सोमवार, 14 अप्रैल 2008

घास

विटप ऊँचे दृष्टित होते रहे
सन्निकट ही झाड़ सी फैलती घास
अदृश्य मौन रंजना सी

इसलिए क्या कि वो अपने आप ही उग आयी
और अपने कद को ऊँचा भी न कर सकी
इसलिए क्या कि उसका हरा रंग क्षणिक है
और जैसे मटमैली हो जाना उसकी नियति

जल प्रकाश का ऐसा अभाव
क्यों ये दुर्दैव
कि योग्यतम की उत्तरजीविता का डार्विनवाद
उसी पर लागू हो

रचने की मीमांसा का अर्थ समझा
एक तिनका सहेज कर उस घास से
अब वो तिनका भी प्रवाहित हो गया
प्राण वायु के वेग में

इस व्याकुलता में कोई कौतुहल नहीं
अब जड़ भी तो जंगम नहीं
अंतर्नाद में अंतर्द्वन्द्व
घास की यह तो परिभाषा नहीं

- नीरज मठपाल
अप्रैल १४, २००८

2 टिप्‍पणियां:

  1. बंद करने को था आपका ब्लोग जब इस कविता पर नज़र पढ़ी। कविता अच्छी लगी बहुत। गलत नहीं होगा यदि कहूँ कि आपसे आशाएँ बन गयीं हैं कुछ। आपका ब्लोग देखकर लगा जैसे आप निर्जन में एकांतवास कर रहे हैं। अपने ब्लोग्स को कुछ एग्रीगेटर्स में पंजीक्रत करायें जिससे कि लोगों को आपको ढूँढने में सुविधा हो। और हाँ वर्ड-वेरिफ़िकेशन हटा लें। हिंदी ब्लोग-जगत में अभी स्पैम का ख़तरा नहीं है। इससे आपको मिलने वाली टिप्प्णियाँ सीधे-सीधे प्रभावित होती हैं।

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