सोमवार, 30 अप्रैल 2007

लम्बू मोटू - भाग १


( प्राक्कथन - इस घटना के सभी पात्र काल्पनिक हैं। यदि कोई पात्र यथार्थ से मिलता जुलता है, तो इसे संयोग मात्र समझें।)

सन १९८३ की बात है। तब चम्बल के बीहड़ इलाक़ों मे ठाकुर विजय पाए सींग का राज चला करता था। पुलिस ठाकुर के नाम से थर थर कांपा करती थी। जब कोई बच्चा रोता था तो माँ बच्चे से कहती थी - "बेटा सो जा वरना ठाकुर आ जायेगा"। ये बड़े ही दुखों के दिन थे।

ऐसे मे झाँसी और पिथौरागढ़ की वीर भूमियों पर दो महापुरुषों ने जन्म लिया। बादल इस ख़ुशी में ख़ूब बरसे। हाथियों ने खुश होकर अंडे दिए और जिराफों ने अपनी ऊंची ऊंची गर्दनें मटकायी। पूरे संसार मे रौनक सी आ गयी।

दोनों ही बच्चे बड़े होने लगे। एक पहाड़ों की पथरीली जमीनों में 'स्कूल' से 'बंक' मारकर पिक्चर हॉल जाता था, तो दूसरा झाँसी के टीलों में छिपकर ठाकुर कि हवेली में चलती हुई नौटंकी देखा करता था। ' बालीवुड' दोनों का कैरियर बरबाद करने में तुला था। दोनों में एक बात और 'कॉमन' थी। दोनों छोटे बच्चों की एक पत्रिका 'लोटपोट' के बहुत बड़े फैन थे। तब शायद इन्हें यह पता नहीं था कि एक दिन इन दोनों की जोड़ी "लम्बू - मोटू" के नाम से विश्व विख्यात होने वाली है।

खैर दोनों बड़े होते हैं। इसमें कोई खास बात नहीं क्योंकि बड़ा तो सबको होना ही पड़ता है। पर उनमें से एक सात फ़ीट की लम्बाई को पार कर जाता है तो दूसरे के भार को तोलने के लिए १८० किलोग्राम के पलड़े भी कम पड़ते हैं।

भाग्य की विडम्बना देखिए कि आज ये दोनों 'साफ्टवेयर लाइन' में काम करते हैं और ठाकुर राजधानी दिल्ली में आज भी मजे से आज़ाद घूम रहा है। हल्द्वानी की बड़ी - बड़ी नहरों का पानी तो आज भी नहीं सूखा है, पर फिर भी न जाने कौन सी क़सम है कि आज लम्बू - मोटू मौन हैं।

(ठाकुर कौन था और चम्बल से दिल्ली कैसे पहुँचा? क्यों लम्बू – मोटू ठाकुर को पकड़ नहीं पाए? लम्बू मोटू से कब मिलेगा? क्या ये ठाकुर का राज ख़त्म कर पायेंगे? अजूबे चरित्रों की इस कहानी का अगला भाग कभी और ..... )

- नीरज मठपाल
अप्रैल ३०, २००७

रविवार, 29 अप्रैल 2007

थोड़ा अनुमान लगायें


कुछ महीनों पहले तक नवीन (कोटी) और सुरेन्द्र (बच्चा) एक ही कम्पनी में काम करते थे। एक दिन दोनों किसी पिकनिक पार्टी में जाते हैं। एक फोटो के आधार पर लाटा टाइम्स पेश करता है उन दोनों के बीच हुई काल्पनिक बातचीत:-

बच्चा: अरे भुक्खड़! ज़रा आराम आराम से खा। कोई लेकर भागने वाला नहीं है तेरा खाना।
कोटी : यार जिन दिनों किस्मत खराब चल रही हो, उन दिनों करना पड़ता है। फिर तेरी प्लेट की इमरती पर भी तो नजर है। (हँसता है)

बच्चा: हाँ बेटा, क्यों नहीं। तेरे को तो मैं इमरती क्या, पूरा खाना ही खिलाऊंगा।
कोटी: अरे हद हो गयी, लंदन जाने वाला है। एक पार्टी देना तो दूर, तू तो एक इमरती भी खिलाने से मना कर रहा है। (मन ही मन में सोचता है - बच्चे से पार्टी लेना तो बहुत ही टफ काम है)

बच्चा: ठीक है भई। तू खुश रह। ये ले, मर (इमरती देता है)
कोटी (अपना सारा खाना चट करने के बाद) : वाह बच्चे, मजे आ गए।

बच्चा: सयाने, बच्चा होगा तू। तू अभी मेरी अल्मोड़ा स्पेशल चाल को नहीं जानता (हँसता है)। मैं जब किसी का काटता हूँ तो हवा को भी खबर नहीं होती।
कोटी (जोर से हंसते हुए): वो तो अब पूरी दिल्ली को पता है। लंदन वालों की भी किस्मत जल्दी फूटने वाली है।

बच्चा (शरमाते हुए टापिक बदलता है): डैड (जोशी) बड़ा चालू है यार। मेरी शर्ट मार के बंगलौर भाग गया।
कोटी: तेरी क़सम!!! तेरी तो शर्ट ही मारी। मेरी तो पैंट भी मार के ले गया है एक। एक सफ़ेद रंग का 'रूमाल' भी नहीं छोड़ा उसने। छोडूंगा नहीं उसको तो मैं।

बच्चा: पहले पकड़ तो सही। (हंसता है) वैसे मैं तो धपोला के यहाँ इस 'वीक एंड' जा रहा हूँ दो-चार चीजें मारने।
कोटी: ठीक है। तू ऐश कर। मुझे तो अपनी ड्यूटी बजानी है (उदास होने का दिखावा करता है)।

(दोनों खाने की दूसरी प्लेट लेने चले जाते हैं। लाटा टाइम्स की कल्पनाओं का तार भी टूट जाता है। कोशिश जारी रहेगी कि ये तार फिर से कभी 'कनेक्ट' हो)

- नीरज मठपाल
अप्रैल २९, २००७

अपाहिज


मौसम अभी खराब सा है। अत्यंत मद्धिम रोशनी में झूमर ख्यालों में आ जा रहा है। बाहर से आती हुई किसी समारोह की आवाजें कानों में दर्द सा कर रहीं हैं, लेकिन झूमर की ज़िन्दगी में इन आयोजनों का कोई लेना देना नहीं। उसके लिए मेहनत की दो वक़्त की सूखी रोटी भी पकवानों से बढ़कर है। फिर आँते भी वही खाना पचा पाती हैं, जिनसे उनका रोजाना का परिचय हो। गंदला पानी भी गंगा की निर्मल धारा बन जाता है यदि वह आत्म सुख देता हो। कोई कितनी आसानी से झूमर की स्थिति देख कर कह जाता है - " इस ज़िन्दगी से तो मौत अच्छी"। लेकिन झूमर को कोई शिक़ायत नहीं। वह अपने जीवन के सत्य को आत्मसात कर चुका है, मौत जैसी झूठी घटना पर उसे विश्वास ही नहीं। इसे ईश्वर प्रदत्त शक्ति ही कहिये या ज़िन्दगी ने ही झूमर को जड़ - चेतन में फर्क करना समझा दिया है।

* * * * *

पीलीभीत रेलवे स्टेशन पर सैकड़ों यात्री जमा हैं। कुछ अपनी गाड़ी के आने के इंतजार में पसीना बहा रहे हैं, तो कुछ अपने गंतव्य पर सही-सलामत पहुँचने की ख़ुशी में पसीना सुखा रहे हैं। उष्णता (गर्मी) तो वही है, बस स्थितियाँ ही पसीने के विभिन्न रूप दिखा रही हैं। हावड़ा एक्सप्रेस के 'स्लीपर क्लास' से उतरा एक संभ्रांत परिवार जैसे ही 'प्लेटफार्म' से बाहर खुली सड़क पर पहुँचता है, तो तीन चार बच्चों को अपनी ओर लपकते हुए पाता है। बच्चे आठ से बारह वर्ष के रहे होंगे। शरीर पर टंगी हुई फटी कमीजें और नीचे टल्ली लगे हुए नेकर। पाँवों के तलुए तो जल-जल कर ऐसे हो गए हैं कि उबलते पानी में डलवा लो, तो पानी ठंडा हो जाएगा। पेट जरूर सभी के ठीक से लग रहे थे, शायद भीख पर्याप्त मात्रा में मिल जाती होगी। बच्चे अब परिवार के सदस्यों को घेरकर अन्न याचना कर रहे हैं। महिला तो बस घृणाभाव से दूर हट जाती है, लेकिन उनके श्रीमान दो रूपये का सिक्का ज़रा दूर से ही फैंक देते हैं। वहीं एक कोने में झूमर नम आँखों से बैठा है।

* * * * *

झूमर से मेरा पहला और अन्तिम परिचय लखनऊ जाते समय ट्रेन में हुआ था। ट्रेन तब पीलीभीत से चलना शुरू ही हुई थी। एक असहाय सा दिखने वाला आदमी अपने घुटनों पर घिसटता हुआ आया। चेहरे पर दाढ़ी बेतरतीब ढंग से बढ़ी हुई और प्रश्न पूछती सी बड़ी बड़ी आँखें। उसके दो पाँव और एक हाथ बीते वर्षों कि तपिश मे कहीं लुप्त हो चुके थे। ज़िन्दगी की शायद इकलौती बची हुई पूंजी बाँयें हाथ में एक झाड़ू पकड़ा हुआ था। पता ही नहीं चला कब उसने फुर्ती से पूरा 'केबिन' साफ कर डाला। सफाई भी ऎसी कि क्या मजाल कोई खोट निकला जा सके। लेकिन ये सफाई तो मुझे उसके जाने के दस मिनट बाद दिखी। उसके करतब को देखकर तो मैं शब्दहीन हो गया था। उसने झाड़ू लगाने के बाद अपना हाथ एक बार मेरी तरफ बढ़ाया भी था। किन्तु मैं तो जड़वत था - मस्तिष्क से भी और शरीर से भी। उसकी जीवनी शक्ति मेरे लिए किसी परम शक्ति से कम नहीं थी। अनायास ही मुझे उसमें स्टीफ़न हाकिंग का कुछ अंश भी दर्शित हुआ था। लांस आर्मस्ट्रांग की साईकिल के पहिये भी दौड़ते नजर आये थे उन आँखों में। हर व्यक्ति का अपना अलग 'प्लेटफार्म' था, पर सभी की जिजीविषा शक्ति 'अनुकरणीय'।


जब इन ख्यालों की तन्द्रा टूटी, तो मैं उसके पीछे भागा। वह एक दूसरे केबिन में अपने काम में व्यस्त था। बस मैं उसके काम को अपलक निहारता ही चला गया। मेरे लिए उस समय वही मानव शक्ति का सर्वोच्च प्रतीक था। अगले ही स्टेशन पर वह मेरी आँखों से ओझल हो गया। साथ में दे गया एक अनकहा संदेश।

* * * * *

अभी दरवाजे पर किसी ने खटखटाया तो ध्यान आया की बारिश बंद हो चुकी है। जब इस पृष्ठ को फिर से पढ़ा तो लगा कि झूमर का मेरे जीवन मे प्रवेश हो चुका है। शायद प्रवेश तो उसी ट्रेन में हो चुका था, पर झूमर नाम तो उसे आज ही मिला है। झूमर अपाहिज नहीं है। अपाहिज शरीर नहीं, अपाहिज तो सोच होती है। झूमर की सोच अपाहिज नहीं।


- नीरज मठपाल
मई ३, २००३

बुधवार, 25 अप्रैल 2007

प्राकृतिक दृश्य


बात उस जमाने की है जब डब्बू की ‘हाइट’ साढ़े तीन फ़ीट के आस पास हुआ करती होगी। यकीन से तो नहीं कहा जा सकता, पर फिर भी वो पैन – पेंसिल अच्छी खासी चलाने लगे थे। उन्हीं दिनों एक शब्द ने उनकी ज़िन्दगी में हलचल मचाना शुरू किया – ‘कला’ यानी की ‘आर्ट’। ज्यादा कुछ तो नहीं पर आम, केला, चार रंगों का गोला ही उनके लिए 'आर्ट' था। जैसे इन्हीं तीन चार ‘ड्राइंग्स’ में पूरा कला संसार निपट जाता हो। वो भी उनके लिए ‘आर्ट’ कम, एक बड़ा ‘बवाल’ ज्यादा था।

ऐसे में एक दिन एक विपत्ति सामने आ खड़ी हुई। उन्हें ‘होम वर्क’ के तौर पर ‘प्राकृतिक दृश्य’ बनाने के लिए दे दिया गया। जिस मासूम के लिए प्राकृतिक और कृत्रिम वस्तुओं में अंतर करना ही कठिन हो, उसके लिए एक पूरा दृश्य रंगों से उकेर देना किसी नए तारे की खोज करने के ही समान था।

ये कला भी बड़ी ही विचित्र चीज है। सब कहते थे, “ कला तो एक खेल की तरह है – मानव की रचनात्मक और मौलिक प्रतिभा का आईना। ना जाने आज तक कला की पूजा – भक्ति में कितने जीवन समर्पित हो चुके हैं। एक सामान्य मजदूर और किसान से लेकर बड़े से बड़े नेता और धनी लोग विभिन्न कलाओं का प्रयोग एवं प्रदर्शन करते आये हैं। जीवन के हर क्षेत्र में कला विद्यमान है”।

पर कब्र का हाल तो मुर्दा ही जानता है और ये सब बड़ी बड़ी बातें डब्बू के लिए एक कोरा एवं अर्थहीन ज्ञान था। उस मासूम बचपन के लिए तो टेढ़ी मेढ़ी ‘ड्राइंग्स’ ही ‘आर्ट’ थी। वो तो बस किसी तरह ‘प्राकृतिक दृश्य’ की पहेली को समझने का प्रयत्न कर रहा था। ऐसे में जैसे ही संकट-मोचक को याद किया तो माँ स्वयम् कला की साक्षात् देवी बनकर सामने बैठी हुई दिखी। माँ के केवल चार शब्दों ने सारी प्राकृतिक अदृश्यता को उसके लिए पूर्णतः दृश्य बना दिया –

१ - पर्वत (या पहाड़)
२ - नदी (या तालाब)
३ - सूरज (या चन्द्रमा)
४ - पेड़ – पौधे

लगा कि जैसे सारी प्रकृति माँ के हाथों में सिमट आयी हो। हाथों में हाथ रखे पेंसिल ने चलना शुरू किया। थोड़ी ही देर में पन्ने पर कई सारे रंग फैले हुए थे। प्रकृति पूरे श्रृंगार के साथ कागज के उस पतले आयताकार पन्ने पर विराजमान थी। उसका मनोहारी रूप मन पर अंकित हो चुका था। कला की परिभाषा सार्थक एवं स्पष्टतः परिलक्षित हो चुकी थी।

आज जब भी प्रकृति को उसके जीवंत रुप में महसूस करता हूँ तो पास में ही कहीं वो पन्ना भी अपना प्रकाश फैलाता दिखाई देता है, मानो पन्ने से सारे रंग उड़कर पूरी पृथ्वी में फ़ैल गए हों।
- नीरज मठपाल
अप्रैल २५, २००७

सोमवार, 23 अप्रैल 2007

सागर


कभी शांत पानी का विशाल ढेर। कभी उछलती लहरों का प्रतीक। बचपन से ही किस्से – कहानियों में, टीवी के परदे पर और फोटो में अथाह सागर और उसकी लहरें एक आकर्षण का केंद्र रही थी। भारत के दक्षिणी प्रायद्वीप के समुद्र तटीय भाग से साक्षात्कार आंख मिचौली खेलता रहा। मुम्बई, गोवा, पांडिचेरी, विशाखापत्तनम, कन्याकुमारी के समुद्र तट यथार्थ होते हुए भी कल्पना ही बने रहे। समय पंख लगाकर धीरे धीरे उड़ता रहा। जब पहली बार अपने को सागर के सामने पाया, तो अटलांटिक महासागर कि लहरें अट्टाहास करती मिली। सुन्दरता ऎसी कि एक तरफ मैं प्रकृति के इस रहस्य को समझने का प्रयत्न कर रहा था, वहीं कुछ ही दूर मानव मस्तिष्क की विजय का प्रतीक गगनचुम्बी इमारतें जैसे प्रकृति के सम्मान में खड़ी हो गयी हों। सागर और आकाश में इस बात के लिए मौन होड़ लगी थी कि जीवन मे किसका नीला रंग ज्यादा गहरा हैं। मैं अवाक् सा भूमि पर खड़ा गदगद मन और शून्य दिमाग से इस त्रिवेणी संगम को नीहार रहा था। धरती, आकाश और समुद्र के इस मिलन का साक्षात् गवाह ही मूक था। तभी हवा का एक झोंका मेरे बालों को आँखों पर ले आया। त्रिकोण का चौथा कोण 'वायु' स्पष्टतः इस खेल को और रोचक बनाने लगा। बालमन हुआ कि गीली रेत को हाथों में लेकर उससे खेलता रहूँ। एक पतंग हाथ में लेकर इधर से उधर दौड़ता रहूँ। अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ ख़ुशी से चिल्लाता रहूँ। इन्हीं सब ख्यालों के बीच जब दूर क्षितिज पर निगाह गई, तो देखा कि सूर्य की लालिमा ढलने को थी। इस ढलती लालिमा ने जैसे मेरे शरीर के पंच तत्त्वों को मेरे सामने सजाकर रख दिया हो। ये शाम मेरे लिए आत्म – साक्षात्कार की शाम थी। समुद्र दर्शन ने मुझे एक पूर्णता सी प्रदान कर दी थी। मेरे कदम मानव निर्मित इमारतों की तरफ बढ़ने लगे। चेहरे पर एक कोमल मुस्कान तैरती रही। आज लगभग दस महीने बाद यह लिखते समय चेहरे पर फिर एक कोमल मुस्कान है।

- नीरज मठपाल
अप्रैल २३, २००७

जोशी जी - एक बातचीत


मनोज जोशी यूँ तो २८ वर्ष के हैं, लेकिन आज भी उनमें २० वर्ष के युवा की तरह जोश बरकरार है। वे भारत की एक बड़ी साफ्टवेयर कम्पनी मे ' कन्सल्टैंट ' हैं। आजकल वे काम के सिलसिले में सिंगापुर में हैं। लाटा टाइम्स ने उनसे गूगल टाक पर बात की। पेश हैं इस बातचीत के मुख्य अंश -

लाटा - जोशी जी नमस्कार

मनोज - नमस्कार

लाटा - आपको अपने बारे में एक ' लाइन' कहनी हो तो क्या कहेंगे?

मनोज - आदमी मुसाफिर है , आता है जाता है। यही सच है।

लाटा - आज आप एक कामयाब इन्सान हैं। आप अब तक के अपने जीवन को सफल कहेंगे?

मनोज - सफल भी और नहीं भी। सफल इसलिये कि कमजोर तबके से 'कम्पेयर' करें तो 'लाइफ' अच्छी लगेगी और मजबूत तबके से 'कम्पेयर' करें तो खराब।

लाटा - देश से बाहर सिंगापुर में आपका सबसे अच्छा अनुभव क्या रहा?

मनोज - (कुछ सोचकर) हम दूसरे देश को महान नहीं कहते चाहे हम यहाँ कितने भी 'सेफ' हों, कितनी ही 'फैसिलिटी' हों क्योंकि हमें कहीं न कहीं अपने देश और अपने दोस्त याद आते हैं। हम असल में देश को नहीं, अपने दोस्तों और 'फैमिली' को 'मिस' करते हैं। इसलिये हमें कभी विदेश अच्छा लग ही नहीं सकता। चाहे हम इंडिया जाकर दोस्तों से कई समय तक न मिल पायें, फिर भी विदेश जाकर उन्हें ज्यादा 'मिस' करते हैं।

लाटा - तो आपके लिए दोस्ती के क्या मायने हैं?

मनोज - सभी 'सैलफिश' होते हैं। ठीक भी है। दोस्तों के बीच हम कई बातें 'शेयर' कर सकते हैं। हँस सकते हैं। रो सकते हैं। किसी की भी , कितनी भी जला सकते हैं। जब मर्जी तब ग़ुस्सा हो सकते हैं। ये सब 'फैसिलिटी' एक साथ कहाँ मिलेगी (जोर जोर से हँसते हुए), बात में दम है कि नहीं।

लाटा - बिल्कुल, बहुत दम है। बीच में आपके 'अफेयर' की चर्चाएँ गरम थी। आप 'लव' और 'अफेयर' के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?

मनोज - देखो 'लव' किस चिड़िया का नाम है, ये हमें नहीं पता। हाँ हम इस उम्र में होने वाले आकर्षण का शिकार जरूर हुए, पर सिंगापुर आने के बाद हमें सच्चाई पता चल गई। बाकी आप खुद समझदार हैं।

लाटा - आप इंडिया आकर सबसे पहले क्या करना चाहेंगे?

मनोज - दिल्ली जाकर दोस्तों से मिलना चाहेंगे और साथ बैठकर 'दारू' पीना चाहेंगे।

लाटा - परिवार कि आपके जीवन में क्या अहमियत है?

मनोज - बहुत ज्यादा। माता, पिता, भाई, बहिन, रिश्तेदार और भरोसे के दोस्त परिवार में आते हैं। भरोसे का मतलब पैसा कतई नहीं है। भरोसा एक सोच है जो अपने आप पैदा होती है। शायद माया के जाल में हर आदमी की एक सोच पैदा होती है।

लाटा- आप अपनी 'प्रोफेशनल लाइफ' के अनुभवो के बारे में संक्षेप में कुछ बताना चाहेंगे?

मनोज - देखो भाई, एक सच्ची बात तो ये है कि जुगाड़ ही सबसे बड़ा 'टूल' है। जुगाड़ ही सब चीजों का बाप है। इसके लिए शुक्ला जैसे बातूनी, लाटे जैसे चतुर और परवाल की तरह 'प्रायोरिटी' पता होनी चाहिऐ। बुद्धि का प्रयोग एक प्रतिशत से ज्यादा नहीं।

लाटा - आप लाटा टाइम्स के पाठकों के लिए कुछ कहना चाहेंगे?

मनोज - इसको पढ़ते रहिए और लाटे को अपना सहयोग दीजिए।

लाटा - धन्यवाद, हम आपके सफल जीवन की कामना करते हैं।


(अमेरिका से नीरज मठपाल, अप्रैल २३, २००७)

रविवार, 22 अप्रैल 2007

राकेश की शादी - बारात डांस


आज ऐसे ही ख़्याल आया कि दोस्तों के शानदार हाल समाचारों और कर्मों का वर्णन किया जाये। वैसे भी यही लोग मेरे लिखे हुए के इकलौते पाठक रहे हैं। गलती इनकी नहीं है। जब विकल्प ही नहीं हो कहीं भागने का, तो ये लोग कर भी क्या सकते हैं। फिलहाल मैं ज्यादा भूमिका ना बांधते हुए उद्देश्य की तरफ बढ़ता हूँ। गप-शप और चर्चाओं का केंद्र चीन-ओ-मंगोलियन नरेश राकेश चंद्र सिंह परवाल की शादी रही। आप उनका प्रसन्न चेहरा तो देख ही रहे हैं। जब शाहजहाँ की शादी हुई होगी, तब वो भी इतना खुश नहीं हुआ होगा। लेकिन मेरा मित्र समाज इस बात से ज्यादा खुश रहता है कि उन्हें जमकर नाचने का मौका मिलेगा। किसी घरेती कि मजाल कि वो हम लोगों के डांस की तारीफ करे बिना रुखसत हो जाये। अजी शराबी तो शराबी, सुबह - शाम पहाड़ी ठंड में पैकेट के दूध की चाय पीने वाले भी ' प्रोफेशनल डांसर्स ' को मात देते नजर आते हैं। दूल्हे को सजाने में उतना टाइम नहीं लगता जितनी ये बारातियों कि अलबेली टोली एक दूसरे को सजाने में लगा देती है। बस शराब और सजने सजाने का ऐसा संगम हुआ कि वर को भी खफा होना पड़ा - दिखावे का ही। पर जब ये बाराती भांड नाचने लगते हैं, तो बस तन मन सब रम जाता है ' डांस ' में। पर इस बात कि कोई ' गारंटी ' नहीं कि दो घंटे के बाद किसे कहाँ ढूँढने जाना पड़ेगा। खैर इस बार भी बारात नाची और ख़ूब नाची। राकेश की इस विजय पर सारा मित्र समाज उन्हें बधाईयाँ देता है एवं उनके कुशल वैवाहिक जीवन की कामना करता है।
लेखक - अमेरिका से एक भांड, जो केवल मन से ही इस शादी में शामिल हो सका।
पुनःश्च : दोस्तों, ये लेखन अब जारी रहेगा। कुछ भी, कैसा भी।

पत्र

मेरे कदम स्वतः प्रतिदिन
उस पत्रपेटी की तरफ बढ़ते हैं।
स्वतः ही आँखें उन कागजों में
मेरा नाम खोजने लगती हैं।
हाथ वहाँ कुछ न पाकर
स्वतः ही हृदय को वहीं रोक देता है।
धन्यवाद मेरी चिर साथी मस्तिष्क कोशिकाओं का
जो स्वतः ही सब सामान्य कर देती हैं।
अंतर्मन से जुड़े तार
स्वतः ही कभी न पहुँचने वाले
उस पत्र के भाव पढ़ लेते हैं।

... Nice body coordination :-)

- नीरज मठपाल
जनवरी २००५

सीमा

सुरक्षा का भाव देती
जालियों की घेराबंदी
सुरक्षा किससे
और किसलिये।
बचना उनसे जो
लोभ पिपासु होकर
दूसरों के दुःख में
अपनी ख़ुशी ढूँढते हैं।
आख़िर इस असीम क्षेत्र में
सीमाओं की
क्या सचमुच आवश्यकता थी?

- नीरज मठपाल
फरवरी २०, २००५

प्रीत

आगे बढ़ा चुके हैं कदम,
इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि अपनी प्रीत को कम कर दें हम।
इससे तो मैं प्रीत का नाम ही न लूँ।
भले खामोश हो जाये मेरी प्रीत।
जो रहे, वही प्रीत।

- नीरज मठपाल
जून ११, २००६

दीक्षा

अवरोध - प्रतिरोध सब दृश्य हो चला,
मन का प्रतिरोध अदृश्य हो चला,
मन का अवरोध क्षीण हो चला,
आत्म - अवरोध शून्य है
मस्तिष्क तब भी मौन है।
जाने किस अवरोध की प्रतीक्षा है,
क्या मन - आत्म - मस्तिष्क को
मिल रही ये कोई मूक दीक्षा है।

- नीरज मठपाल
जून ११, २००६

शनिवार, 21 अप्रैल 2007

मौन के क्षण

ब्रह्म का छद्म
या छद्म ब्रह्म का
अनंत आकाश का छोर
या भ्रम आकाश के होने का
शून्य में विलीन होने का गणित
या बीज जन्म कि माया का
सब कुछ अघोषित, सुपोषित,
निर्देशित
किन्तु
अपलक, अघटित
विलीनता
तन्मय सन्नाटे में।

- नीरज मठपाल
अप्रैल १२, २००३

त्रिगुण दशा

भ्रमर गुंजन वाटिका मे गूंजता
किस पुष्प का ले वो मधुरस
सोचकर व्यर्थ, बारम्बार तम में झूलता।
तम राज की कैसी ये विशेषता
उन्माद नहीं, प्रमाद नहीं, फिर भी
बढती ही जा रही, सुप्त आत्म की विवशता।

बन्धन विषय का हो, हो कितनी सरसता
मोह – श्रृंगार के रज काल में
मंद होती जा रही, उच्च शक्ति की तीव्रता।
रज राज की ये अनोखी सजगता
वेग – आवेग, मति – मन को हर
मचलती ही जा रही, उग्र हृदय कि उग्रता।

कर्म महारथी हो, हो सत् की अमोघता
ज्ञान, बुद्धि, सदाचार, धैर्य से
महकती ही जा रही, वन-वाटिका की निर्मलता।
सत् राज की अदृश्य क्यों ये मधुरता
रज – तम के द्वितीय खेल में
मौन क्यों सत् – प्रथम, ये बाण मन को बेधता।

- नीरज मठपाल
फरवरी ०३, २००७

आवाज़

आवाज़
क्या सिर्फ़ एक आवाज़ भर
केवल एक शब्द
जैसे वैज्ञानिक शब्द ध्वनि
और उसका समस्त विज्ञान।
क्यों वो आवाज़ बीच – बीच में
अलग सुनाई देती है।
सिर्फ इसीलिये कि वह
वो आवाज़ नही
जो हमारे कान सुनना चाहते हैं।
ये वो बातें नही
जो हमारा मन सुनना चाहता है।
क्यों नियंत्रण
वो भी पर-ध्वनि पर
पर-सोच पर।
संभव भी नहीं कि
श्रोत और श्रोता समान सोचें।
पर तब क्या जब
श्रोत और श्रोता एक ही हों।
भिन्न स्थान – विमाओं मे होते हुए भी
कैसे अलग अस्तित्व को स्वीकार करें।
ये भी तो संभव नहीं।

- नीरज मठपाल
जुलाई, २००६

अपने हृदय के प्रति - [१]

महीनों हो गए जब सलीकों को निगलते,
आँखों के काले धब्बों ने
दिखाया कि वो अब भी नहीं।
हलक मॆं कुछ चुभा सा,
सलीकों के साथ सुईयां भी,
कदाचित कदमों का एहसास तो
सुई सा नहीं था।
पर आवाज़ से लगा कि गई,
वो गई हृदय को बेंधने
पर हुआ क्या?
लगा कि गल गई वो
राह कि गर्मी से।
चुभन कि प्रवृत्ति ही नहीं,
वेदना का कैसा ये लोहा
जो शिराओं में ही पिघल गया।
निलय की डोरों का कैसा ये जाल
जो थामे ना रख सका मेरे ही निलय को।
इसे हार कहूँ मैं या कहूँ व्यर्थ उदगार
हृदय तूने कैसा लिया ये प्रतिकार
हृदय तूने क्यों दिया ये निराला उपहार।

- नीरज मठपाल
नवंबर २१, २००५

अपने हृदय के प्रति -[२]

कल रात तुम्हें सपने में देखा
सुबह उठा तो सपने की याद कायम थी।
मन में तुम्हारी ही यादें थी
दिल को बस तुम्हारा ही ख़याल था।
खुशकिस्मती ये कि
' मोबाइल ' में ' टाक टाइम ' खतम था
कदमों को ' एस.टी.डी. ' की तरफ बढ़ना तो था,
पर मैंने उन्हें भी रोक लिया।
आख़िर यही तो अवसर मिला
जब मैंने दिन तुम्हारे नाम करना था।
अब आधी रात होने को है,
दिल को अब भी तुम्हारा ही ख़याल है।
ये रात भी तुम्हारे ही ख़याल की,
और आने वाला दिन भी तुम्हारे ही ख़याल का।
ये ख़याल कुछ तुम्हारा है,
कुछ हमारे प्यार का है।
तुम्हारा चेहरा किसी दूसरी तरफ देख रहा है,
बीच बीच में आँखें मुड़ रही हैं मेरी तरफ।
पर फिर दूसरी तरफ,
क्या है जो अपलक मिलन को रोक रहा है।
मैं एकटक देख रहा हूँ,
उन आँखों को, उस चेहरे को
जो मुझे इतना प्यार करते हैं।
उन आँखों कि बेकरारी समझ तो रहे हैं,
कभी मूक रहकर, कभी कुछ कहकर-
कुछ इधर-उधर कि बातें कर,
बस किसी तरह मनोद्गारों को रोका है।
मैं-तू कुछ नहीं, हम हैं –
इस मूक संलग्न अस्तित्व में।

- नीरज मठपाल
अप्रैल, २००६

दुविधा

सत्य की बलिवेदी पर
मोहपाश रिश्तों का
आत्म – सम्मान की कब्र पर
अभिलाषा सुख की
भुख़मरी के मुहाने पर
मेज पर सजे छत्तीस व्यंजन
शेयर बाजार में
भारतीय युवाओं के ख़ून पर
खिलखिलाती
विदेशी कम्पनियाँ।
ये वह देश तो नहीं
जहाँ मैं प्राणवायु चाहता था।
मुझे तो चाहिए थी
करोड़ों भारतीयों की छोटी सी मुस्कान।
पर मुस्कान कि लाश पर
चंद भारतीय मक्खियां भिनभिना रही हैं।
लाश भी
अब स्वाद देने लगी हैं।
जो दे मुझे सकून
वह स्वाद कहाँ से लाऊँ।
कर्त्तव्यपथ को सही रूप में
कैसे देखूँ और दिखाऊँ।

- नीरज मठपाल
अगस्त २६, २००३

छाया

छाया – प्रतिछाया का खेल चलता रहा
गरीब कि छाया
समझ ना सकी
कब उसे मिटा दिया गया
वह तो काले धुँधलके को ही
छाया समझकर
तपिश में
घिसती रही
इस उम्मीद में कि
बच्ची को
एक अदद कपड़ा तो मिल जाएगा
लेकिन
कपड़ा तो तार – तार हो चुका है
गरीब के कपड़े को भी
छाया समझकर मिटा दिया गया
बच्ची
छाया के ऊपर बैठकर
सिसकती रही
छाया के पास
कफ़न का कपड़ा तक ना था।
छाया – प्रतिछाया का खेल चलता रहा।


- नीरज मठपाल
अगस्त २५, २००३

विषाद का प्रसाद

आँखों मे सूखी नमी, क्या नजर नहीं आती।
चेहरे पे झूठी मुस्कराहट, यूँ ही दब नहीं जाती।
हृदय में छिपा दर्द, ठंड से अकड़ नहीं जाता।
जब दिमाग हो बेकाबू, यहाँ रहा नहीं जाता।

ज्ञान तो है, ध्यान भी, कर्म करा नहीं जाता।
मन है शंकित – भ्रमित, हाथ हिल नहीं पाता।
आलसी जीवन है मोहयुक्त, पाँव जम से जाते।
जब दिमाग हो बेकाबू, हम चल नही पाते।

बस कुछ है मन में, जिसने शरीर को तपा रखा है।
इस जलती हुई दुनिया में, अस्तित्व को बचा रखा है।
मन के इसी शीतल नीर ने, हमको जगा रखा है।
कुछ न करकर भी, सत् के दुश्मनों को दबा रखा है।

ऊपर, ऊपर और ऊपर, आसमा को छूने की ललक है।
खुद को ही नहीं पता, कि धड़कन कब तलक है।
आसमा तो है आँखों मे क़ैद, और खुली अभी भी पलक है।
हृदय में है दृढ़ विश्वास, सूखा हुआ चाहे हलक है।

- नीरज मठपाल
फरवरी २२, २००३

मुस्कान का दर्द

विचार दौड़ नहीं रहे अभी
आ भी नहीं रहे
न तो सु और न ही कु
विचारों में भी तड़पन।

शायद मौसम ही कुछ ऐसा है
या कुछ गड़बड़
शायद आराम की आवश्यकता।
लेकिन
ये आवश्यकता
तो अनंत पर्वत हो रही है।

क्या कभी
प्रारम्भ पुनः होगा
या यूँ ही
विलय हो जायेगी
वह मुस्कान
वह सच्ची मुस्कान
भीतर से;

क्या कभी कोई किसी से
अंतर्मन से मुस्कुराने को कह सकेगा …
मेरी तरह
या
मौन …


- नीरज मठपाल
जुलाई १०, २००२

ताश और हम

ताश सा सफ़र
प्रारम्भ कुछ क्षणों के लिए
अंत अनिद्रा के साथ।

ताशों सा बिखरना
बिखरकर फिर जुड़ने की मुश्किलें
जुड़कर भी अंजाम का भय।

ताशों की तड़पन
कभी हारकर
तो कभी जीतकर
कभी कुछ पाकर
तो कभी कुछ खोकर।

ताशों की एकता
गुलाम, बेगम, बादशाह, दुग्गी
सभी एक खाड़ में।

ताशों मे भेदभाव
कोई अमीर तो कोई गरीब।
नहल के ऊपर दहला
बेगम के ऊपर बादशाह।

ताशों का जीवन चक्र
कितना अजीब, कितना सुन्दर।
या कितना कुपित,
कितना वीभत्स।


- नीरज मठपाल
जुलाई १०, २००२

मध्यमार्गी

रात्रि के इस अन्तिम प्रहर में
या ब्रह्म मुहूर्त के प्रारब्ध मे
एक मध्यमार्गी।

सांत्वना और शांति के लिए
समझौतों से गुजरता हुआ
एक मध्यमार्गी।

अपनी पहचान को ढूँढता
अपने वजूद को टटोलता
एक मध्यमार्गी।

सघन विरलता से संतृप्त
विरल सघनता से प्रसन्न
एक मध्यमार्गी।

निम्न कर्मों को समेटे हुए
उच्च कर्मों की ओर लक्षित
एक मध्यमार्गी।

आडम्बर से छलित
सिद्धहस्तों से मतिभ्रमित
एक मध्यमार्गी।

मस्तिष्क नयनों पर
पत्थर रखे हुए दिग्भ्रमित
एक मध्यमार्गी।


- नीरज मठपाल
अक्टूबर १८, २००१

अनआन्सर्ड

जाना है बादलों के उस पार
दूर परछाई कि ओट में
उन रुई के फाहों के बीच
जहाँ सूर्य की किरणें हों।

छितरा – छितरा कर फैल जाये
उन फाहों का कतरा – कतरा।
इस क़दर कि हर कतरे में
नजर आने लगे
सूर्य की एक किरण।

वह किरण धरा पर जब
आकर गिरे तो
फैल जाये उसकी खुशबू
चारों तरफ़।
हाँ चारों तरफ, शरीर के
जर्रे जर्रे में।

किन्तु अब एहसास
अनेकता का होने लगा।
विरलता छा रही है
क्या फिर सघनता आयेगी?
नो रिप्लाई!


- नीरज मठपाल
फरवरी, २०००

नींद के झोंके के बीच

नींद के झोंके के बीच
जब पलकें झपका लेता हूँ।
तभी उठती है
एक हूक सी दिमाग में

यादें झिझोड़ देती हैं मन को।
वो पुरानी स्वप्निल यादें।
गुरुजनों की, अनुजों की
अग्रजों की, दोस्तों की वो
आशाएं
जो शायद आज
निराशाओं मे तब्दील हो चुकी हैं।

इन निराशाओं से पार पाने को
जहाज तो है;
पर जहाज मे न ईधन है,
न पतवार है, न पानी है,
न इंजन है,
बस यात्री है और जहाज कि लकड़ी है।

लेकिन सोचता हूँ जाड़े के
इस मौसम में कम से कम
लकड़ी तो है
उनका क्या …
जिनके पास दियासलाई तक नहीं।

अब इस लकड़ी से अपने उत्थान का सामान
तैयार करना है।
फ़िलहाल अलविदा
कह दूँ …… इस नींद के झोंके के बीच।


- नीरज मठपाल
दिसंबर ३१, १९९९

जानते हो क्यों?

तुम्हें देखा तो दिल कराह उठा …
जानते हो क्यों?
तुम्हारा उधार जो चुकाना था।

तुमसे नजरें मिली तो बैठी रह गई …
जानते हो क्यों?
उधार चुकाने को पैसे जो नहीं थे।

तुमसे हाथ मिलाया तो धड़कनें बढ़ गई …
जानते हो क्यों?
तुम्हारी नजरें मेरी एच.एम.टी. पर जो थी।

तुमसे बोलना चाहा तो जबान फिसल पड़ी …
जानते हो क्यों?
गले में थूक जो अटक गया था।

तुम्हारे पंजे कि छुअन को हटाना चाहा …
जानते हो क्यों?
साँसे अपने अंत की ओर जो जा रही थी।

आँखों में पानी, श्वास में श्वास अटक गया …
जानते हो क्यों?
क्योंकि हम जो गरीब थे, तुम जो अमीर।


- नीरज मठपाल
अगस्त १२, १९९९

ये कैसा हृदय

यदि मैं एक प्रसन्न हृदय होता;
तो हृदय से बाहर ही होता।

भावनाएं जीवन कि कटु सत्य हैं;
या हैं एक मधुर असत्य।
हृदय का फैसला
हृदय के ही पक्ष में।

अवरोध
एक निकम्मी मजबूत दीवार;
दीवारें जो ढह ना सकी
युग सूचक के ढहने पर भी।

प्रेरणा थी मृतप्राय
श्वासें कहा गयी वो …
भोजन – नलिका के कोपभाजन
से त्रस्त
दीवारें सुस्ताना चाहें –
पर चाह अमिट क्यों?

क्या राख्न भी नसीब ना थी
उस हृदय के लिए;
शायद वो हृदय ही नही था।


- नीरज मठपाल
अक्टूबर १७, २००१

चौथा किनारा

तीन किनारे
पहला-दूसरा एक तरफ
पहले में डूबकर
दूसरे का साथ दे।
जो बच निकले, या यूँ कहिये
कि है जो अतिरिक्त
वही तीसरा किनारा
सह-अस्तित्व का प्रश्न नहीं
ये तो दो छोर ही हैं
और नौका से आना-जाना ही है
पर इन तीन किनारों के ऊपर
अपना प्रिय चौथा किनारा।
बन जाये यदि यही छत
तो आंच न आये
किसी भी किनारे पर।
इस चौथे किनारे की चाहत
धुन बनकर यदि छा जाये
तो आकाश में
प्यारे बादल होंगे
सूरज की छटा भी होगी
और छोटी छोटी पानी की बूँदें भी।
देव-गीत, ऋचाओं का मंगल स्वर होगा – और होगी
कल्पतरू की शीतल छाँव।
सब चौथे किनारे पर
पुष्प वर्षा के लिए।
अब यही किनारा देखता है हृदय,
अब यही किनारा चाहता है हृदय।

- नीरज मठपाल
जून १५, २००६

मैं वही हूँ

मैं वही हूँ
हाँ वही तो हूँ
बस कुछ भूल सा गया था
शायद कहीं खो गया था
या फिर राह में चलते – चलते
सो सा गया था।
अभी झटके से नींद खुली
तो तपन का एहसास हुआ
इस शरीर में ठंड का ही असर था
सो तपन महसूस कर
ठंडक सी मिली
लगा कि
हाँ मैं वही हूँ
वही जो अपने में विश्वास करता है –
विश्वास …. असीम अनंत।
वही जो सबसे मजबूत है
पूरे तीन सौ साठ अंश तक।
सच ….. आज मैं बहुत खुश हूँ।
क्योंकि यही काफी है मेरे लिए
कि
मैं वही हूँ।

- नीरज मठपाल
अप्रैल ४, २००३

अश्वमेध

सूर्य था गतिमान
चन्द्र भी गतिमान
चल पड़े कदम मेरे भी
मैंने भी होना था गतिमान।

सूर्य की तपन
चन्द्र की शीतलता
दोनों जैसे ही मिले मुझको
मैंने भी होना था गतिमान।

किरणों ने ना मोड़े कदम
चांदनी ने कहाँ जाना था थम
सामने थे कुछ नए प्रतिमान
मैंने भी होना था गतिमान।

- नीरज मठपाल
अप्रैल २०, २००४

मैं चलता जाता हूँ

परिंदों के कलरव से बेखबर
अनजानी कृत्रिम हवाओं के साथ
ये वृक्ष इधर उधर झूलते हैं।

पानी का ये सुन्दर ढ़ेर
वैभव की ये ऊँची इमारतें
कुछ पाने की ये निरर्थक दौड़ देखकर
आँखों में लाल डोरे पड़ते हैं।

छलकी हुई चाँदनी में
चतुर्थी के इस छोटे चाँद की
मद्धिम रोशनाई में
सडकों पर फैले कृत्रिम प्रकाश के साथ
कई वहां दौड़ते हैं।

उन बेमानी सडकों पर
दौड़ते धुऐं के साथ
जब छाया भी धुंधली हो जाती है।
इस ध्वनिरहित प्रवाह में
विचारों के रौंदे हुए जल से
जब छीटें उड़ते हैं।

बंद होती बुझी आँखें भी
जब शांति पाती नहीं दिखती हैं।
झाँक लेता हूँ अपने अन्दर भी
और उसी दौड़ का एक हिस्सा पाता हूँ।

तब भी जब दौड़ रूकती नहीं दिखती
टेढ़ी पूँछ वाला एक कुत्ता पाता हूँ।
अपनी दुम को टाँगों में दबाये
उसे चुपचाप दौड़ते पाता हूँ।
तीक्ष्ण क्रन्दन कि कोई आवाज नहीं
बिना चाह के उसे हड्डी तोड़ते पाता हूँ।

हर सुबह यही क्रम
फिर निर्मित होते पाता हूँ।
इसी दौड़ में
अपने को खोता हुआ पाता हूँ।
फिर भी मैं चलता जाता हूँ,
इसी राह को राह बनाकर
मुस्कराते हुए चलता जाता हूँ।

कलरव सुनाई देने लगता है
मधुर हवाएँ बहने लगती हैं
ये वृक्ष अब रूक जाते हैं।
और मैं चलता जाता हूँ
राह इसी तरफ पाता हूँ
मैं राह इसी तरफ पाता हूँ।


- नीरज मठपाल
फरवरी २०, २००५

सपने के बाद

दिनों बाद ऐसे अचानक उठकर
क्यों फिर सोने का मन करता है
क्यों फिर आलस में डूब जाने को मन करता है
क्यों फिर मन डरता है
क्यों फिर पढ़ने का मन नहीं करता है
क्या था वो बैठा हुआ शेर एक
क्या थे वो भागते हुई चीते दो
क्यों था मैं उन्ही की तरफ भागकर निकलता
क्यों था वो एक ही रास्ता
फिर क्यों था मैं चिल्लाया
फिर क्यों थे वो मुझे रहे देखते
क्यों कहा नानी ने आया क्या ऐसे
न आता तो क्या था
क्या दूँ मैं ऐसे उठकर उत्तर
क्यों था न मैं थोड़ा और सोया हुआ
क्यों था न मैं थोड़ा और डरा हुआ
क्यों था ये रात का सफ़र
क्यों था ये रात का अन्तिम प्रहर
क्यों दी उस मुर्गे ने बाँग
क्यों थी वो घुटनभरी गर्मी
क्यों हूँ मैं ऐसे बैठा हुआ
डरा, सहमा कुछ लिखता हुआ
किस तरफ कर रहा ये इशारा
क्यों नहीं दिख रहा अब भी किनारा
क्यों है ये निरंतर उठाता हुआ धुआँ
क्यों नहीं मन करता उत्तर खोजने को
क्यों कर रहा मन फिर सोने को
… और मैंने मन की बात मन ली।


- नीरज मठपाल
जनवरी, २००५

गुरुवार, 12 अप्रैल 2007

प्रश्न चक्र

चार दीवारें खड़ी हो गयी
ऊपर से टिन बिछ गया
एक दीवार में छेद कर
लकड़ी का फट्टा लगा दिया
चार पाँव अन्दर
बस बन गया एक घर।
समय बीता
कोपलें फूटी,
तेज हवा आई
कोपलें बह गई।
पतझड़ आया
चारों आँखें बंद हुई,
छत टूटी
फट्टे फट गए
घर बन गया खंडहर।
कमांडर की आवाज आई
जैसे … थे।
मैं हँसा
ऐसे ही तो थे।
पर पृथ्वी
क्या ऎसी ही थी?
उत्तर
कोलाहल में कहीं दब गया है।

- नीरज मठपाल
फरवरी ३, २००४

महानगर

एक मैली कमीज
हैंगर पर लटकी पड़ी है
वेलवेट का जैकेट बगल में
चमचमा रहा है।
ठिठुराने वाली ठंड में भी
बाहर की चमक ज्यादा जरूरी है।
अन्दर का मैल किसे नजर आता है,
गंगाजली रिन बार तो है ही
गर्मियाँ आते ही
कमीजें चमचमाने लगेंगी।
महानगरों में सब कुछ चमचमाता है
जो चमकता नहीं
वह दिखता भी नहीं,
न ड्राइवर को, न सरकार को
न कम्पनियों को और न डाक्टर को।
रोज ऐसे दस नजर आते हैं
जो जुगाड़ से एसी में खिल रहे होते हैं
और ऐसे हजार
जो मैली कमीज में पसीना-पसीना हो रहे होते हैं।
रिन की टिकिया भी
उनके पसीने में डूबती नजर आती है।
मेरे पास एक फार्मूला है – क्या कोई कम्पनी
चमकने वाला ‘ प्रोडक्ट ’ बनाएगी।
सैकड़ों आफर हजारों लोगों को लाखों का चूना लगाने को
उतावले हो रहे हैं।
भाई, एक मुझे भी देना
एक फैमिली पैक मुझे भी।

- नीरज मठपाल
फरवरी ३, २००४

द्वंद्व

एक अजनबी सी
कुछ जानी - पहचानी भीड़ में
खिलखिलाते अधरों और
निष्क्रिय मानसों के साथ
चेतन को जड़वत दृगों से
जागृत करने का द्वंद्व।
संघनित रेखाओं के मध्य
विश्वास से परिपूर्ण
समय पर धमनियों को मिलाती
शांत एवं धीर
एकांत रेखा को पाने का द्वंद्व।
सीमाओं को असीम
अनुभव की गहराइयों के साथ
छोटे से प्रांगण में
असीम बनने की प्रसन्नता,
इन प्रसन्न मुद्राओं में
वास्तविक प्रसन्नता परखने का द्वंद्व।
सर्व द्वंद्वो – अंतर्द्वंद्वो पर
विजय पाने का द्वंद्व।
.........द्वंद्व जारी है।

- नीरज मठपाल
अगस्त २५, २००४

रेखा युद्ध

टूटती रेखाएँ
बिखरती – बिगडती रेखाएँ
बुलबुलों सी फूटती रेखाएँ
रेखाओं के बीच घिरती रेखाएँ
गहन तमस में डूबती रेखाएँ
विचारों में उतरती रेखाएँ
चुप होने को विवश करती रेखाएँ
खामोश टूटन का इंतज़ार करती रेखाएँ
विश्वास को तोड़ती रेखाएँ
एकाएक अस्वीकार करने का
प्रयत्न करती लंबी – छोटी रेखाएँ
मन के बोझ को दर्शाती कई रेखाएँ
कुछ वक्रीय, कुछ सीधी रेखाएँ
हलचलों में फंसती रेखाएँ
संबंधों को हिलाती रेखाएँ
मरघट के सन्नाटे सुनाती रेखाएँ
मौत की आहटें सुनाती रेखाएँ
विश्वास की राख को
बेबसी से देखती रेखाएँ
च्च! क्या लिखा इन रेखाओं ने
न छ्पने को तैयार होती रेखाएँ।

इन रेखाओं में
एक रेखा छोटी सी
मन की रेखा।
चलती रही – निरंतर
लंबी रेखा के साथ
समानान्तर ही जन्मे हों जैसे।
हर अच्छाई को
लंबी की सेवा में
रहना था तत्पर
कद को स्वीकार न थी
कोई सीमा।
वहीं हर गलती के साथ
कद घटाती रही छोटी रेखा
सारी बुराईयाँ जो थी
उसके हिस्से।
चिल्लाहट होती –
चाहिये
एक नियंत्रित छोटी रेखा
अंकुश की फटकारों से
घायल रेखा
साँसों का भी आभास न देती
एक मौन रेखा
सहनशीलता की प्रतिमूर्ति
शांत बैरागी रेखा।

पर साथ तो आयी थी
जीवन को आसान बनाती
नित नया जोश जगाती रेखा
दुखों में सच का एहसास कराती
इंसानों को इन्सान बनाती रेखा
भावों को कोमल स्वर देकर
रिश्तों को मधुर बनाती रेखा
हर एक स्वर की
सुन्दर अनुगूंज सुनाती रेखा।
तो क्यों सीमा स्वीकार करे
यह चंचल, अलबेली रेखा।
असीम शून्य में उड़ने को तैयार
पंख फैलाये छोटी रेखा।

- नीरज मठपाल
मार्च १७ एवं १८, २००४