गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

रंग

सामने का वह हरा चीड़ का पेड़
रानीखेत का जंगल दिखाता है।
देवदारू का झुरमुट
आल्मा हाउस का वृक्ष नजर आता है,
आपनी छाया में जैसे
मुझी को समेट लेना चाहता है पागल।

सूरज झाँक रहा है
उस मकान की तिरछी छत से
उसके ओज को निहारूं
तो हिमालय पर उसकी पड़ती किरणें
अपने आगोश में लेती हैं।

छोटे से पौधे को देखूं तो
बच्चों की किलकारी सुनाई पड़ती है,
लाल रंग के पत्तों में
गेरू से लीपी ड्योढी नजर आती है।
मन के कागज पर जैसे
उसके सफ़ेद एपण एक चित्र खींचते हों।

आगे बढूँ तो वो पीला फूल
स्वेटर पर एक पीला रूमाल लगा देता है।
लाल रंग की ईजा की बुनी हुई टोपी
ख़ुद ही सिर पर बैठती है,
मैं फ़िर से चौथी कक्षा में पहुँच जाता हूँ।

अपने बस्ते को पीठ पर लगाकर
मस्ती में गुनगुनाता हूँ -
" संगठन गढे चलो, सुपंथ पर बढे चलो
भला हो जिसमें देश का, वो काम सब किए चलो"

चलते चलते पत्थर पर ठोकर मारूं
तो धप की आवाज
पिड्डू की याद दिलाती है।
गोधूली की यह बेला
सन् छियासी की सफ़ेद गाय का दूध पिलाती है,
धीरे धीरे काला होता यह आकाश
शान्ति द्वार में प्रविष्ट कराता है।

घड़ी की सुईयां जैसे
उल्टी चल रही हों
बताने के लिए कि कोई रंग नहीं बदला
इन्द्रधनुष आज भी सतरंगी है।
तेरे मन की फुलवारी
आज भी बहुरंगी है।

फ़िर स्वयं ही रोकता हूँ
घड़ी के इन काँटों को,
कि काँटों!
सतत बहना ही
तुम्हारा है कर्म।
रंगों को मन में बसाकर
और रंग फैलाना ही है
जीवन का मर्म।

मन है
रंगों से सरोबार इस दुनिया की
हवाओं में मैं हवा हो जाऊं।
कुछ रंगों की सुनूँ,
कुछ रंगों की सुनाऊँ।

हाथ में फ़िर पैंसिल है
उकेर दूँ कुछ और अक्षरों को
अक्षरों की दुनिया भी तो बहुरंगी है।

हरित स्यामल रंग को
उज्जवल मन में बसाते रहिये,
रंग बिरंगे इस जीवन को
और रंगीन बनाते रहिये।

- नीरज मठपाल
अप्रैल १०, २००८

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