महीनों हो गए जब सलीकों को निगलते,
आँखों के काले धब्बों ने
दिखाया कि वो अब भी नहीं।
हलक मॆं कुछ चुभा सा,
सलीकों के साथ सुईयां भी,
कदाचित कदमों का एहसास तो
सुई सा नहीं था।
पर आवाज़ से लगा कि गई,
वो गई हृदय को बेंधने
पर हुआ क्या?
लगा कि गल गई वो
राह कि गर्मी से।
चुभन कि प्रवृत्ति ही नहीं,
वेदना का कैसा ये लोहा
जो शिराओं में ही पिघल गया।
निलय की डोरों का कैसा ये जाल
जो थामे ना रख सका मेरे ही निलय को।
इसे हार कहूँ मैं या कहूँ व्यर्थ उदगार
हृदय तूने कैसा लिया ये प्रतिकार
हृदय तूने क्यों दिया ये निराला उपहार।
- नीरज मठपाल
नवंबर २१, २००५
शनिवार, 21 अप्रैल 2007
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