शनिवार, 21 अप्रैल 2007

अपने हृदय के प्रति -[२]

कल रात तुम्हें सपने में देखा
सुबह उठा तो सपने की याद कायम थी।
मन में तुम्हारी ही यादें थी
दिल को बस तुम्हारा ही ख़याल था।
खुशकिस्मती ये कि
' मोबाइल ' में ' टाक टाइम ' खतम था
कदमों को ' एस.टी.डी. ' की तरफ बढ़ना तो था,
पर मैंने उन्हें भी रोक लिया।
आख़िर यही तो अवसर मिला
जब मैंने दिन तुम्हारे नाम करना था।
अब आधी रात होने को है,
दिल को अब भी तुम्हारा ही ख़याल है।
ये रात भी तुम्हारे ही ख़याल की,
और आने वाला दिन भी तुम्हारे ही ख़याल का।
ये ख़याल कुछ तुम्हारा है,
कुछ हमारे प्यार का है।
तुम्हारा चेहरा किसी दूसरी तरफ देख रहा है,
बीच बीच में आँखें मुड़ रही हैं मेरी तरफ।
पर फिर दूसरी तरफ,
क्या है जो अपलक मिलन को रोक रहा है।
मैं एकटक देख रहा हूँ,
उन आँखों को, उस चेहरे को
जो मुझे इतना प्यार करते हैं।
उन आँखों कि बेकरारी समझ तो रहे हैं,
कभी मूक रहकर, कभी कुछ कहकर-
कुछ इधर-उधर कि बातें कर,
बस किसी तरह मनोद्गारों को रोका है।
मैं-तू कुछ नहीं, हम हैं –
इस मूक संलग्न अस्तित्व में।

- नीरज मठपाल
अप्रैल, २००६

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