शनिवार, 21 अप्रैल 2007

विषाद का प्रसाद

आँखों मे सूखी नमी, क्या नजर नहीं आती।
चेहरे पे झूठी मुस्कराहट, यूँ ही दब नहीं जाती।
हृदय में छिपा दर्द, ठंड से अकड़ नहीं जाता।
जब दिमाग हो बेकाबू, यहाँ रहा नहीं जाता।

ज्ञान तो है, ध्यान भी, कर्म करा नहीं जाता।
मन है शंकित – भ्रमित, हाथ हिल नहीं पाता।
आलसी जीवन है मोहयुक्त, पाँव जम से जाते।
जब दिमाग हो बेकाबू, हम चल नही पाते।

बस कुछ है मन में, जिसने शरीर को तपा रखा है।
इस जलती हुई दुनिया में, अस्तित्व को बचा रखा है।
मन के इसी शीतल नीर ने, हमको जगा रखा है।
कुछ न करकर भी, सत् के दुश्मनों को दबा रखा है।

ऊपर, ऊपर और ऊपर, आसमा को छूने की ललक है।
खुद को ही नहीं पता, कि धड़कन कब तलक है।
आसमा तो है आँखों मे क़ैद, और खुली अभी भी पलक है।
हृदय में है दृढ़ विश्वास, सूखा हुआ चाहे हलक है।

- नीरज मठपाल
फरवरी २२, २००३

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