रविवार, 29 अप्रैल 2007

अपाहिज


मौसम अभी खराब सा है। अत्यंत मद्धिम रोशनी में झूमर ख्यालों में आ जा रहा है। बाहर से आती हुई किसी समारोह की आवाजें कानों में दर्द सा कर रहीं हैं, लेकिन झूमर की ज़िन्दगी में इन आयोजनों का कोई लेना देना नहीं। उसके लिए मेहनत की दो वक़्त की सूखी रोटी भी पकवानों से बढ़कर है। फिर आँते भी वही खाना पचा पाती हैं, जिनसे उनका रोजाना का परिचय हो। गंदला पानी भी गंगा की निर्मल धारा बन जाता है यदि वह आत्म सुख देता हो। कोई कितनी आसानी से झूमर की स्थिति देख कर कह जाता है - " इस ज़िन्दगी से तो मौत अच्छी"। लेकिन झूमर को कोई शिक़ायत नहीं। वह अपने जीवन के सत्य को आत्मसात कर चुका है, मौत जैसी झूठी घटना पर उसे विश्वास ही नहीं। इसे ईश्वर प्रदत्त शक्ति ही कहिये या ज़िन्दगी ने ही झूमर को जड़ - चेतन में फर्क करना समझा दिया है।

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पीलीभीत रेलवे स्टेशन पर सैकड़ों यात्री जमा हैं। कुछ अपनी गाड़ी के आने के इंतजार में पसीना बहा रहे हैं, तो कुछ अपने गंतव्य पर सही-सलामत पहुँचने की ख़ुशी में पसीना सुखा रहे हैं। उष्णता (गर्मी) तो वही है, बस स्थितियाँ ही पसीने के विभिन्न रूप दिखा रही हैं। हावड़ा एक्सप्रेस के 'स्लीपर क्लास' से उतरा एक संभ्रांत परिवार जैसे ही 'प्लेटफार्म' से बाहर खुली सड़क पर पहुँचता है, तो तीन चार बच्चों को अपनी ओर लपकते हुए पाता है। बच्चे आठ से बारह वर्ष के रहे होंगे। शरीर पर टंगी हुई फटी कमीजें और नीचे टल्ली लगे हुए नेकर। पाँवों के तलुए तो जल-जल कर ऐसे हो गए हैं कि उबलते पानी में डलवा लो, तो पानी ठंडा हो जाएगा। पेट जरूर सभी के ठीक से लग रहे थे, शायद भीख पर्याप्त मात्रा में मिल जाती होगी। बच्चे अब परिवार के सदस्यों को घेरकर अन्न याचना कर रहे हैं। महिला तो बस घृणाभाव से दूर हट जाती है, लेकिन उनके श्रीमान दो रूपये का सिक्का ज़रा दूर से ही फैंक देते हैं। वहीं एक कोने में झूमर नम आँखों से बैठा है।

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झूमर से मेरा पहला और अन्तिम परिचय लखनऊ जाते समय ट्रेन में हुआ था। ट्रेन तब पीलीभीत से चलना शुरू ही हुई थी। एक असहाय सा दिखने वाला आदमी अपने घुटनों पर घिसटता हुआ आया। चेहरे पर दाढ़ी बेतरतीब ढंग से बढ़ी हुई और प्रश्न पूछती सी बड़ी बड़ी आँखें। उसके दो पाँव और एक हाथ बीते वर्षों कि तपिश मे कहीं लुप्त हो चुके थे। ज़िन्दगी की शायद इकलौती बची हुई पूंजी बाँयें हाथ में एक झाड़ू पकड़ा हुआ था। पता ही नहीं चला कब उसने फुर्ती से पूरा 'केबिन' साफ कर डाला। सफाई भी ऎसी कि क्या मजाल कोई खोट निकला जा सके। लेकिन ये सफाई तो मुझे उसके जाने के दस मिनट बाद दिखी। उसके करतब को देखकर तो मैं शब्दहीन हो गया था। उसने झाड़ू लगाने के बाद अपना हाथ एक बार मेरी तरफ बढ़ाया भी था। किन्तु मैं तो जड़वत था - मस्तिष्क से भी और शरीर से भी। उसकी जीवनी शक्ति मेरे लिए किसी परम शक्ति से कम नहीं थी। अनायास ही मुझे उसमें स्टीफ़न हाकिंग का कुछ अंश भी दर्शित हुआ था। लांस आर्मस्ट्रांग की साईकिल के पहिये भी दौड़ते नजर आये थे उन आँखों में। हर व्यक्ति का अपना अलग 'प्लेटफार्म' था, पर सभी की जिजीविषा शक्ति 'अनुकरणीय'।


जब इन ख्यालों की तन्द्रा टूटी, तो मैं उसके पीछे भागा। वह एक दूसरे केबिन में अपने काम में व्यस्त था। बस मैं उसके काम को अपलक निहारता ही चला गया। मेरे लिए उस समय वही मानव शक्ति का सर्वोच्च प्रतीक था। अगले ही स्टेशन पर वह मेरी आँखों से ओझल हो गया। साथ में दे गया एक अनकहा संदेश।

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अभी दरवाजे पर किसी ने खटखटाया तो ध्यान आया की बारिश बंद हो चुकी है। जब इस पृष्ठ को फिर से पढ़ा तो लगा कि झूमर का मेरे जीवन मे प्रवेश हो चुका है। शायद प्रवेश तो उसी ट्रेन में हो चुका था, पर झूमर नाम तो उसे आज ही मिला है। झूमर अपाहिज नहीं है। अपाहिज शरीर नहीं, अपाहिज तो सोच होती है। झूमर की सोच अपाहिज नहीं।


- नीरज मठपाल
मई ३, २००३

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