शनिवार, 25 सितंबर 2010

बर्तन सब साफ़ हैं

गले से लटकती हुई प्यासें
पेट से लटकती हुई भूखें

दरवाजे पर यूँ चलकर आती हुई भिन्डीयाँ
घी चुपड़ी पास बुलाती रोटीयाँ
थाली पर फैलती हुई दालें
कुकर के ढक्कन पर दस्तक देती चावलें

सब कुछ पलक झपकते गायब हो गया

रह गयी गले से लटकती हुई प्यासें
और अब भी पेट से लटकती हुई भूखें

- नीरज मठपाल
सितम्बर २५, २०१०

2 टिप्‍पणियां:

  1. ये पेट की भूख है जो मिटी नही
    क्यूं कि बर्तन सब साफ हैं ।

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  2. चूंकि कविता खाने पीने की चीजों से जुड़ी थी इसलिए बरबस खिंचा चला आया।

    कविता अच्छी है।

    Word verification हटा दें तो बढ़िया रहे।

    जवाब देंहटाएं