शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

एक आम कार्यालय

गहरे नीले रंग की टिन की चादरें,
चारों ओर दूधिया रोशनी बिखेरती,
छत से लटकती लम्बी लम्बी ट्यूबलाइट्स,
सफ़ेद रंग से पुती निरंग दीवारें,
कमरे को विभाजित करते कुछ घनाकार खम्भे,
आसपास अपने ही जैसे अनजाने चेहरों के बीच
इसी चहारदिवारी में एक कर्मचारी बैठता है।

कुछ अनकहे अपूर्ण सपनों को लेकर,
कागजों या कम्पयूटर पर अपने हाथों को घिसते हुए,
चाय काफ़ी की चुस्कियों को गले में उतारकर
मस्तिष्क को प्रतिदिन प्रतिक्षण कुंद होते देखता है।
शरीर को विभाजित करती मांसपेशियों,
शिराओं और धमनियों में एक पराधीन खून तैरता देख
इसी को जीवन की नियति मानकर एक कर्मचारी यहीं बैठता है ।

- नीरज मठपाल
नवम्बर २१, २००८

एक आम कर्मचारी

एक कर्मचारी के घर से बाहर कदम चलते हैं,
कार्यालय के प्रवेश द्वार को सहसा देखते हैं,
देखते हैं कि आज भी वही रोजमर्रा का काम निपटाना है,
लकड़ी की उसी कुर्सी पर रोज की तरह जीवन का भोग लगाना है।

दिन ढलने पर वही कदम घर की तरफ़ बढ़ते हैं,
कार्यालय के प्रवेश द्वार को सहसा निकास मार्ग सा देखते हैं,
देखते हैं कि आज भी घर में खा पीकर बीवी बच्चों पर रौब जमाना है,
लकड़ी की उसी खाट पर रोज की तरह बिना सपनों की नींद लिये सो जाना है।

- नीरज मठपाल
नवम्बर २१, २००८

मिलन (२)

प्रथम को अग्रसर करता द्वितीय बिन्दु
हृदयपट पर अंकित होते चित्र
तन में घुलती मधुर स्मृतियाँ
नयनों में बसती ज्यामिती
कानों में बारम्बार दस्तक देती मिठास
कपाल पर झूलती अश्रुमिश्रित केशराशियाँ

ढलती गोधूलि के बीच
नयनों से झरते अश्रु
शांत होती जाती धड़कनें
हाथों में घबराहट का आभास देकर
पलकों को घिसती अंगुलियाँ
मिलन का ये अद्भुत द्वितीय बिन्दु

- नीरज मठपाल
नवम्बर २१, २००८

बुधवार, 19 नवंबर 2008

मिलन (१)

अनसुनी आहट का ये प्रथम बिन्दु
सुपरिचित प्रिय के आगमन का आभास
क़दमों की मदमाती चाप
द्वार पर होती मीठी खट खट
हृदय गति को अनायास ही
जैसे त्वरण मिल गया हो

प्रीत से मिलने का संयोग श्रृंगार
चक्षुओं की अपलक व्यग्रता
नासिका में वायु की तीव्र होती ध्वनि
अधरों का मूक कम्पन
कंठ से लार का उदर में प्रवेश
मिलन का ये अनकहा प्रथम बिन्दु

- नीरज मठपाल
नवम्बर १९, २००८

बुधवार, 12 नवंबर 2008

अंक, तेरी जय

अभी देखता हूँ मैं अपने सेलफोन को
जिस पर ० से लेकर ९ तक के अंक अंकित हैं
कुछ अंकों का ये खेल कितना महान है
इन कुछ अंकों ने पुरा काल से
पूरी दुनिया को चला रखा है

बचपन से लेकर आज तक
हर जगह यही अंक पहचान बनते आए
कभी अनुक्रमांक के नाम से तो
कभी इम्प्लौयी क्रमांक के नाम से

घर का पता भी अंक से
लापता हूँगा तो वो भी अंक से
मिलूँगा तो वो भी अंक से
आगे बदूँगा या पीछे हटूंगा तो वो भी अंक से

सोचो अगर अंक नहीं होते तो क्या होता
रूपयों और डॉलरों का ये व्यापर कैसा होता
विज्ञान का गणित
विज्ञान की मधुशाला न बन जाता
पर मधुशाला में भी तो अंक है

कितना ही सोच लूँ
कौन सी चीज है जिसे अंक की जरुरत नहीं
पर सोच ही जवाब दे गयी
बिना अंक का कुछ भी न मिल पाया

हे अंक, आज तू फ़िर से जीत गया
अंको के इस मुकाबले में
मैं फ़िर नौ - शून्य से मात खा गया

- नीरज मठपाल
नवम्बर १२, २००८

जाड़े का ये मौसम

कभी टिन की छत पर पड़ती
बारिश की बूंदों को क्या तुमने देखा है
कभी रजाई के अन्दर मुँह डालकर
क्या तुमने उन बूंदों का संगीत सुना है

क्या कभी तुमने निवाड़ वाली
चारपाई पर बैठकर
मित्र मंडली के साथ
गुड़ और मूंगफली का स्वाद चखा है

क्या कभी गिरती बर्फ को
कटोरे में रखकर तुमने उसे गुड़ के साथ खाया है
क्या कभी बर्फ पर पड़े पाले पर
तुमने फिसलने का भय महसूस किया है

क्या कभी ठिठुराने वाली ठंड में
तुमने आग की आंच महसूस की है
क्या कभी भुने हुए भुट्टे को
नीम्बू मिर्च लगाकर खाया है

क्या कभी बिजली चले जाने पर
रात भर हाथ पाँव मोड़कर नींद गुजारी है
क्या कभी सुबह जलते कोयलों पे
पानी गरम करके नहाया है

हर साल जाड़े का ये मौसम
इन्हीं सब पलों की यादें लेकर आता है
ददा ने सच ही लिखा था कभी
यादें ढकती हैं, यादें मिटती नहीं

- नीरज मठपाल
नवम्बर १२, २००८