शनिवार, 11 सितंबर 2010

मेरा हृदय अब भी पहाड़ में बसता है

कदमों को विकास भी दिखा
नयनों को समंदर भी,
मन को साथी भी मिला,
समय को राह भी।

कुछ दूर भी हुआ
तो कुछ पास आया भी,
कुछ अलग वक्त को भी देखा
तो कुछ अलग वक्त ने दिखलाया भी।

कुछ अलग खुद को भी समझा
तो कुछ अलग खुद को समझाया भी,
आगे पीछे दिन रात भागते भी रहे
और रात दिन थमते रहे भी।

सोचा तो जाना भी
मेरा हृदय
अब भी पहाड़ में बसता है।

- नीरज मठपाल
सितम्बर ११, २०१०

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