बुधवार, 27 नवंबर 2013

इतिहास का एक छोटा सा प्रश्न


छः मंजिल चढ़कर पुस्तकालय की, पहुँचा इतिहास खोजने
वह इतिहास जो पहले से ही पता था वहाँ मिलेगा ही नहीं
इतिहास तो छिपा है हिमालय में, और शायद डूबी हुई द्वारिका में
गंगा और उसकी उपनदियों के पानी में, शायद दक्खन के पठार में
 
न जाने क्यों जानते हुए भी ये प्रश्नवाचक प्रयत्न किया
क्या इतिहास मिलेगा यहाँ भी  
इस विशाल ओंटारियो झील में और इन ऊंची इमारतों की नीव में?
 
शायद २१०० तक यह प्रश्न, प्रश्न ही न रहे |
 
- नीरज मठपाल 
नवम्बर २७, २०१३ 

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

कुछ पल कोठी के साथ

(अंग्रेजो के समय की बनी एक कोठी को समर्पित, जो बचपन और किशोरावस्था के कई चित्रों को आज भी रंग भर देती है)  

आज एक बहुत अरसे बाद उस बड़ी कोठी में होकर आया 
सौ साल पुराने देवदारु के सामने खड़ी उस पुरानी इमारत को निहार कर आया 
उन बड़ी घुमावदार सीढियों पे छलांगे मारते हुए एक बार फिर खुद को पाया 
धूल की मोटी परत से सनी लम्बी आरामकुर्सी पे खुद को लम्बा होते पाया

जिस कोठी में कभी कहकहे गूंजा करते थे 
आज कह पाना मुश्किल था कि यह उसकी नितांत शांति थी या घुप्प अँधेरा 
जो मन को ऐसे अशांत कर रहा था 
जैसे कहकहों और ठठाकों को ठंडी हवाएं उड़ा ले गयी हों 

भूतहा पिक्चरों में अक्सर दिखते हैं 
ऐसी ही कोठियाँ और ऐसे ही उपस्कर (फर्नीचर)
पर नहीं दिखता उनमें वो जीवन अमृत 
जो शायद अब भी इन मजबूत लकड़ियों में बंद पड़ा है 

कोठी के भाड़ से ऐसी आवाज रुक रुक के आ रही है जैसे 
तीन चार भूत कुछ लड़ते हो, फिर कुछ इंतेज़ार करते हों प्रतिक्रिया का 
धड़कन थोड़ी तेज जरूर चल रही थी पर बीता समय गवाह था 
ये भूत नहीं लंगूरों की कोई तो प्रतियोगिता थी मालिकाना हक जताने की 

कोठी के बायीं तरफ की बालकनी में डगमग डगमग दो कदम सावधानी से रखे 
फिर तिलंगे की शीशेदार विस्तृत खिड़कियों से बाहर के पूरे दृश्य को आँखों में समाया 
कोठी के कुछ कमरों को ठकठकाने का अवसर बीच बीच में मिलता रहा 
लेकिन उन बड़ी अलमारियों में छिपने का निराला अनुभव बस सोच ही पाया 

आज फिर उसके आंगन में थोड़ी देर बैडमिंटन खेल आया 
दरवाजे के एक टूटे शीशे को बॉल से थोड़ा सा और तोड़ आया 
ऐसे ही अचानक हुए इस दौरे में कई यादें जी आया 
फिर से उस देवदारू के पेड़ की छाँवतले बैठ उस धूसर हरे रंग को निहार आया 

और कह आया उस कोठी / बंगले से - तुम यादों में हरे ही रहोगे। 


- नीरज मठपाल 
नवम्बर १२, २०१३ 

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

पूछोगे तो उत्तर मिलेगा क्या?


कवि -
 
कोई जन्मा तो कोई मरण की गोद में समाया 
कोई जवानी की शरण में बढ़ा तो कोई बुढ़ापे की 
ये चक्र क्या है जन्म मरण का 
इस भूलभुलैया को कोई क्या  सुलझा पाया 
 
मरण -
 
ये क्या हो रहा है ये क्यों हो रहा है 
क्यों लोग रो रहे हैं क्यों लोग दुखी हैं 
जब शरीर छोड़ते जीव ने आस पास देखा 
तो कुछ भी पूछ ना पाया 
 
बुढ़ापा -

खाना चबाना थोड़ा मुश्किल होने लगा
चार सीढ़ियां चढ़ना थोड़ा मुश्किल होने लगा
जब बुढ़ापे ने जवानी की तरफ देखा
तो इस अंतर का कारण पूछने लगा

जवानी -
 
समय का अभाव मुंडी हिलाने लगा 
एकाग्रता की स्याही सूखने लगी 
जब जवानी ने बचपन की तरफ देखा 
तो इस अंतर का कारण पूछने लगी 
 
बचपन -
 
खेलते खेलते थकान का नाम ना आया 
गहरी नींद में सपने का भान ना आया 
जब बचपन ने बुढ़ापे की तरफ देखा 
तो इस अंतर का कारण पूछने लगा 
 
जन्म -

ये क्या हो रहा है ये क्यों हो रहा है
क्यों लोग हंस रहे हैं क्यों लोग खुश हैं
जब जन्मे बच्चे ने आस पास देखा
तो कुछ भी पूछ ना पाया

- नीरज मठपाल 
जुलाई २५, २०१३ 


कविता और मन

आज बड़े दिन बाद कविता ने ठक ठक की दरवाजे पर
बोली कि एक नई कविता कहने का मन है
जिद थी कि खुद की लिखी कविता कहने का मन है

पहला शब्द दिमाग में आना ही जब दूभर हुआ
तो अहसास हुआ कि यह लम्बी निद्रा में सोया मन है
सांसारिक जीवन में एक अरसे से खोया ये व्यस्त मन है

ना इतिहास काम आया ना ही भूगोल
गणित ने विज्ञान को धता बताकर सिद्ध किया असीमित ये मन है
जब इबारत लिखी दर्शन शास्त्र ने समझा कि झूठा ये मन है

मन के झूठेपन की बात सुन कविता चुपचाप चलती बनी
उसकी आँखों से लगा कि एक अनकही जिद सुनाकर जाने का मन है
जिद है कि जब कहो सच्चे मन से कविता तभी आने का मन है

उसका ठक से आना चुपचाप चले जाना फिर भी चलता रहा
सच झूठ के बीच मन का कवि भी यूँ ही झूलता रहा


- नीरज मठपाल
जुलाई २५, २०१३