नींद के झोंके के बीच
जब पलकें झपका लेता हूँ।
तभी उठती है
एक हूक सी दिमाग में
यादें झिझोड़ देती हैं मन को।
वो पुरानी स्वप्निल यादें।
गुरुजनों की, अनुजों की
अग्रजों की, दोस्तों की वो
आशाएं
जो शायद आज
निराशाओं मे तब्दील हो चुकी हैं।
इन निराशाओं से पार पाने को
जहाज तो है;
पर जहाज मे न ईधन है,
न पतवार है, न पानी है,
न इंजन है,
बस यात्री है और जहाज कि लकड़ी है।
लेकिन सोचता हूँ जाड़े के
इस मौसम में कम से कम
लकड़ी तो है
उनका क्या …
जिनके पास दियासलाई तक नहीं।
अब इस लकड़ी से अपने उत्थान का सामान
तैयार करना है।
फ़िलहाल अलविदा
कह दूँ …… इस नींद के झोंके के बीच।
- नीरज मठपाल
दिसंबर ३१, १९९९
शनिवार, 21 अप्रैल 2007
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