बुधवार, 12 नवंबर 2008

जाड़े का ये मौसम

कभी टिन की छत पर पड़ती
बारिश की बूंदों को क्या तुमने देखा है
कभी रजाई के अन्दर मुँह डालकर
क्या तुमने उन बूंदों का संगीत सुना है

क्या कभी तुमने निवाड़ वाली
चारपाई पर बैठकर
मित्र मंडली के साथ
गुड़ और मूंगफली का स्वाद चखा है

क्या कभी गिरती बर्फ को
कटोरे में रखकर तुमने उसे गुड़ के साथ खाया है
क्या कभी बर्फ पर पड़े पाले पर
तुमने फिसलने का भय महसूस किया है

क्या कभी ठिठुराने वाली ठंड में
तुमने आग की आंच महसूस की है
क्या कभी भुने हुए भुट्टे को
नीम्बू मिर्च लगाकर खाया है

क्या कभी बिजली चले जाने पर
रात भर हाथ पाँव मोड़कर नींद गुजारी है
क्या कभी सुबह जलते कोयलों पे
पानी गरम करके नहाया है

हर साल जाड़े का ये मौसम
इन्हीं सब पलों की यादें लेकर आता है
ददा ने सच ही लिखा था कभी
यादें ढकती हैं, यादें मिटती नहीं

- नीरज मठपाल
नवम्बर १२, २००८

1 टिप्पणी:

  1. bahut sahi kaha aapne...yadein kabhi nahi mitti...ye poem bhi bahut hi acchi hain..gud moongphali..baraf...rajai...bahut hi accha laga padhke

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