शनिवार, 21 अप्रैल 2007

मैं चलता जाता हूँ

परिंदों के कलरव से बेखबर
अनजानी कृत्रिम हवाओं के साथ
ये वृक्ष इधर उधर झूलते हैं।

पानी का ये सुन्दर ढ़ेर
वैभव की ये ऊँची इमारतें
कुछ पाने की ये निरर्थक दौड़ देखकर
आँखों में लाल डोरे पड़ते हैं।

छलकी हुई चाँदनी में
चतुर्थी के इस छोटे चाँद की
मद्धिम रोशनाई में
सडकों पर फैले कृत्रिम प्रकाश के साथ
कई वहां दौड़ते हैं।

उन बेमानी सडकों पर
दौड़ते धुऐं के साथ
जब छाया भी धुंधली हो जाती है।
इस ध्वनिरहित प्रवाह में
विचारों के रौंदे हुए जल से
जब छीटें उड़ते हैं।

बंद होती बुझी आँखें भी
जब शांति पाती नहीं दिखती हैं।
झाँक लेता हूँ अपने अन्दर भी
और उसी दौड़ का एक हिस्सा पाता हूँ।

तब भी जब दौड़ रूकती नहीं दिखती
टेढ़ी पूँछ वाला एक कुत्ता पाता हूँ।
अपनी दुम को टाँगों में दबाये
उसे चुपचाप दौड़ते पाता हूँ।
तीक्ष्ण क्रन्दन कि कोई आवाज नहीं
बिना चाह के उसे हड्डी तोड़ते पाता हूँ।

हर सुबह यही क्रम
फिर निर्मित होते पाता हूँ।
इसी दौड़ में
अपने को खोता हुआ पाता हूँ।
फिर भी मैं चलता जाता हूँ,
इसी राह को राह बनाकर
मुस्कराते हुए चलता जाता हूँ।

कलरव सुनाई देने लगता है
मधुर हवाएँ बहने लगती हैं
ये वृक्ष अब रूक जाते हैं।
और मैं चलता जाता हूँ
राह इसी तरफ पाता हूँ
मैं राह इसी तरफ पाता हूँ।


- नीरज मठपाल
फरवरी २०, २००५

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