शनिवार, 21 अप्रैल 2007

त्रिगुण दशा

भ्रमर गुंजन वाटिका मे गूंजता
किस पुष्प का ले वो मधुरस
सोचकर व्यर्थ, बारम्बार तम में झूलता।
तम राज की कैसी ये विशेषता
उन्माद नहीं, प्रमाद नहीं, फिर भी
बढती ही जा रही, सुप्त आत्म की विवशता।

बन्धन विषय का हो, हो कितनी सरसता
मोह – श्रृंगार के रज काल में
मंद होती जा रही, उच्च शक्ति की तीव्रता।
रज राज की ये अनोखी सजगता
वेग – आवेग, मति – मन को हर
मचलती ही जा रही, उग्र हृदय कि उग्रता।

कर्म महारथी हो, हो सत् की अमोघता
ज्ञान, बुद्धि, सदाचार, धैर्य से
महकती ही जा रही, वन-वाटिका की निर्मलता।
सत् राज की अदृश्य क्यों ये मधुरता
रज – तम के द्वितीय खेल में
मौन क्यों सत् – प्रथम, ये बाण मन को बेधता।

- नीरज मठपाल
फरवरी ०३, २००७

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