सोमवार, 23 अप्रैल 2007

सागर


कभी शांत पानी का विशाल ढेर। कभी उछलती लहरों का प्रतीक। बचपन से ही किस्से – कहानियों में, टीवी के परदे पर और फोटो में अथाह सागर और उसकी लहरें एक आकर्षण का केंद्र रही थी। भारत के दक्षिणी प्रायद्वीप के समुद्र तटीय भाग से साक्षात्कार आंख मिचौली खेलता रहा। मुम्बई, गोवा, पांडिचेरी, विशाखापत्तनम, कन्याकुमारी के समुद्र तट यथार्थ होते हुए भी कल्पना ही बने रहे। समय पंख लगाकर धीरे धीरे उड़ता रहा। जब पहली बार अपने को सागर के सामने पाया, तो अटलांटिक महासागर कि लहरें अट्टाहास करती मिली। सुन्दरता ऎसी कि एक तरफ मैं प्रकृति के इस रहस्य को समझने का प्रयत्न कर रहा था, वहीं कुछ ही दूर मानव मस्तिष्क की विजय का प्रतीक गगनचुम्बी इमारतें जैसे प्रकृति के सम्मान में खड़ी हो गयी हों। सागर और आकाश में इस बात के लिए मौन होड़ लगी थी कि जीवन मे किसका नीला रंग ज्यादा गहरा हैं। मैं अवाक् सा भूमि पर खड़ा गदगद मन और शून्य दिमाग से इस त्रिवेणी संगम को नीहार रहा था। धरती, आकाश और समुद्र के इस मिलन का साक्षात् गवाह ही मूक था। तभी हवा का एक झोंका मेरे बालों को आँखों पर ले आया। त्रिकोण का चौथा कोण 'वायु' स्पष्टतः इस खेल को और रोचक बनाने लगा। बालमन हुआ कि गीली रेत को हाथों में लेकर उससे खेलता रहूँ। एक पतंग हाथ में लेकर इधर से उधर दौड़ता रहूँ। अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ ख़ुशी से चिल्लाता रहूँ। इन्हीं सब ख्यालों के बीच जब दूर क्षितिज पर निगाह गई, तो देखा कि सूर्य की लालिमा ढलने को थी। इस ढलती लालिमा ने जैसे मेरे शरीर के पंच तत्त्वों को मेरे सामने सजाकर रख दिया हो। ये शाम मेरे लिए आत्म – साक्षात्कार की शाम थी। समुद्र दर्शन ने मुझे एक पूर्णता सी प्रदान कर दी थी। मेरे कदम मानव निर्मित इमारतों की तरफ बढ़ने लगे। चेहरे पर एक कोमल मुस्कान तैरती रही। आज लगभग दस महीने बाद यह लिखते समय चेहरे पर फिर एक कोमल मुस्कान है।

- नीरज मठपाल
अप्रैल २३, २००७

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