रविवार, 23 मई 2010

रात का उल्लू

ए उल्लू !
कहाँ जा रहा है?
बैठ अभी
रात के जाने में चार घंटे बाकी हैं
सुबह की काफी पीकर निकल जाना
दूर जाने का समय न भी मिले तो
पास के बड़े पत्तों से घिरे पेड़ पर ही
डेरा जमा लेना
दो - चार दिन।

माना वहाँ जगह कम है,
हजार उल्लू पहले से ही रात - दिन
उसी पेड़ पर लटके हैं।
और तू रात को विचरण करने वाले
चंद उल्लुओं में से एक बचा है।

माना कि तू उल्लुओं की
इस भीड़ में
अभी अल्पसंख्यक हो गया है।
माना कि तुझे बिना शुल्क
उस पेड़ पर कोई
दिन नहीं बिताने देगा।

फिर भी हे उल्लू !
तू दिन को यहाँ तो रह नहीं सकता।
उस पेड़ के उल्लू जैसे भी हैं,
हैं तो तेरे अपने।
तेरी जैसी ही बड़ी आँखें,
तेरे जैसे ही पंख।

तुझे वो एक दिन का मुसाफिर मान
मना न करेंगे।
मैं तेरे लिए एक
सिफारशी पत्र
लिख देता हूँ।

ये कोई आम पत्र नहीं,
तेरा प्रवेश पत्र है।
इसका मिलना तो
जैसे बड़ी तपस्या के बाद
अमृत का मिलना।

पर तू मेरा ख़ास उल्लू है,
तुझे बता ही दूँ
इस तपस्या का नाम -
अकडम बकडम छू
'जुगाड़' ।

मेरे सब दुखों के साथी,
तू जा,
ले जा,
मेरी इस तप पूँजी को।

इसी जुगाड़ मंत्र को
घोल ले कानों में और अब
जा भी,
उड़ जा।

- नीरज मठपाल
मई २२, २०१०

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