गुरुवार, 10 मई 2007

एक दोपहर

आज पहाड़ों की एक दोपहर की सैर की जाये। उसमें भी अगर महीना जनवरी का हो तो कहना ही क्या। पहाड़ों का मतलब माउन्ट एवरेस्ट या नंदा देवी सरीखी पर्वत चोटियों से न निकालें। हम तो उन शांत पहाड़ी इलाक़ों की बात कर रहे हैं जहाँ ज़िन्दगी की रफ़्तार कुछ कम सी होती है, जहाँ किसी इलाके के लोग एक दूसरे से अजनबी नहीं होते बल्कि एक घुले मिले समाज का हिस्सा होते हैं, जहाँ लोगों में एक अनूठा अपनापन होता है।

तो चलते है उत्तराखंड के इन पहाड़ों में।

जाड़े के इस मौसम में सूर्य ही सबसे बड़े देवता हैं। जिस दिन वो अपनी प्रखर चमक लिये धरती की सेवा में हाजिर हो गए तो मानो जैसे पहाड़ियों का तो बसंतोत्सव आ गया। आज भी ऐसा ही एक दिन है। सुबह जब ९ बजे के आसपास दूर आकाश से आती गुनगुनी धूप का अहसास हुआ, तभी लगा कि शरीर में प्राण पूरी तरह से आ गए हैं। जैसे सिकुड़ी हुई हड्डियों को थोड़ा ताकत मिल गयी हो। आनन फानन मे पूरे पड़ौस के गद्दे और रजाईयां भी धूप में सूखने के लिए बाहर आ गए। पिछले कई दिनों से जो घरेलू काम अधूरे से पड़े थे, पलक झपकते ही आज फ़टाफ़ट होने लगे। इसी सब आपाधापी में दोपहर का एक बज गया।

अब ज्यादातर औरतें और बच्चे बाहर चटाईयां बिछाकर बैठे हुए थे। परुली की ईजा सूपा लेकर गेहूँ बीन रही थी। बाकी सभी औरतों की अंतहीन गप्पें शुरू हो गयी थी।

कुछ लोग हरया के बौज्यू की दुकान के बाहर सुबह से ही बैठे हुए थे और बीड़ी के धुएं के बीच सारे देश कि समस्याओं पर बहस कर रहे थे। इन लोगों की फसक का कोई ओर छोर तो होता नहीं है, फिर भी यही उनकी रोज की दिनचर्या का हिस्सा था।

कुछ बच्चे एक लकड़ी के फट्टे और प्लास्टिक की गेंद से बैट बाल खेल रहे थे। बातें उनकी ऎसी जैसे की बड़े होकर सभी ‘सेंचुरी’ मारने वाले बनेंगे।

इसी सुहावने दिन में कहीं से एक आवाज सुनाई दी – “चादर वाला.......”। धीरे धीरे आवाज तेज होती गयी। थोड़ी देर में एक चादर वाला अपनी पोटली खोले बैठा था और सारी औरतें उसे घेरे हुए थी। कोई खड़े होकर चादरों को फैला फैलाकर देख रही थी तो कोई बैठकर ही उनमें कमियाँ निकाल रही थी। खरीदना किसी ने कुछ नहीं था, पर मोल भाव पूरे जोरों पर था। आख़िर में एक गिलास पानी पीकर चादर वाला औरतों के अगले समूह की खोज में आगे बढ़ गया।

इसी बीच रधुली की ईजा ख़ूब सारे माल्टे (संतरे कि तरह का एक फल) ले आयी। नमक मिर्च लगाकर माल्टे खाना शुरू ही किया था कि पता चला कि सुरया की आमाँ के यहाँ नींबू सन रहा है। ये वो छोटे वाले नींबू नही होते, ये बड़े से नीम्बू होते हैं, जिन्हें छीलकर दही और गुड़ या चीनी के साथ साना जाता है। साथ में थोड़ा पिसी हुई भांग, थोड़ा मूली या केले मिला दो तो कहने ही क्या। जब नींबू सनकर तैयार हो गया तो थोड़ा थोड़ा वो सब लोगों में बाँटा गया। सभी इस नींबू की सुबह से प्रतीक्षा में थे क्योंकि ये तो निश्चित ही था कि किसी ना किसी के यहाँ आज नींबू जरूर सनेगा।

जब सभी चटखारे लेकर खा ही रहे थे तो कहीं से दो आवाजें सुनायी दी – “साड़ी वाला .......”... “चूड़ी – बिंदी वाला .......”। कोई आश्चर्य नहीं कि साड़ी वाले की परिणति वही हुई जो चादर वाले की हुई थी। लेकिन चूड़ी – बिंदी वाला खाली हाथ नहीं गया। कुछ लाल पीला सामान वो सस्ते दामों में उस समूह के सुपुर्द कर गया।

अब चार बज चुका था और सूरज भी ढलने लगा था। सभी लोगों ने अपनी अपनी चटाईयां समेटनी शुरू कर दी। धीरे धीरे सभी अपने घरों को खिसकने लगे। सभी के मन में यही प्रार्थना थी कि ऎसी दोपहर कल फिर आये।

अब मैं भी खिसकता हूँ। मेरी भी यही प्रार्थना है कि ऎसी दोपहर कभी कभी आती रहे।

- नीरज मठपाल
मई १०, २००७

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