अभी दो सप्ताह ही तो हुए जब शनिवार के दिन हमने तय किया कि कल सुबह सुबह सूर्य दर्शन पर निकला जाए। सबसे जरूरी था मौसम का हाल जानना क्योंकि पिछले दो बार सुबह सुबह सूर्य दर्शन तो हुए थे, लेकिन तब तक सूरज समुद्र से ५ फीट ऊपर आ चुका था। बादलों ने सूरज को छिपा लिया था, भले ही किरणें छनकर हम तक पहुँच रही थी, आँखों को एक बेहतरीन दृश्य देखने को मिला भी, किन्तु जैसे एक चीज थोड़ा अपूर्ण रह गयी हो। पिछले दोनों ही प्रयास ‘साउथ मियामी बीच’ पर किये गए थे। इस बार हमने तय किया कि ‘फोर्ट लॉडरडेल बीच’ से अपने को कृतार्थ किया जाये। रविवार की सुबह ५-४५ पर हमारी सवारी घर से निकल पड़ी। जब निकले थे, तो अँधेरे का साम्राज्य छाया हुआ था। जैसे जैसे मिनट की सुई आगे बढी, हल्की हल्की सफेदी सी छाने लगी। हम ६-१५ पर समुद्र तट के समीप पहुँच चुके थे, कार को पार्किंग में डालकर हम रेत से होते हुए समुद्र के बिलकुल पास जा पहुंचे। लहरों के साथ आती हुई अपार जलराशि का एक कोना हमारे पैरों से खेलने लगा। हमारे पैर भी स्वयं ही पानी से खिलवाड़ करने लगे। पर आँखों का ध्यान सुदूर उस रेखा पर ही था जहाँ पर सागर आकाश एक दूसरे का हाथ थामे खड़े थे। आकाश के रंग कुछ ऐसे बदल रहे थे जैसे भानु भास्कर के स्वागत में पहले से ही दमकने लगे हों।
घड़ी की सुईयां जैसे ही सात के आगे पहुँची, सागर आकाश के मिलन की लंबी रेखा नारंगी होने लगी, विशेषत: बीचों बीच का दृश्य ही निराला था।
फिर जैसे जैसे चंद्रमा की कलाएं हर तिथि के साथ चंद्रमा की गोलाई बदलती हैं, उसी तरह की गोलाईयों में सूर्यदेव बाहर निकलने लगे। अंतर इतना था कि जहाँ चंद्रदेव पूरे आकार में आने में १५ दिन लेते हैं, वहीं सूर्यदेव ने यह कार्य कुछ ही मिनटों में निपटा दिया। शायद उन्हें भी यह भान है कि मनुष्य को उनसे मिलने वाली ऊर्जा की कितनी आवश्यकता है। उन्हीं की किरणों के साथ सारे काम प्रारंभ होते हैं, उन्ही की किरणों के अस्त होने के साथ सारे काम रूकने से लग जाते हैं।
एक घंटा वो सुबह हमने उस महान ऊर्जाश्रोत के साथ बिताई। ऐसा प्रतीत हुआ कि शरीर में वास्तव में ही कुछ ऊर्जा संचरण हो गया हो। वैसे भी समय पर उठने से पूरा दिन ही सार्थक सा लगता है, फिर इस दिन तो बात ही कुछ और थी। सूर्य को नमस्कार कर हमने अपने कदम वापस घर की तरफ बढाये, पर उस दर्शन की यादें हमेशा दिमाग में ताजा रहेंगी।
आप इन चित्रों का आनंद लें, अभी के लिए अलविदा।
- नीरज मठपाल
अक्टूबर २, २०१०
घड़ी की सुईयां जैसे ही सात के आगे पहुँची, सागर आकाश के मिलन की लंबी रेखा नारंगी होने लगी, विशेषत: बीचों बीच का दृश्य ही निराला था।
फिर जैसे जैसे चंद्रमा की कलाएं हर तिथि के साथ चंद्रमा की गोलाई बदलती हैं, उसी तरह की गोलाईयों में सूर्यदेव बाहर निकलने लगे। अंतर इतना था कि जहाँ चंद्रदेव पूरे आकार में आने में १५ दिन लेते हैं, वहीं सूर्यदेव ने यह कार्य कुछ ही मिनटों में निपटा दिया। शायद उन्हें भी यह भान है कि मनुष्य को उनसे मिलने वाली ऊर्जा की कितनी आवश्यकता है। उन्हीं की किरणों के साथ सारे काम प्रारंभ होते हैं, उन्ही की किरणों के अस्त होने के साथ सारे काम रूकने से लग जाते हैं।
एक घंटा वो सुबह हमने उस महान ऊर्जाश्रोत के साथ बिताई। ऐसा प्रतीत हुआ कि शरीर में वास्तव में ही कुछ ऊर्जा संचरण हो गया हो। वैसे भी समय पर उठने से पूरा दिन ही सार्थक सा लगता है, फिर इस दिन तो बात ही कुछ और थी। सूर्य को नमस्कार कर हमने अपने कदम वापस घर की तरफ बढाये, पर उस दर्शन की यादें हमेशा दिमाग में ताजा रहेंगी।
आप इन चित्रों का आनंद लें, अभी के लिए अलविदा।
- नीरज मठपाल
अक्टूबर २, २०१०
अति उत्तम ...
जवाब देंहटाएंयाद नहीं पड़ता कि मैंने पिछले बार कब प्रातः में उठकर सूर्यदेव के दर्शन किये .