शनिवार, 21 अप्रैल 2007

अनआन्सर्ड

जाना है बादलों के उस पार
दूर परछाई कि ओट में
उन रुई के फाहों के बीच
जहाँ सूर्य की किरणें हों।

छितरा – छितरा कर फैल जाये
उन फाहों का कतरा – कतरा।
इस क़दर कि हर कतरे में
नजर आने लगे
सूर्य की एक किरण।

वह किरण धरा पर जब
आकर गिरे तो
फैल जाये उसकी खुशबू
चारों तरफ़।
हाँ चारों तरफ, शरीर के
जर्रे जर्रे में।

किन्तु अब एहसास
अनेकता का होने लगा।
विरलता छा रही है
क्या फिर सघनता आयेगी?
नो रिप्लाई!


- नीरज मठपाल
फरवरी, २०००

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें