शनिवार, 15 मार्च 2008

किस्सा आम है

आज एक विचित्र सा ख्याल आया। आपने कभी सरिता, मेरी सहेली, गृह शोभा जैसी महिला
पत्रिकाएँ पड़ीं या देखी होंगी। आज सोचा की कुछ वैसा ही लिखा जाए। इन पत्रिकाओं की अपने अंदाज में टांग खींची जाए। तो फ़िर सुनाते हैं आपको एक किस्सा।

ये किस्सा है दिल्ली में रहने वाली एक गृहणी का। दक्षिणी दिल्ली के गोविन्दपुरी इलाके में रहने वाली मालती की शादी को अभी एक ही साल हुआ था। उसके पति विभोर एक सरकारी हस्पताल में कम्पाउन्डर थे। वैसे तो मालती एक हंसमुख मिजाज महिला थी, पर उसको पिछले कुछ समय से एक अजीब सा शौक लग गया था। डब्बे रखने का शौक। वैसे तो ये किसी भी मध्यम वर्गीय घर के लिए अनोखी बात नहीं। रसोई में हर चीज तो डब्बों के अन्दर आजादी की चाह में घुलती रहती है। पर मालती के दोनों कमरे तो जैसे डब्बों से ही भरे हुए थे। मिठाई के डब्बे, कपड़ों के डब्बे, चूड़ी बिंदी के डब्बे, सामानों के छोटे छोटे डब्बे, चाय पत्ती के पुराने डब्बे। जैसे डब्बों के लिए " इनकमिंग " सेवा तो अकूत हो, पर " आउटगोइंग " सेवा बंद पड़ीं हो। विभोर जब शाम को घर लौटते तो उन्हें सख्त हिदायत थी कि कोई भी डब्बा इधर से उधर नहीं होना चाहिए वरना उस दिन खाना ही नहीं बनेगा।

विभोर का मन इससे हमेशा उखड़ा उखड़ा सा रहने लगा था।

आज उनकी सालगिरह थी। मालती ने सोचा कि आज कुछ " गिफ्ट " खरीद के लाया जाए, जिससे पतिदेव खुश हो जायें और सारे गिले शिकवे मिट जाएं। बस निकल चली मालती की सवारी बाजार की तरफ़। पहले वो गयी फूलों की दुकान में, उसने सोचा फूल ले जाउंगी, घर को सजाउंगी। पर जब दुकानदार थैली में डालकर फूल देने लगा, आप समझ ही सकते हैं कि मालती उन्हें एक सुंदर से डब्बे में अच्छे से पैक करवा कर आगे बढी। फ़िर आगे जाकर विभोर के मनपसंद रंग की कमीज खरीदी और उसे शानदार डब्बे में पैक करवा के अगली दुकान की तरफ़ चली। वो जो भी लेती, हर जगह डब्बों में पैक करवाने का ख्याल उसका पीछा करता रहता।

जब वह घर पहुँचने वाली थी तो उसे अहसास हुआ कि क्यों आजकल विभोर उखड़े उखड़े रहते हैं, तो उसने इन नए डब्बों से सामान निकलकर डब्बों को कूड़ेदान में डाल दिया। इस सब के बाद वह उदास और हताश घर पहुँची। उसे डब्बों के न होने का दुःख तो था, पर वह खुश भी थी कि अब ये डब्बे उसके जीवन मे कलेश पैदा नहीं करेंगे।

अब आप सोच रहे होंगे कि इस किस्से में ख़ास क्या था। चलिए आप को शाम की बात भी बता देते हैं। शाम को विभोर भी मालती के लिए " गिफ्ट " लेकर आए, तो मालती अपना सर पकड़ कर रह गयी। विभोर की तरफ़ से सालगिरह का ये शानदार उपहार था - तीन बड़े बड़े डब्बे।

आशा है आपको गृह शोभा टाइप का ये किस्सा पसंद आया होगा। नहीं आया तो कोई परेशानी नहीं, आप इन महिला पत्रिकाओं के पाठक बन जाइए, फ़िर आने लगेगा।

- नीरज मठपाल
मार्च १५, २००८

1 टिप्पणी:

  1. इसे पढ़कर मुझे ग्रहशोभा वगैरह की याद तो नहीं आई मगर हाँ ओ हेनरी की कहानी The Gift of the Magi की याद ज़रूर आ गई।
    शुभम।

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