द्वार पर होती मीठी खट खट
हृदय गति को अनायास ही
जैसे त्वरण मिल गया हो
प्रीत से मिलने का संयोग श्रृंगार
चक्षुओं की अपलक व्यग्रता
नासिका में वायु की तीव्र होती ध्वनि
अधरों का मूक कम्पन
कंठ से लार का उदर में प्रवेश
मिलन का ये अनकहा प्रथम बिन्दु
- नीरज मठपाल
नवम्बर १९, २००८
बुधवार, 12 नवंबर 2008
अंक, तेरी जय
जिस पर ० से लेकर ९ तक के अंक अंकित हैं
कुछ अंकों का ये खेल कितना महान है
इन कुछ अंकों ने पुरा काल से
पूरी दुनिया को चला रखा है
बचपन से लेकर आज तक
हर जगह यही अंक पहचान बनते आए
कभी अनुक्रमांक के नाम से तो
कभी इम्प्लौयी क्रमांक के नाम से
घर का पता भी अंक से
लापता हूँगा तो वो भी अंक से
मिलूँगा तो वो भी अंक से
आगे बदूँगा या पीछे हटूंगा तो वो भी अंक से
सोचो अगर अंक नहीं होते तो क्या होता
रूपयों और डॉलरों का ये व्यापर कैसा होता
विज्ञान का गणित
विज्ञान की मधुशाला न बन जाता
पर मधुशाला में भी तो अंक है
कितना ही सोच लूँ
कौन सी चीज है जिसे अंक की जरुरत नहीं
पर सोच ही जवाब दे गयी
बिना अंक का कुछ भी न मिल पाया
हे अंक, आज तू फ़िर से जीत गया
अंको के इस मुकाबले में
मैं फ़िर नौ - शून्य से मात खा गया
- नीरज मठपाल
नवम्बर १२, २००८
जाड़े का ये मौसम
बारिश की बूंदों को क्या तुमने देखा है
कभी रजाई के अन्दर मुँह डालकर
क्या तुमने उन बूंदों का संगीत सुना है
क्या कभी तुमने निवाड़ वाली
चारपाई पर बैठकर
मित्र मंडली के साथ
गुड़ और मूंगफली का स्वाद चखा है
क्या कभी गिरती बर्फ को
कटोरे में रखकर तुमने उसे गुड़ के साथ खाया है
क्या कभी बर्फ पर पड़े पाले पर
तुमने फिसलने का भय महसूस किया है
क्या कभी ठिठुराने वाली ठंड में
तुमने आग की आंच महसूस की है
क्या कभी भुने हुए भुट्टे को
नीम्बू मिर्च लगाकर खाया है
क्या कभी बिजली चले जाने पर
रात भर हाथ पाँव मोड़कर नींद गुजारी है
क्या कभी सुबह जलते कोयलों पे
पानी गरम करके नहाया है
हर साल जाड़े का ये मौसम
इन्हीं सब पलों की यादें लेकर आता है
ददा ने सच ही लिखा था कभी
यादें ढकती हैं, यादें मिटती नहीं
- नीरज मठपाल
नवम्बर १२, २००८
रविवार, 12 अक्टूबर 2008
इंतजार के बीस मिनट
जिसने दिनों को क्षणों में परिवर्तित कर दिया
अधैर्य का भी ब्यौरा दीजिये
जिसने कुछ क्षणों को पूरा जन्म बना दिया
धैर्य - अधैर्य का खेल है ही निराला
जिसने बढ़िया खेला, पर्वत को पानी बना दिया
प्रश्न है कि इंतजार के बीस मिनटों ने
लोहे को पिघलाकर वाष्प कैसे बना दिया?
- नीरज मठपाल
अक्टूबर १२, २००८
तलाश
किस तरफ तू स्वप्न मग्न है?
देख पत्थरों के बीच भी
शांत संगीत में
किसे तेरी तलाश है।
अरे ओ मौन
किस तरफ तू छिप रहा है?
देख दिन की ओर भी
दिनकर की रोशनी में
किसे तेरी तलाश है।
निरीक्षण के ओ पैमानों
क्यों तुम्हारा प्रणयगीत मंद है?
देखो मिट्टी की ओर भी
ध्वनि प्रदूषण के हाहाकार में
किसे तुम्हारी तलाश है।
त्रिकोण के चार कोण
अब पंचभुज रच रहे हैं।
देखो यह बहुभुज निर्माण भी
सीमित कोणों की परमशक्ति में
त्रिभुज केंद्र को तुम्हारी तलाश है।
- नीरज मठपाल
अक्टूबर ११, २००८
रविवार, 27 जुलाई 2008
दा अमेरिकन हेयर कट
जून २० - ये वो दिन था जब मुझे बाल कटाए पूरे ढाई महीने बीत चुके थे और किनारों से, पीछे से टेढ़े मेढ़े होते बाल रोज दुहाई दे रहे थे कि हमें काट दो, हमें काट दो। अब उन्हें कैसे समझाएं भाई तुम्हें काटने के लिए नाई के पास जाना पडता है। कोई तुम दाढ़ी थोड़ी हो कि तुम्हें रेजर से घिस डालूँ कभी भी, कहीं भी। पर आखिरकार एक ऐसा दिन आया जब " त्राहिमाम् , त्राहिमाम् " की ये पुकार मेरे कान के परदे फाड़ने लगी और मेरी अंतरात्मा ने कहा अब वो वक्त आ गया है जब मुझे अपने इन बालों की बलि देनी ही होगी। मेरे रूममेट के बाल भी अपनी सारी मर्यादाएं लाँघ कर गधे की पूंछ की तरह लंबे हो गए थे। तो वह भी अपनी केशराशि को बलिवेदी पर चढ़ाने के लिए व्यग्र था।
जुलाई ११ - शुक्रवार का दिन थे। हम आफिस से जल्दी निकले, आँखों में जूनून था बाल कटवाने का। दिल में तूफ़ान घुमड़ रहा था कि आज शरीर का वजन कुछ तो कम हो ही जायेगा। नाई की कैंची हमारा बरबस इंतजार कर रही थी। कुछ एक मील का रास्ता तय करते हुए हमारी कार मंजिल तक पहुँची। मेरे रूममेट की खुशी का बाँध छिपाए नहीं छिप रहा था। आख़िर हमने उस दुकान में कदम रख ही दिया, देखा कि वहाँ दो ही लोग थे, एक नाखून पे कुछ तो करवा रही थी और दुसरी आराम फरमा रही थी। हमें तो साफ़ साफ़ ही बोल दिया गया कि आज बाल काटने वाले जल्दी घर चले गए, अभी कोई नहीं है, कल आना। चलो, कोई नहीं, हमने भी सोचा कि एक ही दुकान थोड़ी है, अगली में गए तो वो बंद। अगली में गए तो वो भी बंद। अगली में गए तो वहाँ भी नाई भाग चुके थे। कुल मिलाकर एक घंटे ७-८ सैलूनों में चक्कर मारकर हम "लौट के बुद्धू घर को आए" को चरितार्थ करते हुए घर पहुंचे। सोचा कि कोई नहीं, कल चले जायेंगे।
जुलाई १२ - शनिवार का दिन। पूरा दिन सोने में ही निकल गया। शाम ६ बजे ध्यान आया कि बाल भी तो कटवाने हैं, फ़िर तो रविवार के दिन सैलून बंद रहते हैं। बस निकल चले घर से। पर पता चला कि शनिवार को ज्यादातर सैलून ४ या ५ बजे ही बंद हो जाते हैं। केवल एक ही सैलून खुला था जो ७ बजे तक खुला रहता है, पर चूंकि हमारी " अपान्ट्मेंट " नहीं थी वहाँ के लिए तो उसने भी बाल काटने से मना कर दिया यह कहकर कि किसी और कि बारी है, जब वहाँ तक कोई था ही नहीं। लेकिन उन्हें समय नहीं था, तो हम क्या कर सकते हैं। या फ़िर हमारी किस्मत में बाल कटाना ही ना लिखा था इन दिनों।
जुलाई १४ - सोमवार का दिन। आज तो प्रण करके ही चले थी कि आज बाल कटवाए बिना घर का मुँह नहीं देखेंगे चाहे कुछ भी हो जाए। पर फ़िर पता चला सोमवार को भी कई दुकाने बंद रहती हैं और जहाँ गए वहाँ वही ढाक के तीन पात। आगे कि कहानी क्या बताएं, बस हम भी जिद में थे कि कम से कम बाल कटवाने के लिए तो " अपाइन्ट्मेन्ट " नहीं ही लेंगे।
जुलाई १६ - मंगलवार को समय नहीं मिल पाया। आफ़िस के काम में ही उलझकर रहे गए, पर ये क्या , ये बुधवार का दिन भी वैसा ही निकला जब हम सोचने पर मजबूर हो गए कि इतना अगर बेकरार हम भारत की धरती पर होते, तो कोई नाई घर पर आकर ही बाल काट जाता। पर क्या हो सकता था, हम भारत में तो नहीं थे ना। ये भी सोच लिया कि क्यों न ख़ुद ही काट डालें, पर फ़िर बालों पर दया सी आ गयी।
जुलाई १७ - आज जब फ़िर से वही कहानी दुहराई गयी, तो हमने आख़िर अगले दिन के लिए शाम ७ बजे का "अपाइन्ट्मेंट" ले ही लिया। बालों कि व्यथा आन, बान और शान पर भारी पड़ ही गयी।
जुलाई १८ - आखिरकार जुलाई १८ का वो शुभ दिन आ ही पहुँचा, इन्तजार के बाद जब कुछ चीज मिलती है, तो उसका महत्त्व तो स्वर्ग मिलने के ही सामान होता है। बुकिंग होने के बावजूद हमारे दिल कि धड़कनें बड़ी हुई थी। मन में डर था कि कहीं आज वो दुकान बंद तो नहीं होगी। इस आशंकित मन के साथ कार पार्क करने के बाद जब हमने देखा कि सैलून के दरवाजे खुले है, तो साँस में साँस आयी। अन्दर जाते ही हैड नाई ने पुकारा, " मिली (सही नाम भूल गए हैं अब), तुम्हारे क्लाइंट आए हैं। हे प्रभु, ये क्या? जिंदगी में पहली बार अहसास हुआ कि हम नाई के लिए क्लाइंट हैं।
सिर पर पानी डालने के साथ नाई ने बाल काटने का शुभ कार्य प्रारम्भ किया। शकल देखने के बाद उसका पहला प्रश्न था, " हाऊ यंग यूं आर?" जैसे जैसे उम्र का हर दिन बढ़ रहा है, ये प्रश्न सुनकर और खुशी होती है। उसका दूसरा प्रश्न था," तुमने कब से बाल नहीं कटाये हैं?" मैंने सोचा तीन महीने से ऊपर हो गए हैं तो क्या बोलूँ, यही बोल दिया कि लगभग ढाई महीने हो गए हैं। उसके बाद जो कुछ हुआ वो सब कुछ एक हसीं सपने जैसा था। कुछ ही देर में हमारी केश्रशियाँ जमीन पर गोते खा रही थी। पंखे की हवा के झोंके उन्हें इधर उधर कर रहे थे। जैसे जैसे बाल नीचे गिर रहे थे, नाई बोल रही थी, "लाट्स आफ हेयर, लाट्स आफ हेयर"। चलो जैसे तैसे काम समाप्त हुआ, हम गदगद थे, बहुत खुश थे। उस सैलून के तो हम जिंदगी भर के लिए आभारी हो गए, जिसने हमें हफ्ते भर कि निराशाओं से निजात दिला दी थी। जहाँ और दिन २ डालर टिप में देते थे, आज ५ दे डाले। आते समय उसने मुझे बोला, "नेक्स्ट टाइम, डांट वेट फार टू एंड हाफ मंथ्स, कम इन फाइव वीक्स" । इस शानदार वाक्य के साथ ही एक मधुर मुस्कान का आदान प्रदान हुआ और हमने विदा ली। हम ५ हफ्ते या दो महीने की बात को नहीं सोच रहे थे, पर हाँ एक ख्याल दिमाग पर जरूर छाया हुआ था कि अगली बार से ३-४ दिन पहले ही "अपाइन्ट्मैन्ट" ले लिया करेंगे।
आज इस बात को पूरा एक हफ्ता बीत चुका है, पर आज भी इस हेयर कट की यादें एकदम ताजा हैं।
- नीरज मठपाल
जुलाई २७, २००८
मंगलवार, 6 मई 2008
Two S's Of Life
Here is what the dictionary says about these two words:
Stability - the state of being stable (not likely to change or fail, firmly established, sane and sensible, steady)
Security - the state of being or feeling secure (free from danger or threat), procedures and measure followed to ensure safety, state of feeling safe, stable and free from fear or anxiety
Let's examine them now from a social point of view.
Why did the players join ICL even after knowing that they are not going to play for their country if they opt for ICL? That can be termed as a 'daring decision', but most of the players were pretty much sure about their abilities and had their own share of fears that they won't be able to represent their country and the offer was very lucrative, which would give them security in terms of monetary gains. Career of a player is not very long, so they started thinking about their future and there was the bonus of 'playing with some international stars'. That feeling of doing something other than domestic cricket gave them required courage, but base was 'monetary gains'. IPL did the same thing with some sense of authority and gave the tournament a legitimate look. Results? Players are finding hard to conceal their happiness with the experience and money involved. It gives them the sense of security. Although, the stability factor is not very prominent with such leagues at this point of time, it surely will become.
Whatever one says, the reality is society does influence our lives. There are restrictions almost everywhere. The fear of failure stops many of us and gives us a thought about 'back up' plans. If you have ever thought, why academics are given top priority in general Indian society (replace academics with some work for people below poverty line), you will get only one answer - for 'stability and security'.
Yes, we do admire people like Sarathbabu, who struggled a lot in their life but still rejected lucrative job offers and went on to start a food business. We do admire people who have this uncanny ability to take big but calculated risks, who have the courage of not walking through a set path. But then we do say to ourselves that they are the exceptions and somehow find shelter again where there is some sense of stability and security. From where the demoralization comes - it again comes from society, because we do see so many failures around, whatever be the reason behind them. This fear of failure can't be overcome without ultra confidence in oneself. One looks for the feeling of a security statement, "it's going to be a success and not a drastic failure on one's or others (family / friends / relatives or whoever is in the circle) faces". I read one inspirational quote somewhere, "Even if there are challenges and hurdles, you should learn to look for the light at the end of tunnel". That might be true, but it requires lots of patience, which is usually absent when it comes to 2 S's. General thought process wants some light intermittently, if not everywhere.
What are the basic needs of human being? Shelter, Food and cloths! While one looks for security when it comes to food and cloths, same person looks for stability when it comes to shelter. Do you know why home loans are on a high? Growing ambition of independent home is there because of a greed named "stability". A factor "high rents" is just adding spice to this newly born phenomenon. Few years back, people used to look for a house after years of job and now, the generation next is not ready to wait for that much time, few years look like eternity. Running for worthless ambitions with wholehearted greediness is not going to take us to a different planet, it's just going to make the journey complex. This greed of stability is not going to be diminished, it looks like an in-born trait which is here to stay.
... TO BE CONTINUED ...
बुधवार, 30 अप्रैल 2008
Moves
today a passive weapon.
egressing
in true sense of composure
the blood which was soaked
by the sporadic flow of time,
hardness became softness.
to see the essence of life
to slow down with lesser moves
to bypass the tough times
to ignore the complexities.
he who opens the door,
welcomes everything with grittiness.
let the door remain open
marinate the whole shebang with neutral juice
fulfilling the profound impulse
of no ardor with absolute tranquility.
- Neeraj Mathpal
April 30, 2008
मंगलवार, 29 अप्रैल 2008
Little Offbeat
It is really difficult to define the terms “Unattached work” and “Absolute unselfishness” in a very precise manner, because more or less these are the things to realize. Most of our thoughts are borrowed from some sources. They may be books or our ancestors. My case is also not a different one. After analyzing them, our creative mind makes its own theory. Sometimes it results in exactly the same theory with more or less intensity. I am fortunate to get more intensified. But whatever I've understood till date is not enough to show a clear view of all these terms containing lots of mystery. Today, I’ll write only about the borrowed things and most of the ideas are taken from Geeta. All the Shlokas written are the greatest philosophical weapons for any era. But a new compilation, new illustration is needed to understand the real meaning hidden with them. Anyway…
Unattached work (Nishkam Karm) is a very deep thing. For the moment, without going into details of different forms of Yoga, our center of concentration will be the battle field of “Karm Yoga”. I'll try to define the terms with respect to this yoga as I think we are, by default, attached with the "Karm Sansar". To start with it, it's better to follow the simple meaning of a Shloka –
"Hato va prapysi swargam, jitva va bhokshyase maheem.
Tasmaduttisth kauntaiya, yuddhay krit nischyah."
It clearly says if you'll do the work successfully, you are definitely going to get something. If you won't, still you are bound to get something. You should not be worried about the results. It's your duty, don't do it for others or for any benefits. Just do it only because it’s your duty. At the same time you shouldn't think about the output. Try to be the same in joys and sorrows. If you see any sorry picture from different perspectives, you'll ultimately find a joy in it. In Shakespeare's words, "Nothing is good or bad, thinking makes it so". That’s what is written so many times in our mythological epics. Trust me it's not easy to experience these feelings. It's hard to feel this strange power of total innerness (that raised one more question, what is success, whether it exists or not? but to make the things smooth - take the simple lexicon oriented meaning of success) and a long road is ahead. Meditation techniques can be a nice helping toolkit to achieve this state, but it's not always true. I used to and still like worships in form of prayers. At the same time I also try to find the “sva” contained in me. For what purpose? There is not any. Depending upon the personal feelings, a person can follow any path as the goal is same. Fluctuations and distractions will always be there, after all we are human beings; but realization should be there.
Another term “Absolute unselfishness” (Param Niswarth) is simple in meaning, but it’s near to impossible to implement. If you are giving something to a beggar, you’ll think that “Chalo aaj ek Punya ka kam to kiya”. If you are praying in Mandir, you’ll think “Bhagwan ki Kripa bani rahe ham par”. If not all these, you are certainly bound to do something for your family members or familiars. If parents give shelter and love to their children, they do it because it’s their duty or love. But here also a kind of selfishness is attached. So many simple things we do, purposefully or ignorantly, almost always involve a bit of selfishness. I can’t give a right solution to prevent this feeling, but it will disappear once we attend all the traits of “SatoGun”. Hard enough to attend those.
Enough for the day. I have left so many unanswered questions. Probably these words have lost the intensity within me with time after seeing more and more of real world. There is only hope that whatever is written would help to open a new world or to look at it in a different way.
- Neeraj Mathpal
April 29, 2008
सोमवार, 14 अप्रैल 2008
घास
सन्निकट ही झाड़ सी फैलती घास
अदृश्य मौन रंजना सी
इसलिए क्या कि वो अपने आप ही उग आयी
और अपने कद को ऊँचा भी न कर सकी
इसलिए क्या कि उसका हरा रंग क्षणिक है
और जैसे मटमैली हो जाना उसकी नियति
जल प्रकाश का ऐसा अभाव
क्यों ये दुर्दैव
कि योग्यतम की उत्तरजीविता का डार्विनवाद
उसी पर लागू हो
रचने की मीमांसा का अर्थ समझा
एक तिनका सहेज कर उस घास से
अब वो तिनका भी प्रवाहित हो गया
प्राण वायु के वेग में
इस व्याकुलता में कोई कौतुहल नहीं
अब जड़ भी तो जंगम नहीं
अंतर्नाद में अंतर्द्वन्द्व
घास की यह तो परिभाषा नहीं
- नीरज मठपाल
अप्रैल १४, २००८
Ayyo Joshi
गुरुवार, 10 अप्रैल 2008
रंग
रानीखेत का जंगल दिखाता है।
देवदारू का झुरमुट
आल्मा हाउस का वृक्ष नजर आता है,
आपनी छाया में जैसे
मुझी को समेट लेना चाहता है पागल।
सूरज झाँक रहा है
उस मकान की तिरछी छत से
उसके ओज को निहारूं
तो हिमालय पर उसकी पड़ती किरणें
अपने आगोश में लेती हैं।
छोटे से पौधे को देखूं तो
बच्चों की किलकारी सुनाई पड़ती है,
लाल रंग के पत्तों में
गेरू से लीपी ड्योढी नजर आती है।
मन के कागज पर जैसे
उसके सफ़ेद एपण एक चित्र खींचते हों।
आगे बढूँ तो वो पीला फूल
स्वेटर पर एक पीला रूमाल लगा देता है।
लाल रंग की ईजा की बुनी हुई टोपी
ख़ुद ही सिर पर आ बैठती है,
मैं फ़िर से चौथी कक्षा में पहुँच जाता हूँ।
अपने बस्ते को पीठ पर लगाकर
मस्ती में गुनगुनाता हूँ -
" संगठन गढे चलो, सुपंथ पर बढे चलो
भला हो जिसमें देश का, वो काम सब किए चलो"
चलते चलते पत्थर पर ठोकर मारूं
तो धप की आवाज
पिड्डू की याद दिलाती है।
गोधूली की यह बेला
सन् छियासी की सफ़ेद गाय का दूध पिलाती है,
धीरे धीरे काला होता यह आकाश
शान्ति द्वार में प्रविष्ट कराता है।
घड़ी की सुईयां जैसे
उल्टी चल रही हों
बताने के लिए कि कोई रंग नहीं बदला
इन्द्रधनुष आज भी सतरंगी है।
तेरे मन की फुलवारी
आज भी बहुरंगी है।
फ़िर स्वयं ही रोकता हूँ
मन है
रंगों से सरोबार इस दुनिया की
हवाओं में मैं हवा हो जाऊं।
कुछ रंगों की सुनूँ,
कुछ रंगों की सुनाऊँ।
मंगलवार, 8 अप्रैल 2008
Fear of metropolitan cities
Well for now, I'll leave all these slogans behind and start focussing on the topic itself. Behavior of this chinese guy triggered this topic for the day.
I have seen people in my own village, when they come to Delhi first time in their life, it's a hell lot of experience. Survival looks tougher in asking conditions as life is totally different, as it is not made for them. To be honest, some of my friends will say I was not very different 5 years back, although it was my umpteenth trip to Delhi, but somehow it was not my comfort zone. I gave a solid example when I jumped from a DTC bus when it was nearing a turn near Aashram (near maharani bagh). Actually I was sleeping and my friends said we are about to reach, I saw them at the gate and I felt like they are stepping down there. I was unaware of actual situation and stepped down from bus. Yes, Stepped Down !!. But when I landed like an airplane, I realized what I had done. I had just jumped from a running bus. A running bus!! It was a lucky escape as there was no other vehicle coming at that time. My friends were shocked. We met at next bus stop and they scolded me and we forgot that chapter with some huge laughters. It has happened with one of my friends in Bangalore. There are so many similar moments; I have even forgotten the count of them. But we survived and we learned from our mistakes. Truth is that even today I will have to think ten times before driving in Delhi or Bangalore or any metropolitan city of India. It seems easier here in US, but mate, believe me it requires skills in India.
Those blue line buses in Delhi are worse. They won't care for passengers, you somehow have to jump into and step down from a running bus. If you are taking too much time in that process, get ready for some slangs or miss your bus stop. Every second person looks like he is going to take advantage of your simplicity. If you are not "metropolitan smart", you are going to have a tough time there. I still remember when some of my friends used to say how shall we live in Delhi. First, being a Pahadi, the heat in summer will kill us and if we survive that, there are smart Delhites, who will make our life miserable. Only street smart people can survive there. But with time, we realized that it is not true. It is all about experiences. When you go out to any new place, you might feel bubbles in your stomach, but with time, they are going to burst automatically. You just have to stay calm and use your brain and instincts a bit. Then this becomes a continuing process, you will not even feel bubble at some stage, it's all about experiencing the bitterness of life and bitterness of these metropolitan cities.
I know you guys must have had similar or more horrible experiences in your life, you can write to me at laata.times@gmail.com about those moments / experiences. I'll publish them in this same topic. For now, I'll end this topic with a nice Shloka :
अयं निजः परोवेति गणनालघुचेतसाम।
उदारचरितानाम तु, वसुधैव कुटुम्बकम॥
(It means - This is mine, that is yours. This type of data analysis is done by people with small hearts. For people with big hearts, this earth is their home, their family).
- Neeraj Mathpal
April 8, २००८
Priyanka from Bangalore writes, "It reminded me of one similar incident that happened with me some three years back. Sharing it with you.
Now you call it my bad luck or anything else, while we were on our way, our placement officer called us to inform that the campus had been rescheduled for the next day. We were near Ghaziabad, I cud not even think of returning back. I started wondering where I would go. All others with me had somebody or the other staying in Delhi. (All being boys would go to their friends places, I was left all alone). I did not know what to do. Then suddenly it struck to me that one of my friends was in Delhi at her sisters place. Although it was a little awkward still I called her up and told her that I would be staying there with her.
She came to pick me up in the morning. The day went of well. All her family members were very nice to me. As we finished lunch, I had no idea wat was in store for me. As all nice people would do, her Didi and Jijaji asked us where we wanted to go out in the evening. Shipra mall in Ghaziazbad was chosen as the destination. We were all set and ready to go. I was a bit nervous as it was the first time for me. I had never been to a mall. To add to the fear and anticipation, we were told that some guests from US would be joining us for dinner. I was not at all ready for this---Going to a five star hotel with people i did not know at all.
Any way, we reached the mall and as all other people loitering around, we too were busy window shopping. I had literally forgotten why I had come to Delhi. Soon enough Out of the confusion in the mall I found myself standing in front of an escalator all set to climb upstairs. (Remember it was the first time), I wanted to take a lift instead. Could not say anything to anyone. My friend understood my trauma. She held my hand, told me the technique :) to place one self on the escalator, and then asked me to take a step. I was dead scared and it took only a fraction of second for me to fall down. Dhard.......... a heavy tall person had fallen. It was sooooooooooooo embarrassing. Only if I had applied by brain and coordinated my body along with it.. I did not get hurt much, only some bruises. My friend at first shouted at me and then laughed her heart out.
I can never forget that day, I was so quiet at dinner out of embarrassment and also scared sitting in front of those people. I have not told anyone about this incident.
Last August I met my friend in another mall in Noida, while climbing the escalator, we just looked at each other and exchanged a warm smile."
[Laata Times thanks Priyanka for sharing this nice piece]
रविवार, 6 अप्रैल 2008
नव वर्ष मंगलमय !!
यह नव वर्ष भारत के कई अन्य भागों मे अलग अलग नामों से मनाया जाता है। दक्षिण भारत के कुछ प्रांतों मे इसे उगादी के नाम से, तो महाराष्ट्र में गुडी पड्व के नाम से मनाया जाता है।
बचपन में हमारे घर पर आंग्ल पंचांग के अनुसार आने वाला नव वर्ष १ जनवरी को शेष दिनों की तरह ही गुजर जाता था, बस दूरदर्शन पर कुछ कार्यक्रम देख लेते थे। किंतु हिंदू नव वर्ष अपने साथ कई सारी खुशियों को लेकर आता है। घर पर तरह तरह के व्यंजन बनाये जाते हैं, नवरात्रियों की शुरुआत होती है, कई लोग ९ दिनों तक व्रत रखते हैं तथा देवी की उपासना करते हैं, जिसके उद्यापन के लिए कन्यापूजन किया जाता है। नवमी का दिन धार्मिक रूप से विशेष दिन है, क्योंकि पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान राम का जन्म इसी दिन हुआ था। प्रभु राम की ही याद में नवमी का पावन दिन रामनवमी के तौर पर मनाया जाता है। एक अलग ही तरह का हर्ष, उन्माद होता है इस दिन। पंडित, ज्योतिषी ग्रहों के आधार पर गणना करके वर्ष का पंचांग बनाते हैं। कई पंचांगों में देखने को मिलता है कि ईश्वरके घर में कौन राष्ट्रपति बना और कौन मंत्री प्रधान, किस राशि किस नक्षत्र का वर्ष शुभ अधिक है, किसका सामान्य आदि। सच में इस दिन विशेषतः लगता है कि पंचांग हिंदू जीवन शैली का कितना अहम् हिस्सा है।
आज भी इस नव वर्ष का अपनापन ही कुछ अनूठा है। आज मन अति प्रसन्न है। अभी मैं कुछ ज्यादा न लिखते हुए अपनी रसोई की तरफ़ बढता हूँ। आख़िर मुझे भी कम से कम आलू पूरी और कुछ मीठा बनाना चाहिए ना। हाँ, जानकारी के लिए इस संवत्सर का नाम " प्लव " है। गृह राज चन्द्रमा हैं और मंत्री सूर्य। धनेश बुध हैं और मेघेश शनि।
आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं। यह वर्ष आप सभी के जीवन के लिए कल्याणकारी हो।
- नीरज मठपाल
अप्रैल ६, २००८
शनिवार, 5 अप्रैल 2008
Swami ji
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प्रकाश
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मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ
और आगे भी,
और देखता हूँ कि सब ठीक है।
मेरी गहरी से गहरी व्यथाओं में
प्रकाश की आत्मा का निवास है।
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धैर्य धरो हे वीर हृदय
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भले ही तुम्हारा सूर्य बादलों से ढक जाय,
आकाश उदास दिखाई दे,
फ़िर भी धैर्य धरो कुछ हे वीर हृदय,
तुम्हारी विजय अवश्यम्भावी है।
शीत के पहले ही ग्रीष्म आ गया,
लहर का दबाव ही उसे उभारता है,
धूप - छाँव का खेल चलने दो
और अटल रहो, वीर बनो !
जीवन में कर्त्तव्य कठोर हैं,
सुखों के पंख लग गए हैं,
मंजिल दूर धुंधली सी झिलमिलाती है,
फ़िर भी अन्धकार को चीरते हुए बढ जाओ,
अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ!
कोई कृति खो नहीं सकती और
न कोई संघर्ष व्यर्थ जाएगा,
भले ही आशाएं क्षीण हो जायें
और शक्तियाँ जवाब दे दें,
हे वीरात्मन, तुम्हारे उत्तराधिकारी
अवश्य जन्मेंगे
और कोई सत्कर्म निष्फल न होगा!
यद्यपि भले और ज्ञानवान कम ही मिलेंगे,
किंतु जीवन की बागडोर उन्हीं के हाथों में होगी,
यह भीड़ सही बातें देर से समझती है,
तो भी चिंता न करो, मार्ग प्रदर्शन करते जाओ।
तुम्हारा साथ वे देंगे, जो दूरदर्शी हैं,
तुम्हारे साथ शक्तियों का स्वामी है,
आशीषों की वर्षा होगी तुम पर,
ओ महात्मन,
तुम्हारा सर्वमंगल हो।
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There are many more, but I should stop for now. I believe, if you read these poems, it will give you strength. God bless.
- Neeraj Mathpal
April 5, 2008
मंगलवार, 25 मार्च 2008
खुशी
जब छलकती हुई कानों पर पड़ती है,
खुशी का साज
जब हृदय के द्वार पर पहुँचता है,
मेरे होँठ स्वयं ही फ़ैल जाते हैं।
जैसे खुशी के स्वागत के लिए
मोतियों की माला यौवन चरम पे हो।
जैसे मेरी बाहें खुलने को आतुर हों
खुशी समेटकर उसे फैलाने के लिए।
इस आवाज का ये रूपहला अंदाज
मन में भीगा भीगा सा ये अहसास
बस यूँ ही गुदगुदा जाता है
पल कुछ और खुशियों के दे जाता है।
- नीरज मठपाल
मार्च २५, २००८
रविवार, 23 मार्च 2008
Strangers
Few days back, I was watching a movie "Strangers". That time again, same thought came to mind that perhaps no one is a stranger, or perhaps everybody is. Family and friends are not strangers, but at some point of time, when this all started, they were strangers. I was a stranger to this world, when I came to life. A small baby who tried to understand the simplicity of relations and at the same time, the intricacies of life. Then that baby grew up and said, "it's my life". All who are or were linked said, "it's our life" and the journey was on.
Not only people but any thing, in start, looks like something strange. With time and with experience, it automatically mingles with life and we feel like we used to know about it for a long time, it is no more a strange thing. It is a friend. I found a number of books strange, when I see hundreds of pages in that book, it really scares. When we start, it's a slow process to be an acquaintance of that book. But when we start going past first couple of hundreds of pages, it becomes a friend for some time. If book is worthy enough, a life lasting relationship starts. This hope is always there that we would have lots of nice strangers in the form of written or unwritten books of life. Knowingly or unknowingly, it happens.
To end this short tidbit, I would recite a line from a hindi movie song. "Ajnabee, tum jaane pahchaane se lagte ho..."
- Neeraj Mathpal
March 23, 2008
गुरुवार, 20 मार्च 2008
Spring
Kalidasa's famous RITUSAMHARAN (the gathering of seasons) has six cantos (written in Sanskrit), in which he writes about 6 seasons. Here is the translated abstract for Spring.
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Sprays of full blown mango blossoms – his sharp arrows,
honey-bees in rows- the humming bowstring;
warrior-Spring set to break the hearts
of Love’s devotees, is now approaching, my love.
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Glancing at the amarnath’s blossoming sprays
glowing in exquisite loveliness, just-revealed,
-loveliness that rightly belongs to the beloved’s face-
how can a sensitive heart not flutter in panic
stung by proud Love’s flying arrows, my love?
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Lost already to beautiful girls,
are not young men’s hearts pounded to bits
by Kimsuke blossoms bright as parrots’ beaks?
Are they not already burnt
by the golden champa’s brilliant blooms?
And now, the cuckoo with its honey-sweet notes
sounds their death knell.
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- This translation of verses is taken from Penguin classics : "Kalidasa - The Loom of Time" By Chandra Rajan.
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I heard a thousand blended notes,
While in a grove I sate reclined,
In that sweet mood when pleasant thoughts
Bring sad thoughts to the mind.
To her fair works did Nature link
The human soul that through me ran;
And much it grieved my heart to think
What man has made of man.
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- William Wordsworth (1798)
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When daisies pied, and violets blue,
And lady-smocks all silver-white,
And cuckoo-buds of yellow hue
Do paint the meadows with delight,
The cuckoo then, on every tree,
Mocks married men, for thus sings he:
“Cuckoo!
Cuckoo, cuckoo!” O word of fear,
Unpleasing to a married ear.
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- William Shakespeare (1598) Song from Act V, Scene 2 of Love's Labors Lost
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In India, spring is known as "Basant Ritu", the Ritu-Raj - King of all six seasons. Kites start flying in the sky, children playing with lots of energy and a festival to welcome all this - "Basant Panchami", which comes with yellow color at it's best to spread the joy. I am not able to paste one of them here because of copyright act, but you can see a nice poem here - http://www.anubhuti-hindi.org/dishantar/s/sumanghei/kaisivasant.htm
To quote a great Urdu poet, Mirza Ghalib,
The Spring came with such abandon
That the sun and the moon became mere spectators.
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We are grateful to be descendants of these great poets. I hope one fine day, I'll also try my hand to write a poem about Spring. Our sincere thanks to the great poets / writers and following Web Sources :
http://www.geocities.com
http://poetry.about.com
http://www.anubhuti-hindi.org
http://indiasaijikiworlkhaiku.blogspot.com
And last, but not the least, three cheers for great search engine http://www.google.com ]
- Neeraj Mathpal
March 20, 2008
मंगलवार, 18 मार्च 2008
Do you care?
This leads me to one more question about extinction of rare animals, to be specific extinction of "Tiger". What if I say I don't care. What if I say that I don't care if I'll never ever see great Indian Tiger in my life again. Should I care? Do I care? What if I say that in another 20 years there will be no tigers. Do I care? Of the 8 species, there are only 5 left. Why should not I care? But am I the right person to care about them? With approximately 2000 tigers remaining, we are about to loose this magnificent species. We say, once upon a time, there was one Dinosaur era. What is the problem in saying in future that once upon a time, there used to be a great animal named tiger. These wild life organizations like WWF ( http://www.worldwildlife.org ) are doing their job, hats off to them. There are laws made by governments, hats off to them. But it's only about delaying the inevitable. Delay it as much as we can. But do I care if it happens today or tomorrow?
Yes, this question created some confusion, I'm not sure about. That was a cruel joke to not care about anything. Are we human, if we don't care about our surroundings, if we don't care about our forests? Being a nature lover, and specially a jungle lover, I should have said, I do care for it. But again in reality, I don't. Did I try to save some of the trees? Answer is no, so do I have any moral right to say, "Jungle bachao, Duniya bachao" (save forests, save world). No.
But in fact, it matters. Though actions are louder than talks, but awareness has a strong history of making miracles happen.
Now, what about the evolution? if we are loosing something, we are gaining as well. There are new species arriving almost everyday. Who can stop this evolution. Are we? We ourselves, the human beings, will be human beings after 10000 years? Who knows, tell me why should we have helix, antihelix, lobule and crest of helix, the outer parts of ear? Are they worth? No, we don't need them. They are just hanging there for no reason. Reason will prevail. These outer ears will disappear. That time dimension is definitely waiting somewhere for us. So, is loosing some spices not part of evolution? Is loosing trees also not part of evolution?
These developed countries are making too much noise about global warming, species, water and blah blah. But if they lost something for good, how does it matter? If, now, they are seeking some kind of redemption, why should developing countries help them. They also have to try for better infrastructure, better facilities. For that, obviously, they will have to loose something, some of their forests. May be with proper planning, we can reduce adverse affects, but the future is always about rising, whatever it takes. Human races will develop automatically, they will know to adjust with changing environments. With brains getting powerful, rest of the body will have to take the declining curve with open hands. There is hardly any choice in that.
I do love this greenery. I do love a sight of tigers. I do love earth. I would love to help in having more and more trees, but I don't care if we loose something for better. Do you?
- Neeraj Mathpal
March 18, 2008
शनिवार, 15 मार्च 2008
किस्सा आम है
पत्रिकाएँ पड़ीं या देखी होंगी। आज सोचा की कुछ वैसा ही लिखा जाए। इन पत्रिकाओं की अपने अंदाज में टांग खींची जाए। तो फ़िर सुनाते हैं आपको एक किस्सा।
ये किस्सा है दिल्ली में रहने वाली एक गृहणी का। दक्षिणी दिल्ली के गोविन्दपुरी इलाके में रहने वाली मालती की शादी को अभी एक ही साल हुआ था। उसके पति विभोर एक सरकारी हस्पताल में कम्पाउन्डर थे। वैसे तो मालती एक हंसमुख मिजाज महिला थी, पर उसको पिछले कुछ समय से एक अजीब सा शौक लग गया था। डब्बे रखने का शौक। वैसे तो ये किसी भी मध्यम वर्गीय घर के लिए अनोखी बात नहीं। रसोई में हर चीज तो डब्बों के अन्दर आजादी की चाह में घुलती रहती है। पर मालती के दोनों कमरे तो जैसे डब्बों से ही भरे हुए थे। मिठाई के डब्बे, कपड़ों के डब्बे, चूड़ी बिंदी के डब्बे, सामानों के छोटे छोटे डब्बे, चाय पत्ती के पुराने डब्बे। जैसे डब्बों के लिए " इनकमिंग " सेवा तो अकूत हो, पर " आउटगोइंग " सेवा बंद पड़ीं हो। विभोर जब शाम को घर लौटते तो उन्हें सख्त हिदायत थी कि कोई भी डब्बा इधर से उधर नहीं होना चाहिए वरना उस दिन खाना ही नहीं बनेगा।
विभोर का मन इससे हमेशा उखड़ा उखड़ा सा रहने लगा था।
आज उनकी सालगिरह थी। मालती ने सोचा कि आज कुछ " गिफ्ट " खरीद के लाया जाए, जिससे पतिदेव खुश हो जायें और सारे गिले शिकवे मिट जाएं। बस निकल चली मालती की सवारी बाजार की तरफ़। पहले वो गयी फूलों की दुकान में, उसने सोचा फूल ले जाउंगी, घर को सजाउंगी। पर जब दुकानदार थैली में डालकर फूल देने लगा, आप समझ ही सकते हैं कि मालती उन्हें एक सुंदर से डब्बे में अच्छे से पैक करवा कर आगे बढी। फ़िर आगे जाकर विभोर के मनपसंद रंग की कमीज खरीदी और उसे शानदार डब्बे में पैक करवा के अगली दुकान की तरफ़ चली। वो जो भी लेती, हर जगह डब्बों में पैक करवाने का ख्याल उसका पीछा करता रहता।
जब वह घर पहुँचने वाली थी तो उसे अहसास हुआ कि क्यों आजकल विभोर उखड़े उखड़े रहते हैं, तो उसने इन नए डब्बों से सामान निकलकर डब्बों को कूड़ेदान में डाल दिया। इस सब के बाद वह उदास और हताश घर पहुँची। उसे डब्बों के न होने का दुःख तो था, पर वह खुश भी थी कि अब ये डब्बे उसके जीवन मे कलेश पैदा नहीं करेंगे।
अब आप सोच रहे होंगे कि इस किस्से में ख़ास क्या था। चलिए आप को शाम की बात भी बता देते हैं। शाम को विभोर भी मालती के लिए " गिफ्ट " लेकर आए, तो मालती अपना सर पकड़ कर रह गयी। विभोर की तरफ़ से सालगिरह का ये शानदार उपहार था - तीन बड़े बड़े डब्बे।
आशा है आपको गृह शोभा टाइप का ये किस्सा पसंद आया होगा। नहीं आया तो कोई परेशानी नहीं, आप इन महिला पत्रिकाओं के पाठक बन जाइए, फ़िर आने लगेगा।
- नीरज मठपाल
मार्च १५, २००८
शुक्रवार, 14 मार्च 2008
An Ultimate Race
I used to love running in my school days, though never participated in a competition. Then after these many years, there came a college competition. After almost one year, I ran that day and that too for a trial and it was good enough to show my talent as a racer. I got a chance to represent my house in 200 meter heat. But when I started my sprint, I felt like somebody has caught my feet. Somehow I managed to complete the race with fourth position. Nothing strange, because only four runners were there in that heat.
But my batch-mates had full confidence on me. I was supposed to run in a 800 meter heat a little later. My friends were saying that I'm not meant for these sprints. I'm a horse for long races, so 800 meters is definitely mine. Even I was trying to pump up myself and wanted to win it with my will power. I used to tell my friends that in school days I used to walk / run daily in the morning for half an hour. How fast? I never told them. Was it just a jog? I never told them. Somehow expectations were set for me and they were real high expectations. They were saying to everybody that I'm going to win this race easily.
Then the race started. Everybody was there to cheer me up. There was so much ga-ga about this horse of long races. Then I was gearing up for my ultimate race, my shoes were there at the line with all sharpness. Of course, I was having my fingers and ankles trying to fight with my shoes to come out. I heard the whistle and I started with all my courage.
Oh, again I felt like somebody has caught my feet. Was there a ghost somewhere? A ghost running with me? Whatever I tried, I couldn't catch up with the pace of others. Forget others, I was not even able to catch up with my best. But then there were my friends among spectators. They thought that it is my strategy, I've started slowly because I'll gain speed later with more energy than others. Alas, only I knew the truth and I couldn't go out to tell that it's not strategy. So I ran with the same speed from start to end. There were four laps to complete this race. I was running alone for last lap. my friends were laughing like anything and cursing me. I was little embarrassed, but I also had my share of laughters. I was not tired at all, perhaps I could have run 10 more laps, but with the same speed. Anyway, history was written.
Now, there is nothing much in this race. But what makes it ultimate is aftermath of that race. It's a part of folk lore in my friend circle. We don't talk about the race, which one of our friends won; it was a 100 meters sprint; but we always remember my race, we make a lot of fun of it.
Well, to be honest, my friends make a lot of fun, not me. They do lots of leg pulling for it, whenever we talk about any sporting heroics of our friends. Probably, this comes at second place in our memorable moments of college sporting life. First one will always be a cricket final match, when playing first, we scored 216 runs in 16 overs and won it.
To conclude, I've three points :
First advice is : If you are out of practice and want to run in a competition, think five times before it and keep your mouth shut.
Second advice is : Even if you are regular in running, think three times before going for a competition, evaluate your abilities as a runner first and keep your mouth shut.
Third advice is : If you have a friend like me and he is running in a competition, keep your mouth open and laugh as much as you can. Thank you.
- Neeraj Mathpal
March 14, 2008
गुरुवार, 13 मार्च 2008
Funny things happen in life ...
Well, so on one Sunday afternoon, My Iza (mom) gave my elder brother 1 Rs and said, "dono log devsigh field jao, patang lekar udaao wahaan" (go to devsingh field and enjoy playing with kites). We started but on the way to that field, we saw one shining packet with a very attractive name on it - "Santoor". It was a sada pan masala without any tobacco in it. So we had a little discussion of one minute whether to go to field with a problematic kite or try this Santoor thing. With one coin of a single rupee, we didn't have the luxury to go for both. Then came the historical decision - Santoor pan masala. wah santoor wah. Fine we bought it, but when we tasted it, yukk. It was so bad, we couldn't even have one single supari of it.
That dream of having delicious pan masala was gone and we still laugh when we see kites flying in the sky, because we went on to never learn the art of flying kites. But yes, I can say I've read the Kite Runner, the tale of two afaganee kids. May be some day, with some kids, I'll at least try to be a kite runner for few minutes. You never know, funny things really happen in life.
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Then there was one "Daabri" system. We used to live in Purani Bajar (in Pithoragarh city) first and then in Dhungkhani. There is a village "Daabri", some 8-9 kilometers from our place. Me and my elder brother used to have a great chemistry. Lots of fights, play and all fun. I used to refuse to go anywhere (to my relative's homes etc) without my brother. At the same time, If he has to go somewhere alone, I would also go. So even if my mom needs me or him for some other work, or want one of us to stay at home, it was just not possible. It's as simple as that - If he is going to Daabri (one of my nani used to live there), I'll also go. If I've been asked to go alone, I won't go. This attitude of mine inserted this phrase in our life - "Daabri System". It was not that I was afraid of going alone to a place. It was just that whenever possible, we have to be together because then we shall have more fun.
Now, I feel so happy about so many moments, we have enjoyed. Even one second of such thought gives tons of pleasure. Life is funny you know, now we meet once or twice in a year.
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In our school, I used to like Kho Kho and Kabaddi a lot. You can say Kabaddi was my specialization area (thanks to R.S.S. for that and their nice evening shakhas). Although, I never represented my school team in Kabaddi, but I was in reservers. Simple reason, I was not allowed in playing seven, was my participation in other important events which were more precious for our school and which had nothing to do with sports. Back to kabaddi, I remember one semifinal game specially. I was in 8th class and had to play for my house. Ours was a team of thin guys and to be honest, to be even in semifinals was a strong performance by our team. Then came the semifinal, our principal was also there to watch that match. Our opposition was very strong. If you have seen some big guys in your school days, all of them were in the team of opposition. First pali, we fought hard. After few minutes, I was the only person still there in our team and there were three on the other side of line waiting to catch me alive. But with some will power and bull type style, we won that pali with one point. Second, we lost by a good margin and the game was over. But pleased with our performance, our principal asked for one more pali. We lost like brave fighters. We, the slim trim guys, were there with bruises and pumping hearts and fought till the last second. Memories of it is a real treat for me. Although we ended the competition with a bronze, but our real prize was those pats on our shoulders.
Now, I feel like playing Kabaddi sometimes, but can not get some enthusiastic friends to play that. Life is funny! Right.
- Neeraj Mathpal
March 13, 2008
शनिवार, 1 मार्च 2008
Rock Star - Part 3 (Last Part)
पहली विभूती तो साक्षात चिंगारी है। नन्ही सी जान और चतुरता चतुर सिंह सी।
दूसरी विभूती की नॉएडा में हलवाई की दुकान है, इनकी मिठाइयों के पास मक्खियाँ तो खूब भिनभिनाती हैं, पर लड़की आज तक कोई नहीं फटकी।
चिंगारी अभी अभी लन्दन का एक राउंड मार के लौटा था, दिन १४ फरवरी का था तो वो पहुँच जाता है अपने हलवाई की दुकान में, कि क्या पता आज कुछ चमत्कार हो जाए। जैसे ही वह दुकान पर पहुंचता है तो देखता है कि जोरों से गाना लगा हुआ है -
"अजी रूठ कर अब कहाँ जाइयेगा,
जहाँ जाइयेगा, हमें पाइयेगा"
अब हम आपको इनका सीधा वार्तालाप सुनाने ले चलते हैं सीधे नोइडा कि उसी दुकान पर:
चिंगारी : अरे हलवाई क्या रे ऐसे ही जिंदगी बिगाड़ता रहेगा? पंजाब बैंक में पोस्ट निकली हैं । में तो भर रहा हूँ।
हलवाई : (मन ही मन में सोचता है) बहुत सयाना है। मुझसे ऐसा कह कह के ३-४ फार्म भरवा चुका है। पेपर के दिन ही पता चलता है वो तो सो रहा है आराम से। आज तो इसे ऎसी कड़वी जलेबी खिलाऊंगा की याद रखेगा।
हलवाई : (देखकर कस्टमर को सोचता है - हाय जालिम, काश में ख़ुद ही मिठाई होता, आज इनके थोड़ा नजदीक तो जाता। मेरे कानो में तो अब वायलिन भी बजने लगा है। दिन भी अच्छा है)
(बच्चा उर्फ़ चिंगारी जोर जोर से हँसने लगता है, हलवाई खिसिया जाता है)
हलवाई : (सोचता है - कसम से आज तो दुकान बंद करके स्मार्ट बन कर अपनी बाइक पर निकल जाना चाहिए किसी यूनिवर्सिटी कैम्पस में। और इस बच्चे को भी ले चलते हैं गिटार के साथ, क्या पता इस नमूने की पोज देखकर ही कोई आ जाए)
हलवाई : (तैयार होने लगता है पर फ़िर सोचता है - गधा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या)
चिंगारी : इतना तो आशुतोष ने भी नहीं सोचा होगा जोधा अकबर बनाते समय, जितना तू सोच रहा है। क्या तेरा खून पानी हो गया है? क्या तुझे खानपुर कि गायों का दूध नहीं पिलाया गया बचपन में? क्या भारत की धरती ने सपूतों को जन्म देना बंद कर दिया है?
हलवाई : (इतना सुनकर जोश में आ जाता है, और दोनों निकल पड़ते हैं अपने वेलेंटाइन कि खोज में)
मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008
Rock Stars - Part 2
झमा झाम झम , झमा झाम झम (तार ही तोड़ेंगे आज तो):
इन द समर आफ सिक्सटी नाईन…
झमा झम झम, झमा झम झम।
अजीब दास्ताँ हैं ये, कहाँ शुरू कहाँ खतम,
ये मंजिलें हैं कौन सी, न वो समझ सके न हम।
गुरुवार, 31 जनवरी 2008
Rock Stars - Part 1
दिल थाम के रखिये - हम आप को मिलाने जा रहे हैं कुछ रॉक स्टार्स से। वैसे तो प्रतिभा की कोई कमी नहीं, पर शुरूआत करते हैं हिमेश रेशमिया के भारी फैन डाक्टर पवन ध्यानी से।
हमारा ये रॉक स्टार हमेशा से ऐसा नहीं था। वह भी हमारी ही तरह एक सीधा सादा लड़का हुआ करता था। पर फरवरी २००६ की एक शाम राकेश कहीं से एक नया गिटार खरीद लाया। पूरे २५०० रूपये उस जादुई चीज पर खर्च किये गए थे। अब इस निवेश का कुछ तो फायदा उठाना था। तो उस दिन पूरा समर्पण फोटोग्राफी पर किया गया। ध्यानी जी कभी इस एंगल से फोटो खिंचवाते, तो कभी उस एंगल से। चीलनरेश अवध भी पीछे नहीं थे, तो फिर क्या था - उस दिन २४४ फोटो खींची गयी। राकेश ने म्यूजिक क्लासेज जाना शुरू कर दिया और ध्यानी ने अपने आफिस के प्रिंटर को म्यूजिक की सेवा में झोंक दिया। रोज हजारों पन्ने संगीत के अक्षरों से भरे हुए लाये जाते और जमकर रियाज होता, मानो हिमेश रेशमिया की आत्मा ध्यानी में समा गयी थी। सुबह सुबह वो कर्कश स्वर झेलना हमें पड़ता था। रोज ऊपर वाले से गुहार लगाते की उठा ले रे बाबा उठा ले, इस गिटार को उठा ले। राकेश के सर का भूत तो ४-५ दिन में ही उतर गया, पर ध्यानी जी के गायन को हमें महीने भर झेलना पड़ा। बस यही सकून था कि आख़िर निजात तो मिली। वो गिटार १८०० रूपये में एक महीने बाद बेच दिया गया।
बाद में सुनने में आया कि विजय ने भी एक गिटार खरीदा जिसने कई और रॉक स्टार्स को जन्म दिया। ध्यानी जी का जन्म फिर से हुआ। फिर से कई सारी फोटो खींची गयी, कई सुरों को बेसुरा किया गया और कई सज्जन इंसानों के कान फोड़ दिए गए। पर अन्तिम परिणाम वही - ढाक के तीन पात।
आजकल जिसे देखो गिटार बजाने - सीखने की धुन है। जो बचा, उसे गिटार के साथ फोटो खिंचवाने की धुन है। मानो गिटार ना हुआ, अलादीन का चिराग हो गया।
आज के लिए इतना ही, पर हम आगे आने वाले भागों में गिटार की महिमा का और जाप करेंगे। अभी तो कुछ और भी रॉक स्टार बाकी हैं। तो फिर कीजिए थोड़ा सा इन्तजार ...
(Double click the snap above and check it out for summary:-)
- नीरज मठपाल
जनवरी ३१, २००८