शनिवार, 21 अप्रैल 2007

ताश और हम

ताश सा सफ़र
प्रारम्भ कुछ क्षणों के लिए
अंत अनिद्रा के साथ।

ताशों सा बिखरना
बिखरकर फिर जुड़ने की मुश्किलें
जुड़कर भी अंजाम का भय।

ताशों की तड़पन
कभी हारकर
तो कभी जीतकर
कभी कुछ पाकर
तो कभी कुछ खोकर।

ताशों की एकता
गुलाम, बेगम, बादशाह, दुग्गी
सभी एक खाड़ में।

ताशों मे भेदभाव
कोई अमीर तो कोई गरीब।
नहल के ऊपर दहला
बेगम के ऊपर बादशाह।

ताशों का जीवन चक्र
कितना अजीब, कितना सुन्दर।
या कितना कुपित,
कितना वीभत्स।


- नीरज मठपाल
जुलाई १०, २००२

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