शुक्रवार, 18 मई 2007

ऐसे ही


इन्सान का दिमाग भी बड़े जोर की चीज है। पता नहीं क्या – क्या सोचता है। बच्चों की खुरापाती सोचों से लेकर युवाओं के दिवा स्वप्नों तक, अधेड़ लोगों की व्यवहारिक सोचों से लेकर वृद्धों की दार्शनिक सोचों तक अति विस्तृत क्षेत्र इसमें समाहित हो जाता है।

अभी इस लिखते हुए अपनी तरह के अजूबे नमूने को ही लो। पिछले एक घंटे में दस अलग अलग चीजें सोच चुका है। सामने काफी का कप रखा है, उसमें थोडी सी काफी बची है। पता नहीं इन्सान को काफी के पौधे को पीने वाली काफी में तब्दील करने में कितने साल लगे होंगे। गजब ही ठैरे हमारे पूर्वज भी। मीठी, खट्टी, कड़वी, नमकीन जिस भी चीज को जैसे भी खाने का जुगाड़ बना सके, बना लिया।

वो ज़रा दूर देखो - चिडियों का एक समूह आकाश में उड़ रहा है। पर ये मौन क्यों है? इतने बड़े समूह का शांत रहना थोड़ा दुर्लभ तो है, पर फिर भी इसकी औरतों के एक शांत बैठे समूह की दुर्लभता से तुलना तो नहीं ही की जा सकने वाली ठैरी।

वो वहाँ पर एक कुर्सी रखी है चार टांगों पर खड़ी। उसी के बगल में पहियों वाली कुर्सी भी इतराते हुए शांत पड़ी है। दो चार पहिये लगा दिए उस कुर्सी को तो इसमें इतराने की बात क्या है? पर उसे समझाये कौन? निर्जीव वस्तुओं को बोलना भी तो नहीं आने वाला ठैरा।

अगर आपको ऊपर प्रयुक्त शब्द “ठैरा” का मतलब समझ नहीं आ रहा ठैरा, तो पूछना मत कि “ठैरा, ठैरा क्या ठैरा”। ये हम पहाडियों का “ट्रेड मार्क” है। इसके सर्वाधिकार पहाडियों के नाम बाबा आदम के ज़माने में ही सुरक्षित हो चुके हैं।

इन सब बातों का तात्पर्य यही है कि दिमाग भी कैसी छोटी से छोटी, फिजूल से फिजूल और बड़ी से बड़ी, उपयोगी से उपयोगी बातें और विचार सोच लेता है। अगर ये दिमाग सामने आकर खड़ा हो जाये, तो इसे एक चांटा लगाकर बोलूं कि धन्य हो प्रभु, आप धन्य हो। चांटा इसलिये कि दिमाग के भाव ज्यादा ना बढ़ जायें।

खैर, मजाक की बात अलग है, पर यह जरूर कहूँगा कि इस दिमाग को रोटी पानी देते रहिए। दिमाग खुश रहेगा तो आप खुश रहेंगे। बाकी गप शप फिर कभी। मैंने अब खाना भी तो पकाना ठैरा।

- नीरज मठपाल

मई १८, २००७

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