बुधवार, 20 जून 2007

मुक्ति

सदियों से रोशन ये दुनिया
उस आग के गोले की भक्तिनी सी।
सदियों से ही रोशन ये चांद
इस जीवन अंकुर का भक्त सा।

विचित्र इनका भक्ति का खेल
अमिट इनकी अपलक चाह
जो इन्हें अब भी रोशन किये है।
सीमाओं का अनोखा बन्धन
जो इन्हें अब भी जोड़े हुए है।

तृप्त गोलों की ये निरंतर दौड़
जैसे एक मिलन की प्रतीक्षा में।
कभी ना हो सकने वाले इस मिलन
का भविष्य जानकर भी
परस्पर सान्निध्य में मौन हैं।

ग्रह, उपग्रह और तारे के इस खेल में
आदि – अंत का अस्तित्व नहीं
क्षण भी क्षणभंगुर नहीं।
सच में वह क्या है जो
इस मिलन को पूर्णता दे रहा है।

कुछ महाशक्तियों का
परस्पर सह्योग का सदभाव है
या तृप्त मनसों की सहृदयता
यह अंतहीन भक्ति है
या असीम शून्य की स्वतंत्रता।

इस दर्शन से मुग्ध अचरज
एक अजर अमर यात्रा,
कई लक्ष्यों को समेटती
एक लक्ष्यहीन यात्रा
का संदेश टटोल रहा है।

संदेश यही कि
मुक्ति आदि में नहीं,
अंत में भी नहीं,
लक्ष्य में भी नहीं।
मुक्ति भ्रमण में है – रमण में है।
मुक्ति क्षण में है – समर्पण में है।
मुक्ति आनंद में है – भाव में है।
मुक्ति गति में है – प्रगति में है।
मुक्ति अमुक्ति में है।

- नीरज मठपाल
जून १९, २००७

1 टिप्पणी:

  1. विचारों का अभाव नहीं है आपके पास। लगता है जैसे थोड़ा मांजने की ज़रूरत है संभवत:।
    बहुत सुंदर।
    शुभम।

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