दिनों बाद ऐसे अचानक उठकर
क्यों फिर सोने का मन करता है
क्यों फिर आलस में डूब जाने को मन करता है
क्यों फिर मन डरता है
क्यों फिर पढ़ने का मन नहीं करता है
क्या था वो बैठा हुआ शेर एक
क्या थे वो भागते हुई चीते दो
क्यों था मैं उन्ही की तरफ भागकर निकलता
क्यों था वो एक ही रास्ता
फिर क्यों था मैं चिल्लाया
फिर क्यों थे वो मुझे रहे देखते
क्यों कहा नानी ने आया क्या ऐसे
न आता तो क्या था
क्या दूँ मैं ऐसे उठकर उत्तर
क्यों था न मैं थोड़ा और सोया हुआ
क्यों था न मैं थोड़ा और डरा हुआ
क्यों था ये रात का सफ़र
क्यों था ये रात का अन्तिम प्रहर
क्यों दी उस मुर्गे ने बाँग
क्यों थी वो घुटनभरी गर्मी
क्यों हूँ मैं ऐसे बैठा हुआ
डरा, सहमा कुछ लिखता हुआ
किस तरफ कर रहा ये इशारा
क्यों नहीं दिख रहा अब भी किनारा
क्यों है ये निरंतर उठाता हुआ धुआँ
क्यों नहीं मन करता उत्तर खोजने को
क्यों कर रहा मन फिर सोने को
… और मैंने मन की बात मन ली।
- नीरज मठपाल
जनवरी, २००५
शनिवार, 21 अप्रैल 2007
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