बुधवार, 20 जून 2007
मुक्ति
उस आग के गोले की भक्तिनी सी।
सदियों से ही रोशन ये चांद
इस जीवन अंकुर का भक्त सा।
विचित्र इनका भक्ति का खेल
अमिट इनकी अपलक चाह
जो इन्हें अब भी रोशन किये है।
सीमाओं का अनोखा बन्धन
जो इन्हें अब भी जोड़े हुए है।
तृप्त गोलों की ये निरंतर दौड़
जैसे एक मिलन की प्रतीक्षा में।
कभी ना हो सकने वाले इस मिलन
का भविष्य जानकर भी
परस्पर सान्निध्य में मौन हैं।
ग्रह, उपग्रह और तारे के इस खेल में
आदि – अंत का अस्तित्व नहीं
क्षण भी क्षणभंगुर नहीं।
सच में वह क्या है जो
इस मिलन को पूर्णता दे रहा है।
कुछ महाशक्तियों का
परस्पर सह्योग का सदभाव है
या तृप्त मनसों की सहृदयता
यह अंतहीन भक्ति है
या असीम शून्य की स्वतंत्रता।
इस दर्शन से मुग्ध अचरज
एक अजर अमर यात्रा,
कई लक्ष्यों को समेटती
एक लक्ष्यहीन यात्रा
का संदेश टटोल रहा है।
संदेश यही कि
मुक्ति आदि में नहीं,
अंत में भी नहीं,
लक्ष्य में भी नहीं।
मुक्ति भ्रमण में है – रमण में है।
मुक्ति क्षण में है – समर्पण में है।
मुक्ति आनंद में है – भाव में है।
मुक्ति गति में है – प्रगति में है।
मुक्ति अमुक्ति में है।
- नीरज मठपाल
जून १९, २००७
शुक्रवार, 15 जून 2007
पीचीम समझौता - एक ऐतिहासिक फैसला
वार्ता इस बात से शुरू हुई कि म के बच्चों को अब एक और प्रश्न का सामना करना पड़ेगा – “भारत की पहली महिला राष्ट्रपति का नाम बताइए?” आने वाले समय में बच्चों पर और भी काफी प्रश्न लादे जा सकते हैं।
तो इसके लिए राजा म ने सुझाव दिया कि क्यों न कुछ इस तरह की योजना बनाई जाये कि सभी एक ही समय पर बच्चे पैदा करें। इससे बच्चों को “कम्बाइन्ड स्टडी” करने का अवसर मिलेगा और माता पिता पर भी कम दबाव रहेगा। राजा पी ने इस सुझाव का सहर्ष स्वागत किया। किन्तु उनकी एक समस्या थी – प्रेमरोग की। जिसके कारण उन्हें शादी की थोड़ा जल्दी है। तो बच्चों के लिए उन्हें काफी इन्तजार करना पड़ जाएगा – बाकी लोगों की शादी होने तक। समस्या का समाधान ये निकला कि पी के दूसरे बच्चे के साथ तालमेल बिठाया जाएगा और जरूरत पड़ी तो पहले बच्चे को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाएगा।
वार्ता में नया मोड़ तब आया जब राजा ची ने अपना मुँह खोला। उनका कहना था कि वो इस “स्कीम” पर अपना एक बच्चा तो कुर्बान करने की सोच सकते हैं, लेकिन उनकी पहले से एक और योजना है, “अपना बच्चा बाकियों के बच्चे के ठीक एक साल बाद पैदा करना है। इससे किताबें और कापियां फ्री में मिल जाया करेंगी। मेरा बच्चा अपने ददा और दीदीयों की किताबें पढ़ेगा।”
इस पर आवेशित होकर राजा पी ने कहा, “हमें राजा ची जैसे भिखारियों को अपनी इस योजना में शामिल करने की जरूरत नहीं है। हमें तो उन साहसी लोगों की जरूरत है, जो हमारे बच्चों के साथ कदम से कदम मिला कर चल सकें। उनके एक साल पीछे पीछे नहीं।”
कुल मिलाकर इस फैसले के बाद दो धाराएँ निकलकर सामने आयी:-
१ - वो राजा जो अपने राजकुमार और राजकुमारियां लगभग एक ही समय पर पैदा करेंगे।
२- वो राजा (भिखारी), जो अपने बच्चे ऊपर पैदा हो चुके बच्चों के ठीक एक साल बाद पैदा करेंगे।
आप सभी मित्रगण भी इन दोनों धाराओं में से किसी एक में शामिल होने के लिए आमंत्रित हैं। ध्यान रहे कि आपका निर्णय कल को इतिहास बदलने की ताक़त रखता है। इसलिये सोच समझकर निर्णय लें। आख़िर सवाल आपके बच्चों के ही नहीं, बल्कि पूरे देश के भविष्य का है।
(इस फैसले को पढ़ने के बाद किसी का मन हम पर जूते मारने का कर रहा है, तो कृपया अच्छी ब्रांड के नए जूते ही मारें। आख़िर हमारा भी कोई “स्टैंडर्ड” है। कष्ट हेतु धन्यवाद।)
- नीरज मठपाल
जून १५, २००७
शनिवार, 2 जून 2007
सड़क
जीवन का सफ़र अनेकानेक सडकों से गुजरता है जिन पर हम कई बार माता – पिता, भाई बहन, नाते – रिश्तेदार, दोस्तों के साथ घूमते हैं। वहीं कई बार अकेले भी एक वैचारिक मस्तिष्क को लेकर चलते हैं। फिर कहीं पर एकांत देखकर सड़क किनारे बैठ जाते हैं, कुछ देर बातें करते हैं, कुछ सोचते हैं, फिर वापस वहीं आ जाते हैं जहाँ से चले थे। पर कुछ लेकर ही वापस आते हैं, चाहे वह आत्मबल या प्रसन्नता में वृद्धि का कारण बने या फिर ह्रास का। साथ में हम कुछ अच्छे या बुरे क्षणों को भी जी चुके होते हैं।
कुछ वर्ष पहले मैं द्वाराहाट, बेरीनाग, डीडीहाट की सडकों पर अपने माता – पिता, अग्रजों का हाथ पकड़े चलता था। बाल मन उन्ही क्षणों में प्रसन्न रहता है। उसे और कुछ सोचने की आवश्यकता ही नहीं होती। उसके बाद पिथौरागढ़ में भी यह बाल मन ही रहा, अपने परिवेश को शरीर में समावेशित होते देखता रहा, पर यही वह समय था जब विचारों के रौंदे हुए जल से व्यक्तित्व की जड़ें सींची जाने लगी थी। नैनीताल, घुड़दौड़ी (पौड़ी), दिल्ली, बंगलौर की सडकों से होते हुए पिछले एक साल से यह जल अमेरिका की सडकों पर आ पहुँचा है। आज भी इसके सींचने की शक्ति कम नहीं हुई, ना ही बाल मन की जिज्ञासाएँ उत्पन्न होना छोड़ सकी हैं। युवाओं की ऊर्जा, जोश और जीवनी शक्ति उस बाल मन में मिली, तो विचार प्रवाह में गति सी आ गयी।
स्थिर रहना या स्थिर विचारधारा का होना अच्छी बात है पर फिर भी कहीं कुछ है जो कहता रहता है, “मेरी तो कोई विचारधारा ही नहीं है”। मन – मस्तिष्क इस बात का खंडन करता है। लेकिन “सही क्या है?”, इसका निर्णय कौन करेगा? कहीं से स्वयम् ही उत्तर आया कि इसका निर्णय अतिसंक्षिप्त वैचारिक विश्लेषण ही कर सकता है। उत्तर मिला बहुत साधारण पर अपने में कई सदियों को समेटे हुए – “जड़ें तो स्थिर रहती हैं। समय के साथ साथ वो और भी गहरी होती चली जाती हैं। पर तना, पत्ती, फूल आदि का कार्य तो गतिमान रहना है। सिद्धांततः चीजें नहीं बदलती, पर समयानुसार उनके क्रियान्वयन में परिवर्तन आवश्यक है। यही एक गतिशील मन, गतिशील मस्तिष्क और गतिमान व्यक्तित्व की विचारधारा है।”
अभी शाम को ही एक सड़क पर चलते हुए पुनः अहसास हुआ – “सड़कें तो बदलती रहती हैं, पर हमारा चलना नहीं बदलता। गतिमान जीवन गतिमान ही रहता है।”
- जून २, २००७
नीरज मठपाल
अनुभव
उम्र के साथ - साथ अनुभव भी बढ़ता जा रहा है। प्रत्येक नया दिन, एक संभावित नया अनुभव। दृष्टिकोण भिन्न – भिन्न होने का विकल्प तो अभी भी उपलब्ध है, किन्तु जीवन की अजैविक गतिविधियों से सम्बंधित विचारों में कुछ स्थिरता सी आ रही है। विगत २१ वर्षों का प्रभाव स्पष्टतः प्रस्फुटित होने लगा है। यह स्थिति प्रत्येक के साथ आती है – चाहे वह जड़ हो या चेतन। चेतन मन की वास्तविक चेतना वही है जब वह ‘जड़’ को आत्मसात करते हुए चेतनामय रहे। यदि जीवन को वाच्यों में तौलें, तो स्थिति ‘मनुष्य’ की वास्तविक विशेषता की स्वतः ही व्याख्या कर देती है। उदाहरणार्थ,
कृतवाच्य – मनुष्य जीवन जीता है।
कर्मवाच्य - जीवन मनुष्यों द्वारा जिया जाता है।
उपरोक्त दो कथनों में ही संभवतः कुछ असत्यता हो, क्योंकि यह भी अनुभव आधारित हैं और अनुभव खट्टे भी हो सकते हैं, मीठे भी। जो भी हो, जीवन रस तो अनुभवों में ही है, वह भी तभी जब उनसे कुछ सकारात्मक ग्रहण किया जाये।
- नवंबर २६, २००१
नीरज मठपाल
कथन - ३
- दिसंबर १३, २००३
नीरज मठपाल
बुधवार, 23 मई 2007
लघु कहानी
असमंजस में पड़कर अलि (भ्रमर) ने पुष्प से तथ्य को स्पष्ट करने का निवेदन किया। तब पुष्प व्यथित होकर बताने लगा, "जो मेघ अभी यहाँ से गुजरा है, वह पृथ्वी से आ रहा था। वहाँ प्रकृति मनुष्य के आतंक से असहाय होकर अपने अन्तिम दिनों को गिन रही है। दूषित वायु और जल पृथ्वी को अधिक समय तक रहने नहीं देंगे। विषैले रसायनों से भरे उस काले मेघ को मैंने अभी अभी यहाँ से गुजरते हुए देखा है। यदि वह प्राची की ओर चला गया, तो वहाँ के मनोरम पर्वतों से टकराकर अपने अन्दर का सारा जहर बिखेर देगा, और तब यह देवस्थली भी स्थान-स्थान पर कराहती नजर आयेगी।”
पुष्प की बातें सुनकर भ्रमर को मधु का स्वाद कसैला सा प्रतीत हुआ। वह वायु से बोला, “हे मलयपवनों! मुझे तीव्रता से बहाकर उन शक्तिसंपन्न देवों के पास ले चलो, जिन्होंने अपने पराक्रम, ज्ञान एवं विवेक से कई राक्षसों, दैत्यों का अभिमान चूर किया है। मैं उनसे मानवों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करूंगा।”
वायु जाते जाते पृथ्वी में ईश्वर-मनुष्य के संबंध में बताने लगी, “वहाँ इतने ईश्वर हैं कि स्वयम् ईश्वर भी नहीं समझ पाता कि अपने पास मनुष्यों का ही खाता रखे या फिर धरती के ईश्वरों के लिए भी बड़े-बड़े खाते बनाए। अतः ईश्वर ने भी मनुष्यों को धरती के अनेकों स्वनामधन्य ईश्वरों के हाथों में छोड़ दिया है और वह भी परम शक्ति से प्रार्थना कर रहा है कि अपनी इस अनुपम कृति को शीघ्रातिशीघ्र मिटा दे।”
इस वार्त्तालाप के अन्तिम चरण में तीनों प्रतिभागियों ने कालिमायुक्त मेघ को पुनः पृथ्वी की ओर जाते हुए देखा। मेघ के स्वर में एक गर्जना थी।
- नीरज मठपाल
फरवरी १३, २००४
शुक्रवार, 18 मई 2007
ऐसे ही
अभी इस लिखते हुए अपनी तरह के अजूबे नमूने को ही लो। पिछले एक घंटे में दस अलग अलग चीजें सोच चुका है। सामने काफी का कप रखा है, उसमें थोडी सी काफी बची है। पता नहीं इन्सान को काफी के पौधे को पीने वाली काफी में तब्दील करने में कितने साल लगे होंगे। गजब ही ठैरे हमारे पूर्वज भी। मीठी, खट्टी, कड़वी, नमकीन जिस भी चीज को जैसे भी खाने का जुगाड़ बना सके, बना लिया।
वो वहाँ पर एक कुर्सी रखी है चार टांगों पर खड़ी। उसी के बगल में पहियों वाली कुर्सी भी इतराते हुए शांत पड़ी है। दो चार पहिये लगा दिए उस कुर्सी को तो इसमें इतराने की बात क्या है? पर उसे समझाये कौन? निर्जीव वस्तुओं को बोलना भी तो नहीं आने वाला ठैरा।
इन सब बातों का तात्पर्य यही है कि दिमाग भी कैसी छोटी से छोटी, फिजूल से फिजूल और बड़ी से बड़ी, उपयोगी से उपयोगी बातें और विचार सोच लेता है। अगर ये दिमाग सामने आकर खड़ा हो जाये, तो इसे एक चांटा लगाकर बोलूं कि धन्य हो प्रभु, आप धन्य हो। चांटा इसलिये कि दिमाग के भाव ज्यादा ना बढ़ जायें।
गुरुवार, 10 मई 2007
एक दोपहर
तो चलते है उत्तराखंड के इन पहाड़ों में।
जाड़े के इस मौसम में सूर्य ही सबसे बड़े देवता हैं। जिस दिन वो अपनी प्रखर चमक लिये धरती की सेवा में हाजिर हो गए तो मानो जैसे पहाड़ियों का तो बसंतोत्सव आ गया। आज भी ऐसा ही एक दिन है। सुबह जब ९ बजे के आसपास दूर आकाश से आती गुनगुनी धूप का अहसास हुआ, तभी लगा कि शरीर में प्राण पूरी तरह से आ गए हैं। जैसे सिकुड़ी हुई हड्डियों को थोड़ा ताकत मिल गयी हो। आनन फानन मे पूरे पड़ौस के गद्दे और रजाईयां भी धूप में सूखने के लिए बाहर आ गए। पिछले कई दिनों से जो घरेलू काम अधूरे से पड़े थे, पलक झपकते ही आज फ़टाफ़ट होने लगे। इसी सब आपाधापी में दोपहर का एक बज गया।
अब ज्यादातर औरतें और बच्चे बाहर चटाईयां बिछाकर बैठे हुए थे। परुली की ईजा सूपा लेकर गेहूँ बीन रही थी। बाकी सभी औरतों की अंतहीन गप्पें शुरू हो गयी थी।
कुछ लोग हरया के बौज्यू की दुकान के बाहर सुबह से ही बैठे हुए थे और बीड़ी के धुएं के बीच सारे देश कि समस्याओं पर बहस कर रहे थे। इन लोगों की फसक का कोई ओर छोर तो होता नहीं है, फिर भी यही उनकी रोज की दिनचर्या का हिस्सा था।
कुछ बच्चे एक लकड़ी के फट्टे और प्लास्टिक की गेंद से बैट बाल खेल रहे थे। बातें उनकी ऎसी जैसे की बड़े होकर सभी ‘सेंचुरी’ मारने वाले बनेंगे।
इसी सुहावने दिन में कहीं से एक आवाज सुनाई दी – “चादर वाला.......”। धीरे धीरे आवाज तेज होती गयी। थोड़ी देर में एक चादर वाला अपनी पोटली खोले बैठा था और सारी औरतें उसे घेरे हुए थी। कोई खड़े होकर चादरों को फैला फैलाकर देख रही थी तो कोई बैठकर ही उनमें कमियाँ निकाल रही थी। खरीदना किसी ने कुछ नहीं था, पर मोल भाव पूरे जोरों पर था। आख़िर में एक गिलास पानी पीकर चादर वाला औरतों के अगले समूह की खोज में आगे बढ़ गया।
इसी बीच रधुली की ईजा ख़ूब सारे माल्टे (संतरे कि तरह का एक फल) ले आयी। नमक मिर्च लगाकर माल्टे खाना शुरू ही किया था कि पता चला कि सुरया की आमाँ के यहाँ नींबू सन रहा है। ये वो छोटे वाले नींबू नही होते, ये बड़े से नीम्बू होते हैं, जिन्हें छीलकर दही और गुड़ या चीनी के साथ साना जाता है। साथ में थोड़ा पिसी हुई भांग, थोड़ा मूली या केले मिला दो तो कहने ही क्या। जब नींबू सनकर तैयार हो गया तो थोड़ा थोड़ा वो सब लोगों में बाँटा गया। सभी इस नींबू की सुबह से प्रतीक्षा में थे क्योंकि ये तो निश्चित ही था कि किसी ना किसी के यहाँ आज नींबू जरूर सनेगा।
जब सभी चटखारे लेकर खा ही रहे थे तो कहीं से दो आवाजें सुनायी दी – “साड़ी वाला .......”... “चूड़ी – बिंदी वाला .......”। कोई आश्चर्य नहीं कि साड़ी वाले की परिणति वही हुई जो चादर वाले की हुई थी। लेकिन चूड़ी – बिंदी वाला खाली हाथ नहीं गया। कुछ लाल पीला सामान वो सस्ते दामों में उस समूह के सुपुर्द कर गया।
अब चार बज चुका था और सूरज भी ढलने लगा था। सभी लोगों ने अपनी अपनी चटाईयां समेटनी शुरू कर दी। धीरे धीरे सभी अपने घरों को खिसकने लगे। सभी के मन में यही प्रार्थना थी कि ऎसी दोपहर कल फिर आये।
अब मैं भी खिसकता हूँ। मेरी भी यही प्रार्थना है कि ऎसी दोपहर कभी कभी आती रहे।
- नीरज मठपाल
मई १०, २००७
सोमवार, 7 मई 2007
Create The Magic
It was a bright sunny day. Prabha was thinking of creating some magic. Magic! Not the one which is often termed as a mystical or supernatural practice, but the one which works like a soothing balm. After non-stop efforts of one hour, she landed up in a paradise of pens. Yes, you read it right – a paradise of pens.
Her little experience says that the power of pen is enormous. She didn’t know what really works behind it, but there’s something magical about it. She has tried umpteen times to know about that undercurrent, but always returned with empty hands. Pens have been her best friends since the day she started writing alphabets. She always felt happy in their company.
Now here she is... standing among the pens in their paradise. Who said that pen is a non living thing. Here they are… dancing like a group of ten year old kids. She thought that she is flying in a dream world and trying to personify the surroundings.
Then came the real moment, one small pen came to her and said in her sweet voice, “Hello Prabha! I’m your best friend. You’ve been using me for last two years. I know that you are in a puzzled state. Tell me about your problem?”
Prabha told her that she is not able to understand the hidden magic in these tiny pens.
Understanding her problem, pen replied, “As knife is a tool to cut vegetables, as telephone is a tool to communicate, similarly pen is a tool to write about different things and ideas on a paper. Pen in itself is not magical. The real magic behind it is the brain. You must learn how to write and how to read. So, to utilize the magical powers of brain, education is required. Although brain can take care of many things at a time, but you need to provide it some help in the form of writings. Thinking is the most important function of brain, but it also requires help from books. So to keep your magical powers intact, you need to feed your brain. All your questions and answers are just brain games, so try to play them well. We, the pens, will always be there to assist you in playing these games. So my friend Prabha! Cheer up and smile now. One day we’ll create the magic”.
Prabha smiled and came back happily from the paradise of pens. A book, lying on Prabha’s table, heard this nice little talk and it started thinking about one famous saying, “Minds are like parachutes. They only function when they are open”.
- Neeraj Mathpal
May 7, 2007
गुरुवार, 3 मई 2007
लम्बू मोटू - भाग ४ (अन्तिम भाग)
आइये ठाकुर से मिलें। यह ‘क्लीन शेव्ड’ चेहरा जो आप देख रहे हैं, कभी इस शख्स की घनी दाढ़ी – मूंछें हुआ करती थी। इसकी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी ‘ट्रेजेडी’ यह है कि इसे दो बार प्यार में धोखा मिल चुका था। पहली बार के धोखे के दुःख में इसने दाढ़ी काट ली और दूसरी बार के बाद मूंछे। देखना बाकी है कि इसके तीसरे प्यार का क्या होता है। चलिये अब भाग ३ से आगे को बढ़ते हैं -
गोलियों की आवाज़ सुनकर ठाकुर बाहर निकलता है, पर आस पास कोई नजर नहीं आता। बस अंधेरे में गोलियों की आवाज़ सुनाई देती है। थक हारकर वो वापस आकर सो जाता है।
अगली सुबह सूर्य की किरणें जब अपनी रश्मियां बिखेर रही होती हैं, जब ठंडी हवा और चिडियों का कलरव मंदिर की घंटियों के साथ मिलकर मधुर संगीत की झंकार उत्पन्न कर रहा होता है। तभी माँ भवानी का भक्त ठाकुर अपने गुर्गों लव गुरू और सिट्टू के साथ मंदिर की तरफ जाता है। वहीं मंदिर मे एक सुन्दर लड़की पूजा अर्चन कर रही होती है। उसकी लटें बार बार आंखों पर आ रही होती हैं, जिन्हे वो हवा के साथ उड़ने दे रही होती है। आरती करके जैसे ही वो पलटती है, ठाकुर की नजरें उससे टकराती हैं और ठाकुर को ‘लव एट फर्स्ट साइट’ हो जाता है। ठाकुर उसे ठकुराइन बनाने का फैसला कर लेता है।
लेकिन ठाकुर को यह पता नहीं था कि असल में वह सुन्दर लड़की एक आंख से भेंगी थी और वह उस समय ठाकुर को नहीं बल्कि लव गुरू को देख रही थी। उस शांत मनोहर पवित्र वातावरण में एक ‘लव ट्रायंगल’ ने जन्म ले लिया था।
अब ठाकुर की ज़िन्दगी में दो क्रम रोज की बात बन जाते हैं – एक रात को गोलियों के चलने की आवाज सुनना और दूसरा सुबह सुबह मंदिर जाना। इसके साथ ही एक और क्रम चोरी – चोरी, चुपके चुपके चलते रहता है – ‘लव गुरू और ठकुराइन का प्रेम प्रसंग’। एक दिन वो दोनों चुपके से शादी भी कर लेते हैं। इस शादी से बेखबर जालिमों का जालिम ठाकुर अपने दिल की बात ठकुराइन से कभी कह नहीं पाता।
अब ये समझने के लिए तो कोई ‘राकेट साइंस’ चाहिये नहीं कि आज लव गुरू चाय के ठेले पर क्यों है। जी हाँ, जब ठाकुर को सच का पता चला, तो उसके लिए ये सदमे से कम नहीं था। उसने लव गुरू और ठकुराइन की जान को तो बख्श दिया, पर ये भी सुनिश्चित कर दिया कि लव गुरू ज़िन्दगी भर चाय का ठेला चलाते रहे। ठकुराइन लव गुरू के वियोग में पागल हो गयी और आज भी मंदिर की चौखट पर उसका इंतजार कर रही है।
सदमे से पहले ही भन्नाये हुए ठाकुर को जैसे ही उस रात गोलियों की आवाज़ सुनाई देती है, वो ग़ुस्से में अपने तमंचे, कट्टे और सुतली बम लेकर निकल पड़ता है। पूरा इलाका छानने के बाद उसे वो घर दिख जाता है जहाँ से गोलियों की आवाज आ रही होती है। जब वह उस कमरे के दरवाजे के पास पहुँचता है तो देखता है कि एक पक्षी वहाँ कम्प्यूटर पर कुछ खटर बटर कर रहा है।
असल में पक्षीराज चील एक खूनी कम्प्यूटर गेम खेल रहा होता है और पूरे इलाके के स्पीकर उसी से ‘कनेक्टेड’ होते हैं। वही गेम नेटवर्किंग के जरिये लम्बू मोटू भी खेल रहे होते हैं। उसी गेम से दिशाओं को चीरती सी गोलियों की आवाजें आ रही होती हैं।
ग़ुस्से से पागल ठाकुर चील को गोली मारने को तैयार हो जाता है और कहता है – “इन गोलियों की आवाजों ने मुझे बहुत दिनों से पागल कर रखा है। तू जानता नहीं कि मेरे इलाके में बच्चा – बच्चा कट्टे , तमंचे और सुतली बम लेकर घूमता है। आज तो तू गया काम से। अपनी आखिरी इच्छा बता”।
यह सब सुनकर पक्षीराज की सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है। डरते मरते वह धीमी आवाज़ में कहता है – “मैं इसका दोषी नहीं। इस गेम को यहाँ लाने और ‘फुल वाल्यूम’ में बजाने के लिए लम्बू – मोटू जिम्मेदार हैं। मेरी आखिरी इच्छा यही है कि आप मेरे से पहले लम्बू – मोटू को मार दें”।
ठाकुर के राजी होने पर पक्षीराज उसे लेकर लम्बू – मोटू के कमरे की तरफ उड़ता है। सारी बात जानकर लम्बू – मोटू ठाकुर को ‘चैलेंज’ करते हैं – “तूने कट्टे – तमंचे बहुत चलाये, मर्द है तो हमें इस कम्प्यूटर गेम में हराकर दिखा”। ठाकुर का स्वाभिमान जाग उठता है और वह गेम खेलने के लिए तैयार हो जाता है।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ठाकुर लम्बू – मोटू से गेम हार जाता है। पर आश्चर्य यह है कि वह उन्हें जिन्दा छोड़ देता है और प्रण करता है कि वह एक दिन उन्हें उस गेम में हराकर दिखायेगा। सब कुछ छोड़ छाड़ कर वह दिल्ली आ जाता है।
तब से ठाकुर दिल्ली में मजे कर रहा है। गेम जीतना तो दूर की बात है, उसे अभी तक कम्प्यूटर खोलना और बंद करना भी नहीं आया है। स्वामीभक्त सिट्टू भी उसकी सेवा करने दिल्ली ही आ जाता है। आजकल वही उसके लिए खाना बनाता है, घर साफ करता है, उसके कपड़े धोता है, उसके पाँव दबाता है। लम्बू मोटू अपनी अपनी कम्पनी में अपनी नौकरी बजा रहे हैं। दोनों ख़ुशी और मस्ती की ज़िन्दगी जी रहे हैं।
हम भी आप लोगों से विदा लेते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि आगामी नवंबर तक ठाकुर की ज़िन्दगी में कोई ठकुराइन आ जाये। अरे हाँ, पाठकों से निवेदन है कि वो लव गुरू और पागल ठकुराइन को मिलाने में अपना सहयोग दें। उस पगली की ताजा फोटो आपकी जानकारी के लिए ऊपर चिपका दी गयी है।
- नीरज मठपाल
मई ३, २००७
बुधवार, 2 मई 2007
लम्बू मोटू - भाग ३
आज देखें कैसे शुरू होता हैं लम्बू – मोटू का कन्डोलिया का सफ़र।
लम्बू पिथौरागढ़ में अपनी हरकतों से पूरे कस्बे की नाक में दम करे रहता था। वह किसी तरह नक़ल मारकर बारहवीं पास कर लेता है। उसके बाद उसकी संगत बहुत ही खराब हो जाती है। ढौंडू हलवाई की दुकान के बाहर बैठकर दिन भर ताश खेलना और दम पीना ही जैसे उसके लिए ज़िन्दगी हो। ढौंडू कहने को तो हलवाई था, पर उसका असल धंधा था - गांजा, अफीम, चरस की स्मगलिंग करना। सही कहते हैं कि हमेशा सज्जनों की संगति करनी चाहिए। पर उम्र के इस नाजुक मोड़ पर लम्बू को एक ऐसा दोस्त मिल गया था, जिसके होते हुए इन्सान को जहर की भी क्या जरूरत।
दूसरी तरफ झाँसी के बियाबानों में मोटू का भी कुछ कुछ ऐसा ही हाल था। उसकी ज़िन्दगी को जहर बनाने वाला कोई ग़ैर नही उसका अपना चाचा था, जिसे वो प्यार से कभी पापा तो कभी डैड बुलाया करता था। यह डैड उसकी ज़िन्दगी का ड्रैकुला था। दोनों दिन रात साथ बैठकर अफीम फांकते रहते थे। इस अफीम की लत से डैड तो ३४ किलो का रह गया पर मोटू का वजन २३४ किलो को भी पार कर गया। अब वह हाथी का अंडा नहीं, बल्कि हाथी ही नजर आने लगा था।
ऐसे में जब सारी आशाएं ही जवाब देने लगी थी, जब लगा था कि ये दो जिंदगियां नशे की लत के कारण बरबाद हो जायेंगी, इनकी जिन्दगियों में एक मनीषी का प्रवेश होता है।
नेपाल सीमा पर एक छोटा सा क़स्बा है – टनकपुर। वहाँ के एक सामाजिक कार्यकर्त्ता ने ड्रग्स लेने वाले युवाओं को इस असाध्य रोग से निजात दिलाने का बीड़ा उठाया था। वह नगर – नगर, गाँव – गाँव नंगे पैर इन ड्रग्स से दूर रहने का संदेश फैलाते हुए चलते थे। हजारों का जन समूह उनकी इस यात्रा मे उनके साथ शामिल हो चुका था। असल मायनों में वही इकलौते सच्चरित्र एवं योग्य नेता थे। घूमते घूमते इनकी मुलाक़ात अलग अलग जगहों में लम्बू और मोटू से हुई। लम्बू और मोटू शरीर, समाज और उन्नति के इस शत्रु “ड्रग्स” के बारे में नेता जी के विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उनके शिष्य बनने को तैयार हो गए। उसी दिन उनकी ड्रग्स की बुरी आदत भी छूट गयी।
नेता जी की दूरदर्शी सोच कुछ और ही थी। उन्होंने लम्बू – मोटू को कन्डोलिया जाकर कम्प्यूटर में उच्च शिक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया। लम्बू – मोटू ने जुगाड़ लगाकर कन्डोलिया की प्रतिष्ठित “घसीटाराम टाइमपास यूनिवर्सटी” में दाखिला ले लिया।
वो कहावत तो आपने सुनी ही होगी – “ चोर चोर मौसेरे भाई ”। पहले ही दिन लम्बू और मोटू में पक्की यारी – दोस्ती हो गयी। दोनों दिमाग से तो पैदल थे ही पर फिर भी "एग्जाम्स" में बाकी लड़कों की कापियां छाप छाप के दोनों एक के बाद एक सेमेस्टर पास करने लगे। ऐसा करते करते ये दोनों “कापी – पेस्ट” में “एक्सपर्ट” हो गए। तब शायद इन्हें भी पता नहीं होगा कि “कापी – पेस्ट” में विशेष महारथ इन्हें “साफ्टवेयर फील्ड” में बहुत आगे ले जायेगी।
वहीं इनकी दोस्ती गेम बजाने में मास्टर 'पक्षिराज चील' से भी होती है। ये गेम मास्टर वैसे तो बहुत पहुँची हुई चीज हैं, लेकिन ये कहानी इस चरित्र की ‘ डिटेल ’ में जाने की इज़ाज़त नहीं देती। कहानी में इसका योगदान सिर्फ एक बिचौलिए का है जो ठाकुर की मुलाक़ात लम्बू – मोटू से कराता है। फिलहाल हम आपको इसका एक ‘ डायलाग ’ बताकर आगे बढ़ते हैं – “ जब किसी घसीटाराम टाइमपास यूनिवर्सटी के बन्दे का कटता है, तो मुझे बहुत ख़ुशी होती है ”।
इस सबके बीच समय आराम तलबी और मस्त लाइफ के पंखे लगाकर धीरे धीरे आगे बढ़ता है और लम्बू – मोटू “ फाइनल ईयर ” में आ जाते हैं।
यही वो समय है जब ठाकुर अपने साथ लव गुरू और सिट्टू को लेकर “ समर वेकेशन ” बिताने कन्डोलिया आता है। ठाकुर के इस दौरे का एक और मकसद है - अपने लिए ठकुराइन ढूँढना। सब कुछ कुशल – मंगल चल रहा होता है, तभी एक रात ठाकुर को अपने होटल के कमरे के पास कई गोलियों के चलने की आवाज आती है। धाड़ ... धाड़ … धाड़ …
(ठाकुर के होटल के पास गोलियाँ चलाने वाला कौन था? क्या लम्बू – मोटू और ठाकुर मे लड़ाई होती है? ठकुराइन का क्या किस्सा बनता है? लम्बू, मोटू, ठाकुर, लव गुरू, सिट्टू अपने अंजाम तक क्यों और कैसे पहुंचते हैं?
आपके दिमाग में उठ रहे इन सब सवालों के जवाब लेकर जल्द ही हाजिर होगा - कहानी का चौथा और अन्तिम भाग …)
कथन - २
- नीरज मठपाल
फरवरी २०, २००४
कथन - १
- नीरज मठपाल
मई २८, २००४
मंगलवार, 1 मई 2007
लम्बू मोटू - भाग २
आप भी सोचते होंगे आज तस्वीर में ये दो नमूने कौन दिख रहे हैं। यदि आप सोचते हैं कि इनमें से एक ठाकुर है, तो आप बिल्कुल गलत हैं। लेकिन यही वो दो शख्स हैं जो आज ठाकुर को चम्बल से दिल्ली लाने के लिए जिम्मेदार हैं। इसलिये लम्बू – मोटू और ठाकुर की कहानी आगे बढ़ाने से पहले इन दोनों नमूनों को जान लेना भी बहुत जरूरी है।
जो माला लगा कर ‘पोज’ दे रहा है, वो अपने को ‘लव गुरू’ कहता है। पर असल मे उसकी एक गरीब बस्ती में चाय की दुकान है। अजी, दुकान भी क्या, बस ये समझ लीजिये कि एक जगह पर एक ठेला खङा है। उसी ठेले पे ये लव गुरू रात को सो भी जाता है। ये हमेशा से ऐसा नहीं था। कभी ये ठाकुर का बाँया हाथ हुआ करता था। पर वो कन्डोलिया में बिताया एक महीना ……
दूसरा जो कभी सिंटौले पक्षी की तरह चम्बल के जंगलों में आज़ाद घूमा करता था, हर समय अपने मधुर आवाज में गाया करता था – “ कोयल सी मेरी बोली … सिट्टू – सिट्टू …”। आज ठाकुर का ‘पर्सनल बावर्ची’ बनकर दिन रात उसकी गुलामों की तरह सेवा कर रहा है। ये हमेशा से ऐसा नहीं था। कभी ये ठाकुर का दाँया हाथ हुआ करता था। पर वो कन्डोलिया में बिताया एक महीना ……
उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में बसा और देवदारू के वृक्षों से घिरा यह कन्डोलिया वही जगह है जहाँ लम्बू और मोटू पहली बार एक दूसरे से मिले थे। यह वही जगह है जहाँ ठाकुर अपने दल बल के साथ ‘समर वेकेशन’ पर गया था। और हाँ, यही वह जगह है जिसने इन सबकी ज़िन्दगी बदल कर रख दी।
(ठाकुर के साथ कन्डोलिया में क्या हुआ? क्यों लव गुरू और सिट्टू की ज़िन्दगी बरबाद हुई? लम्बू – मोटू कन्डोलिया में क्या कर रहे थे? इन सब सवालों के जवाब देती कहानी का अगला भाग किसी और दिन …… )
- नीरज मठपाल
मई १, २००७
सोमवार, 30 अप्रैल 2007
लम्बू मोटू - भाग १
सन १९८३ की बात है। तब चम्बल के बीहड़ इलाक़ों मे ठाकुर विजय पाए सींग का राज चला करता था। पुलिस ठाकुर के नाम से थर थर कांपा करती थी। जब कोई बच्चा रोता था तो माँ बच्चे से कहती थी - "बेटा सो जा वरना ठाकुर आ जायेगा"। ये बड़े ही दुखों के दिन थे।
ऐसे मे झाँसी और पिथौरागढ़ की वीर भूमियों पर दो महापुरुषों ने जन्म लिया। बादल इस ख़ुशी में ख़ूब बरसे। हाथियों ने खुश होकर अंडे दिए और जिराफों ने अपनी ऊंची ऊंची गर्दनें मटकायी। पूरे संसार मे रौनक सी आ गयी।
दोनों ही बच्चे बड़े होने लगे। एक पहाड़ों की पथरीली जमीनों में 'स्कूल' से 'बंक' मारकर पिक्चर हॉल जाता था, तो दूसरा झाँसी के टीलों में छिपकर ठाकुर कि हवेली में चलती हुई नौटंकी देखा करता था। ' बालीवुड' दोनों का कैरियर बरबाद करने में तुला था। दोनों में एक बात और 'कॉमन' थी। दोनों छोटे बच्चों की एक पत्रिका 'लोटपोट' के बहुत बड़े फैन थे। तब शायद इन्हें यह पता नहीं था कि एक दिन इन दोनों की जोड़ी "लम्बू - मोटू" के नाम से विश्व विख्यात होने वाली है।
खैर दोनों बड़े होते हैं। इसमें कोई खास बात नहीं क्योंकि बड़ा तो सबको होना ही पड़ता है। पर उनमें से एक सात फ़ीट की लम्बाई को पार कर जाता है तो दूसरे के भार को तोलने के लिए १८० किलोग्राम के पलड़े भी कम पड़ते हैं।
भाग्य की विडम्बना देखिए कि आज ये दोनों 'साफ्टवेयर लाइन' में काम करते हैं और ठाकुर राजधानी दिल्ली में आज भी मजे से आज़ाद घूम रहा है। हल्द्वानी की बड़ी - बड़ी नहरों का पानी तो आज भी नहीं सूखा है, पर फिर भी न जाने कौन सी क़सम है कि आज लम्बू - मोटू मौन हैं।
(ठाकुर कौन था और चम्बल से दिल्ली कैसे पहुँचा? क्यों लम्बू – मोटू ठाकुर को पकड़ नहीं पाए? लम्बू मोटू से कब मिलेगा? क्या ये ठाकुर का राज ख़त्म कर पायेंगे? अजूबे चरित्रों की इस कहानी का अगला भाग कभी और ..... )
- नीरज मठपाल
अप्रैल ३०, २००७
रविवार, 29 अप्रैल 2007
थोड़ा अनुमान लगायें
बच्चा: अरे भुक्खड़! ज़रा आराम आराम से खा। कोई लेकर भागने वाला नहीं है तेरा खाना।
कोटी : यार जिन दिनों किस्मत खराब चल रही हो, उन दिनों करना पड़ता है। फिर तेरी प्लेट की इमरती पर भी तो नजर है। (हँसता है)
बच्चा: हाँ बेटा, क्यों नहीं। तेरे को तो मैं इमरती क्या, पूरा खाना ही खिलाऊंगा।
कोटी: अरे हद हो गयी, लंदन जाने वाला है। एक पार्टी देना तो दूर, तू तो एक इमरती भी खिलाने से मना कर रहा है। (मन ही मन में सोचता है - बच्चे से पार्टी लेना तो बहुत ही टफ काम है)
बच्चा: ठीक है भई। तू खुश रह। ये ले, मर (इमरती देता है)
कोटी (अपना सारा खाना चट करने के बाद) : वाह बच्चे, मजे आ गए।
बच्चा: सयाने, बच्चा होगा तू। तू अभी मेरी अल्मोड़ा स्पेशल चाल को नहीं जानता (हँसता है)। मैं जब किसी का काटता हूँ तो हवा को भी खबर नहीं होती।
कोटी (जोर से हंसते हुए): वो तो अब पूरी दिल्ली को पता है। लंदन वालों की भी किस्मत जल्दी फूटने वाली है।
बच्चा (शरमाते हुए टापिक बदलता है): डैड (जोशी) बड़ा चालू है यार। मेरी शर्ट मार के बंगलौर भाग गया।
कोटी: तेरी क़सम!!! तेरी तो शर्ट ही मारी। मेरी तो पैंट भी मार के ले गया है एक। एक सफ़ेद रंग का 'रूमाल' भी नहीं छोड़ा उसने। छोडूंगा नहीं उसको तो मैं।
बच्चा: पहले पकड़ तो सही। (हंसता है) वैसे मैं तो धपोला के यहाँ इस 'वीक एंड' जा रहा हूँ दो-चार चीजें मारने।
कोटी: ठीक है। तू ऐश कर। मुझे तो अपनी ड्यूटी बजानी है (उदास होने का दिखावा करता है)।
(दोनों खाने की दूसरी प्लेट लेने चले जाते हैं। लाटा टाइम्स की कल्पनाओं का तार भी टूट जाता है। कोशिश जारी रहेगी कि ये तार फिर से कभी 'कनेक्ट' हो)
- नीरज मठपाल
अप्रैल २९, २००७
अपाहिज
* * * * *
पीलीभीत रेलवे स्टेशन पर सैकड़ों यात्री जमा हैं। कुछ अपनी गाड़ी के आने के इंतजार में पसीना बहा रहे हैं, तो कुछ अपने गंतव्य पर सही-सलामत पहुँचने की ख़ुशी में पसीना सुखा रहे हैं। उष्णता (गर्मी) तो वही है, बस स्थितियाँ ही पसीने के विभिन्न रूप दिखा रही हैं। हावड़ा एक्सप्रेस के 'स्लीपर क्लास' से उतरा एक संभ्रांत परिवार जैसे ही 'प्लेटफार्म' से बाहर खुली सड़क पर पहुँचता है, तो तीन चार बच्चों को अपनी ओर लपकते हुए पाता है। बच्चे आठ से बारह वर्ष के रहे होंगे। शरीर पर टंगी हुई फटी कमीजें और नीचे टल्ली लगे हुए नेकर। पाँवों के तलुए तो जल-जल कर ऐसे हो गए हैं कि उबलते पानी में डलवा लो, तो पानी ठंडा हो जाएगा। पेट जरूर सभी के ठीक से लग रहे थे, शायद भीख पर्याप्त मात्रा में मिल जाती होगी। बच्चे अब परिवार के सदस्यों को घेरकर अन्न याचना कर रहे हैं। महिला तो बस घृणाभाव से दूर हट जाती है, लेकिन उनके श्रीमान दो रूपये का सिक्का ज़रा दूर से ही फैंक देते हैं। वहीं एक कोने में झूमर नम आँखों से बैठा है।
* * * * *
झूमर से मेरा पहला और अन्तिम परिचय लखनऊ जाते समय ट्रेन में हुआ था। ट्रेन तब पीलीभीत से चलना शुरू ही हुई थी। एक असहाय सा दिखने वाला आदमी अपने घुटनों पर घिसटता हुआ आया। चेहरे पर दाढ़ी बेतरतीब ढंग से बढ़ी हुई और प्रश्न पूछती सी बड़ी बड़ी आँखें। उसके दो पाँव और एक हाथ बीते वर्षों कि तपिश मे कहीं लुप्त हो चुके थे। ज़िन्दगी की शायद इकलौती बची हुई पूंजी बाँयें हाथ में एक झाड़ू पकड़ा हुआ था। पता ही नहीं चला कब उसने फुर्ती से पूरा 'केबिन' साफ कर डाला। सफाई भी ऎसी कि क्या मजाल कोई खोट निकला जा सके। लेकिन ये सफाई तो मुझे उसके जाने के दस मिनट बाद दिखी। उसके करतब को देखकर तो मैं शब्दहीन हो गया था। उसने झाड़ू लगाने के बाद अपना हाथ एक बार मेरी तरफ बढ़ाया भी था। किन्तु मैं तो जड़वत था - मस्तिष्क से भी और शरीर से भी। उसकी जीवनी शक्ति मेरे लिए किसी परम शक्ति से कम नहीं थी। अनायास ही मुझे उसमें स्टीफ़न हाकिंग का कुछ अंश भी दर्शित हुआ था। लांस आर्मस्ट्रांग की साईकिल के पहिये भी दौड़ते नजर आये थे उन आँखों में। हर व्यक्ति का अपना अलग 'प्लेटफार्म' था, पर सभी की जिजीविषा शक्ति 'अनुकरणीय'।
जब इन ख्यालों की तन्द्रा टूटी, तो मैं उसके पीछे भागा। वह एक दूसरे केबिन में अपने काम में व्यस्त था। बस मैं उसके काम को अपलक निहारता ही चला गया। मेरे लिए उस समय वही मानव शक्ति का सर्वोच्च प्रतीक था। अगले ही स्टेशन पर वह मेरी आँखों से ओझल हो गया। साथ में दे गया एक अनकहा संदेश।
* * * * *
अभी दरवाजे पर किसी ने खटखटाया तो ध्यान आया की बारिश बंद हो चुकी है। जब इस पृष्ठ को फिर से पढ़ा तो लगा कि झूमर का मेरे जीवन मे प्रवेश हो चुका है। शायद प्रवेश तो उसी ट्रेन में हो चुका था, पर झूमर नाम तो उसे आज ही मिला है। झूमर अपाहिज नहीं है। अपाहिज शरीर नहीं, अपाहिज तो सोच होती है। झूमर की सोच अपाहिज नहीं।
- नीरज मठपाल
मई ३, २००३
बुधवार, 25 अप्रैल 2007
प्राकृतिक दृश्य
ऐसे में एक दिन एक विपत्ति सामने आ खड़ी हुई। उन्हें ‘होम वर्क’ के तौर पर ‘प्राकृतिक दृश्य’ बनाने के लिए दे दिया गया। जिस मासूम के लिए प्राकृतिक और कृत्रिम वस्तुओं में अंतर करना ही कठिन हो, उसके लिए एक पूरा दृश्य रंगों से उकेर देना किसी नए तारे की खोज करने के ही समान था।
ये कला भी बड़ी ही विचित्र चीज है। सब कहते थे, “ कला तो एक खेल की तरह है – मानव की रचनात्मक और मौलिक प्रतिभा का आईना। ना जाने आज तक कला की पूजा – भक्ति में कितने जीवन समर्पित हो चुके हैं। एक सामान्य मजदूर और किसान से लेकर बड़े से बड़े नेता और धनी लोग विभिन्न कलाओं का प्रयोग एवं प्रदर्शन करते आये हैं। जीवन के हर क्षेत्र में कला विद्यमान है”।
पर कब्र का हाल तो मुर्दा ही जानता है और ये सब बड़ी बड़ी बातें डब्बू के लिए एक कोरा एवं अर्थहीन ज्ञान था। उस मासूम बचपन के लिए तो टेढ़ी मेढ़ी ‘ड्राइंग्स’ ही ‘आर्ट’ थी। वो तो बस किसी तरह ‘प्राकृतिक दृश्य’ की पहेली को समझने का प्रयत्न कर रहा था। ऐसे में जैसे ही संकट-मोचक को याद किया तो माँ स्वयम् कला की साक्षात् देवी बनकर सामने बैठी हुई दिखी। माँ के केवल चार शब्दों ने सारी प्राकृतिक अदृश्यता को उसके लिए पूर्णतः दृश्य बना दिया –
१ - पर्वत (या पहाड़)
२ - नदी (या तालाब)
३ - सूरज (या चन्द्रमा)
४ - पेड़ – पौधे
लगा कि जैसे सारी प्रकृति माँ के हाथों में सिमट आयी हो। हाथों में हाथ रखे पेंसिल ने चलना शुरू किया। थोड़ी ही देर में पन्ने पर कई सारे रंग फैले हुए थे। प्रकृति पूरे श्रृंगार के साथ कागज के उस पतले आयताकार पन्ने पर विराजमान थी। उसका मनोहारी रूप मन पर अंकित हो चुका था। कला की परिभाषा सार्थक एवं स्पष्टतः परिलक्षित हो चुकी थी।
आज जब भी प्रकृति को उसके जीवंत रुप में महसूस करता हूँ तो पास में ही कहीं वो पन्ना भी अपना प्रकाश फैलाता दिखाई देता है, मानो पन्ने से सारे रंग उड़कर पूरी पृथ्वी में फ़ैल गए हों।
सोमवार, 23 अप्रैल 2007
सागर
- नीरज मठपाल
अप्रैल २३, २००७
जोशी जी - एक बातचीत
रविवार, 22 अप्रैल 2007
राकेश की शादी - बारात डांस
पत्र
उस पत्रपेटी की तरफ बढ़ते हैं।
स्वतः ही आँखें उन कागजों में
मेरा नाम खोजने लगती हैं।
हाथ वहाँ कुछ न पाकर
स्वतः ही हृदय को वहीं रोक देता है।
धन्यवाद मेरी चिर साथी मस्तिष्क कोशिकाओं का
जो स्वतः ही सब सामान्य कर देती हैं।
अंतर्मन से जुड़े तार
स्वतः ही कभी न पहुँचने वाले
उस पत्र के भाव पढ़ लेते हैं।
... Nice body coordination :-)
- नीरज मठपाल
जनवरी २००५
सीमा
जालियों की घेराबंदी
सुरक्षा किससे
और किसलिये।
बचना उनसे जो
लोभ पिपासु होकर
दूसरों के दुःख में
अपनी ख़ुशी ढूँढते हैं।
आख़िर इस असीम क्षेत्र में
सीमाओं की
क्या सचमुच आवश्यकता थी?
- नीरज मठपाल
फरवरी २०, २००५
प्रीत
इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि अपनी प्रीत को कम कर दें हम।
इससे तो मैं प्रीत का नाम ही न लूँ।
भले खामोश हो जाये मेरी प्रीत।
जो रहे, वही प्रीत।
- नीरज मठपाल
जून ११, २००६
दीक्षा
मन का प्रतिरोध अदृश्य हो चला,
मन का अवरोध क्षीण हो चला,
आत्म - अवरोध शून्य है
मस्तिष्क तब भी मौन है।
जाने किस अवरोध की प्रतीक्षा है,
क्या मन - आत्म - मस्तिष्क को
मिल रही ये कोई मूक दीक्षा है।
- नीरज मठपाल
जून ११, २००६
शनिवार, 21 अप्रैल 2007
मौन के क्षण
या छद्म ब्रह्म का
अनंत आकाश का छोर
या भ्रम आकाश के होने का
शून्य में विलीन होने का गणित
या बीज जन्म कि माया का
सब कुछ अघोषित, सुपोषित,
निर्देशित
किन्तु
अपलक, अघटित
विलीनता
तन्मय सन्नाटे में।
- नीरज मठपाल
अप्रैल १२, २००३
त्रिगुण दशा
किस पुष्प का ले वो मधुरस
सोचकर व्यर्थ, बारम्बार तम में झूलता।
तम राज की कैसी ये विशेषता
उन्माद नहीं, प्रमाद नहीं, फिर भी
बढती ही जा रही, सुप्त आत्म की विवशता।
बन्धन विषय का हो, हो कितनी सरसता
मोह – श्रृंगार के रज काल में
मंद होती जा रही, उच्च शक्ति की तीव्रता।
रज राज की ये अनोखी सजगता
वेग – आवेग, मति – मन को हर
मचलती ही जा रही, उग्र हृदय कि उग्रता।
कर्म महारथी हो, हो सत् की अमोघता
ज्ञान, बुद्धि, सदाचार, धैर्य से
महकती ही जा रही, वन-वाटिका की निर्मलता।
सत् राज की अदृश्य क्यों ये मधुरता
रज – तम के द्वितीय खेल में
मौन क्यों सत् – प्रथम, ये बाण मन को बेधता।
- नीरज मठपाल
फरवरी ०३, २००७
आवाज़
क्या सिर्फ़ एक आवाज़ भर
केवल एक शब्द
जैसे वैज्ञानिक शब्द ध्वनि
और उसका समस्त विज्ञान।
क्यों वो आवाज़ बीच – बीच में
अलग सुनाई देती है।
सिर्फ इसीलिये कि वह
वो आवाज़ नही
जो हमारे कान सुनना चाहते हैं।
ये वो बातें नही
जो हमारा मन सुनना चाहता है।
क्यों नियंत्रण
वो भी पर-ध्वनि पर
पर-सोच पर।
संभव भी नहीं कि
श्रोत और श्रोता समान सोचें।
पर तब क्या जब
श्रोत और श्रोता एक ही हों।
भिन्न स्थान – विमाओं मे होते हुए भी
कैसे अलग अस्तित्व को स्वीकार करें।
ये भी तो संभव नहीं।
- नीरज मठपाल
जुलाई, २००६
अपने हृदय के प्रति - [१]
आँखों के काले धब्बों ने
दिखाया कि वो अब भी नहीं।
हलक मॆं कुछ चुभा सा,
सलीकों के साथ सुईयां भी,
कदाचित कदमों का एहसास तो
सुई सा नहीं था।
पर आवाज़ से लगा कि गई,
वो गई हृदय को बेंधने
पर हुआ क्या?
लगा कि गल गई वो
राह कि गर्मी से।
चुभन कि प्रवृत्ति ही नहीं,
वेदना का कैसा ये लोहा
जो शिराओं में ही पिघल गया।
निलय की डोरों का कैसा ये जाल
जो थामे ना रख सका मेरे ही निलय को।
इसे हार कहूँ मैं या कहूँ व्यर्थ उदगार
हृदय तूने कैसा लिया ये प्रतिकार
हृदय तूने क्यों दिया ये निराला उपहार।
- नीरज मठपाल
नवंबर २१, २००५
अपने हृदय के प्रति -[२]
सुबह उठा तो सपने की याद कायम थी।
मन में तुम्हारी ही यादें थी
दिल को बस तुम्हारा ही ख़याल था।
खुशकिस्मती ये कि
' मोबाइल ' में ' टाक टाइम ' खतम था
कदमों को ' एस.टी.डी. ' की तरफ बढ़ना तो था,
पर मैंने उन्हें भी रोक लिया।
आख़िर यही तो अवसर मिला
जब मैंने दिन तुम्हारे नाम करना था।
अब आधी रात होने को है,
दिल को अब भी तुम्हारा ही ख़याल है।
ये रात भी तुम्हारे ही ख़याल की,
और आने वाला दिन भी तुम्हारे ही ख़याल का।
ये ख़याल कुछ तुम्हारा है,
कुछ हमारे प्यार का है।
तुम्हारा चेहरा किसी दूसरी तरफ देख रहा है,
बीच बीच में आँखें मुड़ रही हैं मेरी तरफ।
पर फिर दूसरी तरफ,
क्या है जो अपलक मिलन को रोक रहा है।
मैं एकटक देख रहा हूँ,
उन आँखों को, उस चेहरे को
जो मुझे इतना प्यार करते हैं।
उन आँखों कि बेकरारी समझ तो रहे हैं,
कभी मूक रहकर, कभी कुछ कहकर-
कुछ इधर-उधर कि बातें कर,
बस किसी तरह मनोद्गारों को रोका है।
मैं-तू कुछ नहीं, हम हैं –
इस मूक संलग्न अस्तित्व में।
- नीरज मठपाल
अप्रैल, २००६
दुविधा
मोहपाश रिश्तों का
आत्म – सम्मान की कब्र पर
अभिलाषा सुख की
भुख़मरी के मुहाने पर
मेज पर सजे छत्तीस व्यंजन
शेयर बाजार में
भारतीय युवाओं के ख़ून पर
खिलखिलाती
विदेशी कम्पनियाँ।
ये वह देश तो नहीं
जहाँ मैं प्राणवायु चाहता था।
मुझे तो चाहिए थी
करोड़ों भारतीयों की छोटी सी मुस्कान।
पर मुस्कान कि लाश पर
चंद भारतीय मक्खियां भिनभिना रही हैं।
लाश भी
अब स्वाद देने लगी हैं।
जो दे मुझे सकून
वह स्वाद कहाँ से लाऊँ।
कर्त्तव्यपथ को सही रूप में
कैसे देखूँ और दिखाऊँ।
- नीरज मठपाल
अगस्त २६, २००३
छाया
गरीब कि छाया
समझ ना सकी
कब उसे मिटा दिया गया
वह तो काले धुँधलके को ही
छाया समझकर
तपिश में
घिसती रही
इस उम्मीद में कि
बच्ची को
एक अदद कपड़ा तो मिल जाएगा
लेकिन
कपड़ा तो तार – तार हो चुका है
गरीब के कपड़े को भी
छाया समझकर मिटा दिया गया
बच्ची
छाया के ऊपर बैठकर
सिसकती रही
छाया के पास
कफ़न का कपड़ा तक ना था।
छाया – प्रतिछाया का खेल चलता रहा।
- नीरज मठपाल
अगस्त २५, २००३
विषाद का प्रसाद
चेहरे पे झूठी मुस्कराहट, यूँ ही दब नहीं जाती।
हृदय में छिपा दर्द, ठंड से अकड़ नहीं जाता।
जब दिमाग हो बेकाबू, यहाँ रहा नहीं जाता।
ज्ञान तो है, ध्यान भी, कर्म करा नहीं जाता।
मन है शंकित – भ्रमित, हाथ हिल नहीं पाता।
आलसी जीवन है मोहयुक्त, पाँव जम से जाते।
जब दिमाग हो बेकाबू, हम चल नही पाते।
बस कुछ है मन में, जिसने शरीर को तपा रखा है।
इस जलती हुई दुनिया में, अस्तित्व को बचा रखा है।
मन के इसी शीतल नीर ने, हमको जगा रखा है।
कुछ न करकर भी, सत् के दुश्मनों को दबा रखा है।
ऊपर, ऊपर और ऊपर, आसमा को छूने की ललक है।
खुद को ही नहीं पता, कि धड़कन कब तलक है।
आसमा तो है आँखों मे क़ैद, और खुली अभी भी पलक है।
हृदय में है दृढ़ विश्वास, सूखा हुआ चाहे हलक है।
- नीरज मठपाल
फरवरी २२, २००३
मुस्कान का दर्द
आ भी नहीं रहे
न तो सु और न ही कु
विचारों में भी तड़पन।
शायद मौसम ही कुछ ऐसा है
या कुछ गड़बड़
शायद आराम की आवश्यकता।
लेकिन
ये आवश्यकता
तो अनंत पर्वत हो रही है।
क्या कभी
प्रारम्भ पुनः होगा
या यूँ ही
विलय हो जायेगी
वह मुस्कान
वह सच्ची मुस्कान
भीतर से;
क्या कभी कोई किसी से
अंतर्मन से मुस्कुराने को कह सकेगा …
मेरी तरह
या
मौन …
- नीरज मठपाल
जुलाई १०, २००२
ताश और हम
प्रारम्भ कुछ क्षणों के लिए
अंत अनिद्रा के साथ।
ताशों सा बिखरना
बिखरकर फिर जुड़ने की मुश्किलें
जुड़कर भी अंजाम का भय।
ताशों की तड़पन
कभी हारकर
तो कभी जीतकर
कभी कुछ पाकर
तो कभी कुछ खोकर।
ताशों की एकता
गुलाम, बेगम, बादशाह, दुग्गी
सभी एक खाड़ में।
ताशों मे भेदभाव
कोई अमीर तो कोई गरीब।
नहल के ऊपर दहला
बेगम के ऊपर बादशाह।
ताशों का जीवन चक्र
कितना अजीब, कितना सुन्दर।
या कितना कुपित,
कितना वीभत्स।
- नीरज मठपाल
जुलाई १०, २००२
मध्यमार्गी
या ब्रह्म मुहूर्त के प्रारब्ध मे
एक मध्यमार्गी।
सांत्वना और शांति के लिए
समझौतों से गुजरता हुआ
एक मध्यमार्गी।
अपनी पहचान को ढूँढता
अपने वजूद को टटोलता
एक मध्यमार्गी।
सघन विरलता से संतृप्त
विरल सघनता से प्रसन्न
एक मध्यमार्गी।
निम्न कर्मों को समेटे हुए
उच्च कर्मों की ओर लक्षित
एक मध्यमार्गी।
आडम्बर से छलित
सिद्धहस्तों से मतिभ्रमित
एक मध्यमार्गी।
मस्तिष्क नयनों पर
पत्थर रखे हुए दिग्भ्रमित
एक मध्यमार्गी।
- नीरज मठपाल
अक्टूबर १८, २००१
अनआन्सर्ड
दूर परछाई कि ओट में
उन रुई के फाहों के बीच
जहाँ सूर्य की किरणें हों।
छितरा – छितरा कर फैल जाये
उन फाहों का कतरा – कतरा।
इस क़दर कि हर कतरे में
नजर आने लगे
सूर्य की एक किरण।
वह किरण धरा पर जब
आकर गिरे तो
फैल जाये उसकी खुशबू
चारों तरफ़।
हाँ चारों तरफ, शरीर के
जर्रे जर्रे में।
किन्तु अब एहसास
अनेकता का होने लगा।
विरलता छा रही है
क्या फिर सघनता आयेगी?
नो रिप्लाई!
- नीरज मठपाल
फरवरी, २०००
नींद के झोंके के बीच
जब पलकें झपका लेता हूँ।
तभी उठती है
एक हूक सी दिमाग में
यादें झिझोड़ देती हैं मन को।
वो पुरानी स्वप्निल यादें।
गुरुजनों की, अनुजों की
अग्रजों की, दोस्तों की वो
आशाएं
जो शायद आज
निराशाओं मे तब्दील हो चुकी हैं।
इन निराशाओं से पार पाने को
जहाज तो है;
पर जहाज मे न ईधन है,
न पतवार है, न पानी है,
न इंजन है,
बस यात्री है और जहाज कि लकड़ी है।
लेकिन सोचता हूँ जाड़े के
इस मौसम में कम से कम
लकड़ी तो है
उनका क्या …
जिनके पास दियासलाई तक नहीं।
अब इस लकड़ी से अपने उत्थान का सामान
तैयार करना है।
फ़िलहाल अलविदा
कह दूँ …… इस नींद के झोंके के बीच।
- नीरज मठपाल
दिसंबर ३१, १९९९
जानते हो क्यों?
जानते हो क्यों?
तुम्हारा उधार जो चुकाना था।
तुमसे नजरें मिली तो बैठी रह गई …
जानते हो क्यों?
उधार चुकाने को पैसे जो नहीं थे।
तुमसे हाथ मिलाया तो धड़कनें बढ़ गई …
जानते हो क्यों?
तुम्हारी नजरें मेरी एच.एम.टी. पर जो थी।
तुमसे बोलना चाहा तो जबान फिसल पड़ी …
जानते हो क्यों?
गले में थूक जो अटक गया था।
तुम्हारे पंजे कि छुअन को हटाना चाहा …
जानते हो क्यों?
साँसे अपने अंत की ओर जो जा रही थी।
आँखों में पानी, श्वास में श्वास अटक गया …
जानते हो क्यों?
क्योंकि हम जो गरीब थे, तुम जो अमीर।
- नीरज मठपाल
अगस्त १२, १९९९
ये कैसा हृदय
तो हृदय से बाहर ही होता।
भावनाएं जीवन कि कटु सत्य हैं;
या हैं एक मधुर असत्य।
हृदय का फैसला
हृदय के ही पक्ष में।
अवरोध
एक निकम्मी मजबूत दीवार;
दीवारें जो ढह ना सकी
युग सूचक के ढहने पर भी।
प्रेरणा थी मृतप्राय
श्वासें कहा गयी वो …
भोजन – नलिका के कोपभाजन
से त्रस्त
दीवारें सुस्ताना चाहें –
पर चाह अमिट क्यों?
क्या राख्न भी नसीब ना थी
उस हृदय के लिए;
शायद वो हृदय ही नही था।
- नीरज मठपाल
अक्टूबर १७, २००१
चौथा किनारा
पहला-दूसरा एक तरफ
पहले में डूबकर
दूसरे का साथ दे।
जो बच निकले, या यूँ कहिये
कि है जो अतिरिक्त
वही तीसरा किनारा
सह-अस्तित्व का प्रश्न नहीं
ये तो दो छोर ही हैं
और नौका से आना-जाना ही है
पर इन तीन किनारों के ऊपर
अपना प्रिय चौथा किनारा।
बन जाये यदि यही छत
तो आंच न आये
किसी भी किनारे पर।
इस चौथे किनारे की चाहत
धुन बनकर यदि छा जाये
तो आकाश में
प्यारे बादल होंगे
सूरज की छटा भी होगी
और छोटी छोटी पानी की बूँदें भी।
देव-गीत, ऋचाओं का मंगल स्वर होगा – और होगी
कल्पतरू की शीतल छाँव।
सब चौथे किनारे पर
पुष्प वर्षा के लिए।
अब यही किनारा देखता है हृदय,
अब यही किनारा चाहता है हृदय।
- नीरज मठपाल
जून १५, २००६
मैं वही हूँ
हाँ वही तो हूँ
बस कुछ भूल सा गया था
शायद कहीं खो गया था
या फिर राह में चलते – चलते
सो सा गया था।
अभी झटके से नींद खुली
तो तपन का एहसास हुआ
इस शरीर में ठंड का ही असर था
सो तपन महसूस कर
ठंडक सी मिली
लगा कि
हाँ मैं वही हूँ
वही जो अपने में विश्वास करता है –
विश्वास …. असीम अनंत।
वही जो सबसे मजबूत है
पूरे तीन सौ साठ अंश तक।
सच ….. आज मैं बहुत खुश हूँ।
क्योंकि यही काफी है मेरे लिए
कि
मैं वही हूँ।
- नीरज मठपाल
अप्रैल ४, २००३
अश्वमेध
चन्द्र भी गतिमान
चल पड़े कदम मेरे भी
मैंने भी होना था गतिमान।
सूर्य की तपन
चन्द्र की शीतलता
दोनों जैसे ही मिले मुझको
मैंने भी होना था गतिमान।
किरणों ने ना मोड़े कदम
चांदनी ने कहाँ जाना था थम
सामने थे कुछ नए प्रतिमान
मैंने भी होना था गतिमान।
- नीरज मठपाल
अप्रैल २०, २००४
मैं चलता जाता हूँ
अनजानी कृत्रिम हवाओं के साथ
ये वृक्ष इधर उधर झूलते हैं।
पानी का ये सुन्दर ढ़ेर
वैभव की ये ऊँची इमारतें
कुछ पाने की ये निरर्थक दौड़ देखकर
आँखों में लाल डोरे पड़ते हैं।
छलकी हुई चाँदनी में
चतुर्थी के इस छोटे चाँद की
मद्धिम रोशनाई में
सडकों पर फैले कृत्रिम प्रकाश के साथ
कई वहां दौड़ते हैं।
उन बेमानी सडकों पर
दौड़ते धुऐं के साथ
जब छाया भी धुंधली हो जाती है।
इस ध्वनिरहित प्रवाह में
विचारों के रौंदे हुए जल से
जब छीटें उड़ते हैं।
बंद होती बुझी आँखें भी
जब शांति पाती नहीं दिखती हैं।
झाँक लेता हूँ अपने अन्दर भी
और उसी दौड़ का एक हिस्सा पाता हूँ।
तब भी जब दौड़ रूकती नहीं दिखती
टेढ़ी पूँछ वाला एक कुत्ता पाता हूँ।
अपनी दुम को टाँगों में दबाये
उसे चुपचाप दौड़ते पाता हूँ।
तीक्ष्ण क्रन्दन कि कोई आवाज नहीं
बिना चाह के उसे हड्डी तोड़ते पाता हूँ।
हर सुबह यही क्रम
फिर निर्मित होते पाता हूँ।
इसी दौड़ में
अपने को खोता हुआ पाता हूँ।
फिर भी मैं चलता जाता हूँ,
इसी राह को राह बनाकर
मुस्कराते हुए चलता जाता हूँ।
कलरव सुनाई देने लगता है
मधुर हवाएँ बहने लगती हैं
ये वृक्ष अब रूक जाते हैं।
और मैं चलता जाता हूँ
राह इसी तरफ पाता हूँ
मैं राह इसी तरफ पाता हूँ।
- नीरज मठपाल
फरवरी २०, २००५
सपने के बाद
क्यों फिर सोने का मन करता है
क्यों फिर आलस में डूब जाने को मन करता है
क्यों फिर मन डरता है
क्यों फिर पढ़ने का मन नहीं करता है
क्या था वो बैठा हुआ शेर एक
क्या थे वो भागते हुई चीते दो
क्यों था मैं उन्ही की तरफ भागकर निकलता
क्यों था वो एक ही रास्ता
फिर क्यों था मैं चिल्लाया
फिर क्यों थे वो मुझे रहे देखते
क्यों कहा नानी ने आया क्या ऐसे
न आता तो क्या था
क्या दूँ मैं ऐसे उठकर उत्तर
क्यों था न मैं थोड़ा और सोया हुआ
क्यों था न मैं थोड़ा और डरा हुआ
क्यों था ये रात का सफ़र
क्यों था ये रात का अन्तिम प्रहर
क्यों दी उस मुर्गे ने बाँग
क्यों थी वो घुटनभरी गर्मी
क्यों हूँ मैं ऐसे बैठा हुआ
डरा, सहमा कुछ लिखता हुआ
किस तरफ कर रहा ये इशारा
क्यों नहीं दिख रहा अब भी किनारा
क्यों है ये निरंतर उठाता हुआ धुआँ
क्यों नहीं मन करता उत्तर खोजने को
क्यों कर रहा मन फिर सोने को
… और मैंने मन की बात मन ली।
- नीरज मठपाल
जनवरी, २००५
गुरुवार, 12 अप्रैल 2007
प्रश्न चक्र
ऊपर से टिन बिछ गया
एक दीवार में छेद कर
लकड़ी का फट्टा लगा दिया
चार पाँव अन्दर
बस बन गया एक घर।
समय बीता
कोपलें फूटी,
तेज हवा आई
कोपलें बह गई।
पतझड़ आया
चारों आँखें बंद हुई,
छत टूटी
फट्टे फट गए
घर बन गया खंडहर।
कमांडर की आवाज आई
जैसे … थे।
मैं हँसा
ऐसे ही तो थे।
पर पृथ्वी
क्या ऎसी ही थी?
उत्तर
कोलाहल में कहीं दब गया है।
- नीरज मठपाल
फरवरी ३, २००४
महानगर
हैंगर पर लटकी पड़ी है
वेलवेट का जैकेट बगल में
चमचमा रहा है।
ठिठुराने वाली ठंड में भी
बाहर की चमक ज्यादा जरूरी है।
अन्दर का मैल किसे नजर आता है,
गंगाजली रिन बार तो है ही
गर्मियाँ आते ही
कमीजें चमचमाने लगेंगी।
महानगरों में सब कुछ चमचमाता है
जो चमकता नहीं
वह दिखता भी नहीं,
न ड्राइवर को, न सरकार को
न कम्पनियों को और न डाक्टर को।
रोज ऐसे दस नजर आते हैं
जो जुगाड़ से एसी में खिल रहे होते हैं
और ऐसे हजार
जो मैली कमीज में पसीना-पसीना हो रहे होते हैं।
रिन की टिकिया भी
उनके पसीने में डूबती नजर आती है।
मेरे पास एक फार्मूला है – क्या कोई कम्पनी
चमकने वाला ‘ प्रोडक्ट ’ बनाएगी।
सैकड़ों आफर हजारों लोगों को लाखों का चूना लगाने को
उतावले हो रहे हैं।
भाई, एक मुझे भी देना
एक फैमिली पैक मुझे भी।
- नीरज मठपाल
फरवरी ३, २००४
द्वंद्व
कुछ जानी - पहचानी भीड़ में
खिलखिलाते अधरों और
निष्क्रिय मानसों के साथ
चेतन को जड़वत दृगों से
जागृत करने का द्वंद्व।
संघनित रेखाओं के मध्य
विश्वास से परिपूर्ण
समय पर धमनियों को मिलाती
शांत एवं धीर
एकांत रेखा को पाने का द्वंद्व।
सीमाओं को असीम
अनुभव की गहराइयों के साथ
छोटे से प्रांगण में
असीम बनने की प्रसन्नता,
इन प्रसन्न मुद्राओं में
वास्तविक प्रसन्नता परखने का द्वंद्व।
सर्व द्वंद्वो – अंतर्द्वंद्वो पर
विजय पाने का द्वंद्व।
.........द्वंद्व जारी है।
- नीरज मठपाल
अगस्त २५, २००४
रेखा युद्ध
बिखरती – बिगडती रेखाएँ
बुलबुलों सी फूटती रेखाएँ
रेखाओं के बीच घिरती रेखाएँ
गहन तमस में डूबती रेखाएँ
विचारों में उतरती रेखाएँ
चुप होने को विवश करती रेखाएँ
खामोश टूटन का इंतज़ार करती रेखाएँ
विश्वास को तोड़ती रेखाएँ
एकाएक अस्वीकार करने का
प्रयत्न करती लंबी – छोटी रेखाएँ
मन के बोझ को दर्शाती कई रेखाएँ
कुछ वक्रीय, कुछ सीधी रेखाएँ
हलचलों में फंसती रेखाएँ
संबंधों को हिलाती रेखाएँ
मरघट के सन्नाटे सुनाती रेखाएँ
मौत की आहटें सुनाती रेखाएँ
विश्वास की राख को
बेबसी से देखती रेखाएँ
च्च! क्या लिखा इन रेखाओं ने
न छ्पने को तैयार होती रेखाएँ।
इन रेखाओं में
एक रेखा छोटी सी
मन की रेखा।
चलती रही – निरंतर
लंबी रेखा के साथ
समानान्तर ही जन्मे हों जैसे।
हर अच्छाई को
लंबी की सेवा में
रहना था तत्पर
कद को स्वीकार न थी
कोई सीमा।
वहीं हर गलती के साथ
कद घटाती रही छोटी रेखा
सारी बुराईयाँ जो थी
उसके हिस्से।
चिल्लाहट होती –
चाहिये
एक नियंत्रित छोटी रेखा
अंकुश की फटकारों से
घायल रेखा
साँसों का भी आभास न देती
एक मौन रेखा
सहनशीलता की प्रतिमूर्ति
शांत बैरागी रेखा।
पर साथ तो आयी थी
जीवन को आसान बनाती
नित नया जोश जगाती रेखा
दुखों में सच का एहसास कराती
इंसानों को इन्सान बनाती रेखा
भावों को कोमल स्वर देकर
रिश्तों को मधुर बनाती रेखा
हर एक स्वर की
सुन्दर अनुगूंज सुनाती रेखा।
तो क्यों सीमा स्वीकार करे
यह चंचल, अलबेली रेखा।
असीम शून्य में उड़ने को तैयार
पंख फैलाये छोटी रेखा।
- नीरज मठपाल
मार्च १७ एवं १८, २००४
शनिवार, 27 जनवरी 2007
Journey Against Time
they make a force to reckon with
and in that bond
they can feel far beyond
the limitations,
but nothing original.
When separated
they like to be silent
and opportunities have to wait
patiently, quietly.
When they headed towards
the mirror,
it reflects the false persona,
survival becomes easy with this,
but grey colours-
always attached.
When the time is behind the footsteps,
it shows the true character
A twist in the tale of
red blood
with passion and aggression,
reflecting the triumph of humanity
patiently, quietly.
- Neeraj Mathpal
February 20, 2004
Frozen Breeze
When the darkness is dense.
A silent question –
Are we loosing our sense.
In the middle of lazy thoughts,
When attitude has no meaning.
One more silent question –
When will we stop yawning.
In the beginning of sickness,
When we are sitting on our knees.
Final silent question –
Could we bring out the sparking breeze.
In the town of motivation, street of inspiration,
The sparking frozen breeze lives.
Answer to all questions –
Make the best use of whatever the frozen breeze gives.
- Neeraj Mathpal
August 10, 2005
शनिवार, 20 जनवरी 2007
Height
full of adventures
as I was climbing;
My aim was to get
the unlimited height
on the path of zero ness.
Find a lady
full of tears yet
looking like a Goddess;
To my pleasure she murmured
these are the tears
of pleasure after a long wait.
What!! Long wait -
I whispered
with strange expressions;
No is the answer
in silence.
The wait is for
creative philosophy
The wait is for
new original energy
against the law of
energy conservation.
Oops!! I cried
felt the conversion
of Goddess to madness;
Height looks attainable
but where is the height.
In front of computer
sitting in a non existing
big zero of eleven dimensions;
Madness is busy in
playing games with mind
to violate the laws of conservation.
-----Neeraj Mathpal
Dec-10-2004