विचार दौड़ नहीं रहे अभी
आ भी नहीं रहे
न तो सु और न ही कु
विचारों में भी तड़पन।
शायद मौसम ही कुछ ऐसा है
या कुछ गड़बड़
शायद आराम की आवश्यकता।
लेकिन
ये आवश्यकता
तो अनंत पर्वत हो रही है।
क्या कभी
प्रारम्भ पुनः होगा
या यूँ ही
विलय हो जायेगी
वह मुस्कान
वह सच्ची मुस्कान
भीतर से;
क्या कभी कोई किसी से
अंतर्मन से मुस्कुराने को कह सकेगा …
मेरी तरह
या
मौन …
- नीरज मठपाल
जुलाई १०, २००२
शनिवार, 21 अप्रैल 2007
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