बुधवार, 23 मई 2007

लघु कहानी

अलि के आगमन से प्रफुल्लित पुष्प ने बसंत की मन्द-मन्द प्रवाहित होती वायु को रोककर पूछा, "मलयांचल से आते हुए क्या तूने राह में किसी मेघ को प्राची की ओर जाते देखा है?"

असमंजस में पड़कर अलि (भ्रमर) ने पुष्प से तथ्य को स्पष्ट करने का निवेदन किया। तब पुष्प व्यथित होकर बताने लगा, "जो मेघ अभी यहाँ से गुजरा है, वह पृथ्वी से आ रहा था। वहाँ प्रकृति मनुष्य के आतंक से असहाय होकर अपने अन्तिम दिनों को गिन रही है। दूषित वायु और जल पृथ्वी को अधिक समय तक रहने नहीं देंगे। विषैले रसायनों से भरे उस काले मेघ को मैंने अभी अभी यहाँ से गुजरते हुए देखा है। यदि वह प्राची की ओर चला गया, तो वहाँ के मनोरम पर्वतों से टकराकर अपने अन्दर का सारा जहर बिखेर देगा, और तब यह देवस्थली भी स्थान-स्थान पर कराहती नजर आयेगी।”

पुष्प की बातें सुनकर भ्रमर को मधु का स्वाद कसैला सा प्रतीत हुआ। वह वायु से बोला, “हे मलयपवनों! मुझे तीव्रता से बहाकर उन शक्तिसंपन्न देवों के पास ले चलो, जिन्होंने अपने पराक्रम, ज्ञान एवं विवेक से कई राक्षसों, दैत्यों का अभिमान चूर किया है। मैं उनसे मानवों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करूंगा।”

वायु जाते जाते पृथ्वी में ईश्वर-मनुष्य के संबंध में बताने लगी, “वहाँ इतने ईश्वर हैं कि स्वयम् ईश्वर भी नहीं समझ पाता कि अपने पास मनुष्यों का ही खाता रखे या फिर धरती के ईश्वरों के लिए भी बड़े-बड़े खाते बनाए। अतः ईश्वर ने भी मनुष्यों को धरती के अनेकों स्वनामधन्य ईश्वरों के हाथों में छोड़ दिया है और वह भी परम शक्ति से प्रार्थना कर रहा है कि अपनी इस अनुपम कृति को शीघ्रातिशीघ्र मिटा दे।”

इस वार्त्तालाप के अन्तिम चरण में तीनों प्रतिभागियों ने कालिमायुक्त मेघ को पुनः पृथ्वी की ओर जाते हुए देखा। मेघ के स्वर में एक गर्जना थी।

- नीरज मठपाल
फरवरी १३, २००४

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