गुरुवार, 12 अप्रैल 2007

रेखा युद्ध

टूटती रेखाएँ
बिखरती – बिगडती रेखाएँ
बुलबुलों सी फूटती रेखाएँ
रेखाओं के बीच घिरती रेखाएँ
गहन तमस में डूबती रेखाएँ
विचारों में उतरती रेखाएँ
चुप होने को विवश करती रेखाएँ
खामोश टूटन का इंतज़ार करती रेखाएँ
विश्वास को तोड़ती रेखाएँ
एकाएक अस्वीकार करने का
प्रयत्न करती लंबी – छोटी रेखाएँ
मन के बोझ को दर्शाती कई रेखाएँ
कुछ वक्रीय, कुछ सीधी रेखाएँ
हलचलों में फंसती रेखाएँ
संबंधों को हिलाती रेखाएँ
मरघट के सन्नाटे सुनाती रेखाएँ
मौत की आहटें सुनाती रेखाएँ
विश्वास की राख को
बेबसी से देखती रेखाएँ
च्च! क्या लिखा इन रेखाओं ने
न छ्पने को तैयार होती रेखाएँ।

इन रेखाओं में
एक रेखा छोटी सी
मन की रेखा।
चलती रही – निरंतर
लंबी रेखा के साथ
समानान्तर ही जन्मे हों जैसे।
हर अच्छाई को
लंबी की सेवा में
रहना था तत्पर
कद को स्वीकार न थी
कोई सीमा।
वहीं हर गलती के साथ
कद घटाती रही छोटी रेखा
सारी बुराईयाँ जो थी
उसके हिस्से।
चिल्लाहट होती –
चाहिये
एक नियंत्रित छोटी रेखा
अंकुश की फटकारों से
घायल रेखा
साँसों का भी आभास न देती
एक मौन रेखा
सहनशीलता की प्रतिमूर्ति
शांत बैरागी रेखा।

पर साथ तो आयी थी
जीवन को आसान बनाती
नित नया जोश जगाती रेखा
दुखों में सच का एहसास कराती
इंसानों को इन्सान बनाती रेखा
भावों को कोमल स्वर देकर
रिश्तों को मधुर बनाती रेखा
हर एक स्वर की
सुन्दर अनुगूंज सुनाती रेखा।
तो क्यों सीमा स्वीकार करे
यह चंचल, अलबेली रेखा।
असीम शून्य में उड़ने को तैयार
पंख फैलाये छोटी रेखा।

- नीरज मठपाल
मार्च १७ एवं १८, २००४

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