बुधवार, 20 जून 2007

मुक्ति

सदियों से रोशन ये दुनिया
उस आग के गोले की भक्तिनी सी।
सदियों से ही रोशन ये चांद
इस जीवन अंकुर का भक्त सा।

विचित्र इनका भक्ति का खेल
अमिट इनकी अपलक चाह
जो इन्हें अब भी रोशन किये है।
सीमाओं का अनोखा बन्धन
जो इन्हें अब भी जोड़े हुए है।

तृप्त गोलों की ये निरंतर दौड़
जैसे एक मिलन की प्रतीक्षा में।
कभी ना हो सकने वाले इस मिलन
का भविष्य जानकर भी
परस्पर सान्निध्य में मौन हैं।

ग्रह, उपग्रह और तारे के इस खेल में
आदि – अंत का अस्तित्व नहीं
क्षण भी क्षणभंगुर नहीं।
सच में वह क्या है जो
इस मिलन को पूर्णता दे रहा है।

कुछ महाशक्तियों का
परस्पर सह्योग का सदभाव है
या तृप्त मनसों की सहृदयता
यह अंतहीन भक्ति है
या असीम शून्य की स्वतंत्रता।

इस दर्शन से मुग्ध अचरज
एक अजर अमर यात्रा,
कई लक्ष्यों को समेटती
एक लक्ष्यहीन यात्रा
का संदेश टटोल रहा है।

संदेश यही कि
मुक्ति आदि में नहीं,
अंत में भी नहीं,
लक्ष्य में भी नहीं।
मुक्ति भ्रमण में है – रमण में है।
मुक्ति क्षण में है – समर्पण में है।
मुक्ति आनंद में है – भाव में है।
मुक्ति गति में है – प्रगति में है।
मुक्ति अमुक्ति में है।

- नीरज मठपाल
जून १९, २००७

शुक्रवार, 15 जून 2007

पीचीम समझौता - एक ऐतिहासिक फैसला


कुछ दिन पूर्व जी टाक पर एक शिखर वार्ता का आयोजन किया गया। इसमें लेड़ू देश के राजा ‘पी’ , चीलनरेश ‘ची’ , लाटा साम्राज्य के अधिपति ‘म’ ने प्रतिभाग किया। वार्ता का परिणाम एक ऐतिहासिक फैसला है, जो आने वाले कल में इन महान देशों का भविष्य तय करने की सामर्थ्य रखता है। ज्ञात रहे कि ये तीनों विभूतियाँ एक ज़माने में एक साथ केदार छात्रावास के कमरा नंबर २०१ की शोभा बड़ा चुकी हैं।

वार्ता इस बात से शुरू हुई कि म के बच्चों को अब एक और प्रश्न का सामना करना पड़ेगा – “भारत की पहली महिला राष्ट्रपति का नाम बताइए?” आने वाले समय में बच्चों पर और भी काफी प्रश्न लादे जा सकते हैं।


तो इसके लिए राजा म ने सुझाव दिया कि क्यों न कुछ इस तरह की योजना बनाई जाये कि सभी एक ही समय पर बच्चे पैदा करें। इससे बच्चों को “कम्बाइन्ड स्टडी” करने का अवसर मिलेगा और माता पिता पर भी कम दबाव रहेगा। राजा पी ने इस सुझाव का सहर्ष स्वागत किया। किन्तु उनकी एक समस्या थी – प्रेमरोग की। जिसके कारण उन्हें शादी की थोड़ा जल्दी है। तो बच्चों के लिए उन्हें काफी इन्तजार करना पड़ जाएगा – बाकी लोगों की शादी होने तक। समस्या का समाधान ये निकला कि पी के दूसरे बच्चे के साथ तालमेल बिठाया जाएगा और जरूरत पड़ी तो पहले बच्चे को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाएगा।


वार्ता में नया मोड़ तब आया जब राजा ची ने अपना मुँह खोला। उनका कहना था कि वो इस “स्कीम” पर अपना एक बच्चा तो कुर्बान करने की सोच सकते हैं, लेकिन उनकी पहले से एक और योजना है, “अपना बच्चा बाकियों के बच्चे के ठीक एक साल बाद पैदा करना है। इससे किताबें और कापियां फ्री में मिल जाया करेंगी। मेरा बच्चा अपने ददा और दीदीयों की किताबें पढ़ेगा।”


इस पर आवेशित होकर राजा पी ने कहा, “हमें राजा ची जैसे भिखारियों को अपनी इस योजना में शामिल करने की जरूरत नहीं है। हमें तो उन साहसी लोगों की जरूरत है, जो हमारे बच्चों के साथ कदम से कदम मिला कर चल सकें। उनके एक साल पीछे पीछे नहीं।”

कुल मिलाकर इस फैसले के बाद दो धाराएँ निकलकर सामने आयी:-


१ - वो राजा जो अपने राजकुमार और राजकुमारियां लगभग एक ही समय पर पैदा करेंगे।


२- वो राजा (भिखारी), जो अपने बच्चे ऊपर पैदा हो चुके बच्चों के ठीक एक साल बाद पैदा करेंगे।


आप सभी मित्रगण भी इन दोनों धाराओं में से किसी एक में शामिल होने के लिए आमंत्रित हैं। ध्यान रहे कि आपका निर्णय कल को इतिहास बदलने की ताक़त रखता है। इसलिये सोच समझकर निर्णय लें। आख़िर सवाल आपके बच्चों के ही नहीं, बल्कि पूरे देश के भविष्य का है।

(इस फैसले को पढ़ने के बाद किसी का मन हम पर जूते मारने का कर रहा है, तो कृपया अच्छी ब्रांड के नए जूते ही मारें। आख़िर हमारा भी कोई “स्टैंडर्ड” है। कष्ट हेतु धन्यवाद।)


- नीरज मठपाल


जून १५, २००७

शनिवार, 2 जून 2007

सड़क

सड़क यातायात का अहम साधन। पर अभी जिन सड़कों के बारे में सोच रहा हूँ, वो यातायात का साधन कम, विचाररूपी ‘मोटर’ को ईंधन देती 'मशीन' ज्यादा लग रही हैं।

जीवन का सफ़र अनेकानेक सडकों से गुजरता है जिन पर हम कई बार माता – पिता, भाई बहन, नाते – रिश्तेदार, दोस्तों के साथ घूमते हैं। वहीं कई बार अकेले भी एक वैचारिक मस्तिष्क को लेकर चलते हैं। फिर कहीं पर एकांत देखकर सड़क किनारे बैठ जाते हैं, कुछ देर बातें करते हैं, कुछ सोचते हैं, फिर वापस वहीं आ जाते हैं जहाँ से चले थे। पर कुछ लेकर ही वापस आते हैं, चाहे वह आत्मबल या प्रसन्नता में वृद्धि का कारण बने या फिर ह्रास का। साथ में हम कुछ अच्छे या बुरे क्षणों को भी जी चुके होते हैं।

कुछ वर्ष पहले मैं द्वाराहाट, बेरीनाग, डीडीहाट की सडकों पर अपने माता – पिता, अग्रजों का हाथ पकड़े चलता था। बाल मन उन्ही क्षणों में प्रसन्न रहता है। उसे और कुछ सोचने की आवश्यकता ही नहीं होती। उसके बाद पिथौरागढ़ में भी यह बाल मन ही रहा, अपने परिवेश को शरीर में समावेशित होते देखता रहा, पर यही वह समय था जब विचारों के रौंदे हुए जल से व्यक्तित्व की जड़ें सींची जाने लगी थी। नैनीताल, घुड़दौड़ी (पौड़ी), दिल्ली, बंगलौर की सडकों से होते हुए पिछले एक साल से यह जल अमेरिका की सडकों पर आ पहुँचा है। आज भी इसके सींचने की शक्ति कम नहीं हुई, ना ही बाल मन की जिज्ञासाएँ उत्पन्न होना छोड़ सकी हैं। युवाओं की ऊर्जा, जोश और जीवनी शक्ति उस बाल मन में मिली, तो विचार प्रवाह में गति सी आ गयी।

स्थिर रहना या स्थिर विचारधारा का होना अच्छी बात है पर फिर भी कहीं कुछ है जो कहता रहता है, “मेरी तो कोई विचारधारा ही नहीं है”। मन – मस्तिष्क इस बात का खंडन करता है। लेकिन “सही क्या है?”, इसका निर्णय कौन करेगा? कहीं से स्वयम् ही उत्तर आया कि इसका निर्णय अतिसंक्षिप्त वैचारिक विश्लेषण ही कर सकता है। उत्तर मिला बहुत साधारण पर अपने में कई सदियों को समेटे हुए – “जड़ें तो स्थिर रहती हैं। समय के साथ साथ वो और भी गहरी होती चली जाती हैं। पर तना, पत्ती, फूल आदि का कार्य तो गतिमान रहना है। सिद्धांततः चीजें नहीं बदलती, पर समयानुसार उनके क्रियान्वयन में परिवर्तन आवश्यक है। यही एक गतिशील मन, गतिशील मस्तिष्क और गतिमान व्यक्तित्व की विचारधारा है।”

अभी शाम को ही एक सड़क पर चलते हुए पुनः अहसास हुआ – “सड़कें तो बदलती रहती हैं, पर हमारा चलना नहीं बदलता। गतिमान जीवन गतिमान ही रहता है।”

- जून २, २००७
नीरज मठपाल

अनुभव

“जीवन एक रोचक सफ़र। अनुभवों से लहलहाते रास्ते। व्यापक रूप में मीठे अनुभवों की प्रतिशतता भारी, (आवश्यक) खट्टे, मिर्च लगे अनुभव भी पर्याप्त।”

उम्र के साथ - साथ अनुभव भी बढ़ता जा रहा है। प्रत्येक नया दिन, एक संभावित नया अनुभव। दृष्टिकोण भिन्न – भिन्न होने का विकल्प तो अभी भी उपलब्ध है, किन्तु जीवन की अजैविक गतिविधियों से सम्बंधित विचारों में कुछ स्थिरता सी आ रही है। विगत २१ वर्षों का प्रभाव स्पष्टतः प्रस्फुटित होने लगा है। यह स्थिति प्रत्येक के साथ आती है – चाहे वह जड़ हो या चेतन। चेतन मन की वास्तविक चेतना वही है जब वह ‘जड़’ को आत्मसात करते हुए चेतनामय रहे। यदि जीवन को वाच्यों में तौलें, तो स्थिति ‘मनुष्य’ की वास्तविक विशेषता की स्वतः ही व्याख्या कर देती है। उदाहरणार्थ,

कृतवाच्य – मनुष्य जीवन जीता है।
कर्मवाच्य - जीवन मनुष्यों द्वारा जिया जाता है।

उपरोक्त दो कथनों में ही संभवतः कुछ असत्यता हो, क्योंकि यह भी अनुभव आधारित हैं और अनुभव खट्टे भी हो सकते हैं, मीठे भी। जो भी हो, जीवन रस तो अनुभवों में ही है, वह भी तभी जब उनसे कुछ सकारात्मक ग्रहण किया जाये।

- नवंबर २६, २००१
नीरज मठपाल

कथन - ३

जीवन एक बाधा दौड़ है, बाधाओं को आसानी से पार करना, कठिनता से पार करना या पार ही न कर पाना कई कारकों पर निर्भर करता है। कदमों की नियमितता, गति में त्वरण, उपयुक्त उछाल (उपयुक्त समय एवं उपयुक्त स्थान पर) ऐसे ही कुछ कारक हैं। इन सब के लिए भिन्न – भिन्न प्रकार के व्यायाम, भोजन की आवश्यकता होती है। सुख के समय (बाधा दौड़ मे अवरोध रहित हिस्सा) शांत रहना एवं दुःख (कठिन अवरोध) में मुस्कराना ऐसे ही कुछ व्यायाम हैं। गप्पें (उचित मात्रा मैं), मनोरंजन, खेल, अध्ययन आदि दौड़ने हेतु आवश्यक उर्जा देने वाले भोजन हैं। सभी कारकों का अच्छा मिश्रण दौड़ को संतुष्टि प्रदान कर सकता है, जबकि गलत अनुपात में बना मिश्रण कसैला स्वाद ही देता है। तो यदि स्वाद को समझते हों, तो उचित व्यवहार से पूर्ण दौड़ में भाग लें, अन्यथा सब चलता है।

- दिसंबर १३, २००३
नीरज मठपाल