एक कर्मचारी के घर से बाहर कदम चलते हैं,
कार्यालय के प्रवेश द्वार को सहसा देखते हैं,
देखते हैं कि आज भी वही रोजमर्रा का काम निपटाना है,
लकड़ी की उसी कुर्सी पर रोज की तरह जीवन का भोग लगाना है।
दिन ढलने पर वही कदम घर की तरफ़ बढ़ते हैं,
कार्यालय के प्रवेश द्वार को सहसा निकास मार्ग सा देखते हैं,
देखते हैं कि आज भी घर में खा पीकर बीवी बच्चों पर रौब जमाना है,
लकड़ी की उसी खाट पर रोज की तरह बिना सपनों की नींद लिये सो जाना है।
- नीरज मठपाल
नवम्बर २१, २००८
वर्तमान की वह पगडंडी जो इस देहरी तक आती थी.....
1 वर्ष पहले
bina sapno kee neend kismat walon ko miltee hai dear...
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